मध्यप्रदेश में सत्ता खोने के बाद दिग्गी राजा की जनता और कांग्रेस संगठन पर पकड़ कमज़ोर हुई है, लेकिन छत्तीसगढ़ के हालात दूसरे हैं. यहां के राजनीतिक माहौल में स्थानीय नेता शिद्दत से दिग्विजय सिंह की जरूरत महसूस कर रहे हैं. इसकी बानगी 25 मई को देखने को मिली, जब कांग्रेस के नेता सुभाष धुप्पड़ ने कहा, राजन हमें अपनी शरण में ले लो!
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि माइनस जोगी राज्य के जितने भी कांग्रेस के प्रमुख नेता पार्टी में हैं, वे सभी दिग्विजय सिंह के आदमी हैं. प्रदेश अध्यक्ष हों या फिर नेता प्रतिपक्ष, छत्तीसगढ़ में दोनों पदों के लिए आज भी उनकी ही मर्ज़ी चलती है. इसी बात से खिन्न होकर पिछले विधानसभा चुनाव से पहले जब दिग्विजय सिंह प्रदेश कांग्रेस के कार्यक्रम में आए थे, तब जोगी ने कह दिया था कि राज्य में छत्तीसगढ़ियों की राजनीति चलेगी, किसी गढ़ वाले की नहीं. उनका इशारा दिग्विजय सिंह की ओर था, क्योंकि वो जानते थे कि रायपुर के लिए सियासी पत्ते भोपाल और दिल्ली में बैठकर दिग्विजय सिंह ही फेंटा करते हैं.
हालांकि अजीत जोगी ने मुख्यमंत्री रहते दिग्विजय सिंह की छाया से भी पार्टी को दूर रखा. लेकिन जब जोगी का राज खत्म हुआ, तो एक एक कर सारे नेता फिर से दिग्गी राजा के साथ हो लिए. एक जमाने में जो लोग विद्याचरण सिंह या श्यामाचरण सिंह के खेमे के थे, वे भी अपने नेता का प्रभाव कम होने के बाद दिग्गी कैंप के आदमी बन गए.
शायद इसीलिए 26 मई को नंदकुमार पटेल के बेटे उमेश पटेल को अपने पिता की प्रतिमा का अनावरण करना था, तब उन्हें दिग्विजय सिंह ही याद आए. 25 जून 2016 को जब दिग्विजय सिंह खरसिया गए, तब छत्तीसगढ़ का ऐसा कोई बड़ा नेता नहीं होगा, जो उनका साथ पाने की हसरत लिए खरसिया नहीं गया. इसलिए जब एयरपोर्ट पर महंत खेमे के विश्वसनीय सुभाष धुप्पड़ दिग्विजय सिंह से कहते हैं -‘हे राजन! हमें संरक्षण दो’- तो इसकी बहुत सारी वजहें नज़र आती हैं. ऐसे में राजनीति के इस चाल को समझना जरूरी है.
दरअसल, राज्य में कांग्रेस इस समय कई तरह के संकट के दौर से गुजर रही है. कांग्रेस के लिए यहां सबसे बड़ा संकट लंबे समय तक सत्ता से दूर रहना है. 13 साल बाद भी पार्टी में कोई ऐसा नेता नहीं है, जो रमन सिंह की शख्सियत को चुनौती दे सके और जिसे बलरामपुर से कोंटा तक जनता पहचानती हो. चाहे चरणदास महंत हों, सत्यनारायण शर्मा, धनेंद्र साहू, भूपेश बघेल या टीएस सिंहदेव, सब अपने-अपने क्षेत्र के नेता हैं, जबकि रमन सिंह को प्रदेश का बच्चा-बच्चा जानता है.
कांग्रेस पार्टी के अंदरखाने बड़े नेताओं के बीच मतभेद की खबरें भी अब किसी से छिपी नहीं हैं. जोगी विरोध के चलते सभी नेता एकजुट हो गए थे. लेकिन जोगी के पार्टी से जाते ही सब फिर गुटों में बंट गए. सभी नेता एक-दूसरे की शिकायतें लगातार आलाकमान तक पहुंचा रहे हैं. इस हालात में कोई ऐसा नेता नहीं दिखता, जिसकी स्वीकार्यता सभी गुटों में हो. अजीत जोगी द्वारा नई पार्टी बनाए जाने के बाद हालात और बिगड़ने की आशंका कार्यकर्ताओं को सता रही है. इसका असर कार्यकर्ताओं के मनोबल पर भी पड़ रहा है.
जब राज्य में पार्टी नेताओं के बीच आपसी खींचतान मची हो, मुकाबला और कड़ा होने वाला हो, समीकरण पार्टी के हित में न हों, तब प्रभारी महासचिव बीके हरिप्रसाद की भूमिका बढ़ जाती है. हरिप्रसाद कड़े तेवर वाले नेता हैं. पिछले चुनाव तक उनकी सक्रियता ऐसी थी कि कार्यकर्ता उनके कड़े तेवर सहकर भी पूरी ऊर्जा के साथ जुड़े रहते थे. 2013 के विधानसभा चुनाव से पहले हरिप्रसाद हर हफ्ते छत्तीसगढ़ आते थे. लेकिन यहां चुनाव क्या हारे, राज्य में उनके दर्शन ही दुर्लभ हो गए. वे खुद प्रभारी के पद से हटने की इच्छा जता चुके हैं और इस्तीफा भी दे चुके हैं.
माना जा रहा है कि नए विकल्प के सामने नहीं आने तक उन्हें काम संभालना पड़ सकता है. कांग्रेस के राष्ट्रीय संगठन में बदलाव का इंतज़ार पूरी पार्टी को है. संकट यह है कि बदलाव के बाद अगर महासचिव पद का दायित्व किसी नए नेता को दिया जाता है तो उसे काम शून्य से करना होगा. जाहिर है महासचिव पद के लिए राज्य कांग्रेस को ऐसे नेता की जरूरत है तो पहले से नेताओं से वाकिफ हो और जो कम समय में पार्टी को एकजुट रखने के साथ कार्यकर्ताओं में ताकत भर सके.
इन तमाम ज़रूरतों को पूरा करने में दिग्विजय सिंह सबसे फिट बैठते हैं. हालांकि कई नेता और कार्यकर्ता मानते हैं कि इस बात की संभावना नहीं के बराबर है, क्योंकि छत्तीसगढ़ के साथ मध्यप्रदेश के चुनाव हैं. लिहाज़ा उन्हें अपने राज्य को देखना है. वहां प्रत्याशी चयन से लेकर प्रचार तक की अहम जिम्मेदारी दिग्विजय सिंह के कंधों पर होगी.
इसके अलावा, इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि दिग्विजय सिंह फिर से महासचिव न बना दिए जाएं. हालांकि दिग्विजय सिंह ने रायपुर में साफ कह दिया है कि वे छत्तीसगढ़ के महासचिव बनने के इच्छुक नहीं हैं. उसकी बड़ी वजह यह है कि एक बड़े राज्य के दो बार मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय कांग्रेस के रणनीतिकार अपने को एक छोटे से राज्य तक क्यों सीमित रखना चाहेंगे.
रायपुर -भोपाल से लेकर दिल्ली तक कांग्रेस के भीतर के जो समीकरण बनते दिख रहे हैं, उसमें दिग्विजय सिंह की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता है. मध्यप्रदेश में यह बात तय हो चुकी है कि यहां उनकी भूमिका अब सीमित रहेगी. राज्य की कमान कभी भी कमलनाथ या ज्योतिरादित्य सिंधिया को मिल सकती है. दोनों में से कमान किसी भी नेता को मिले, कोई भी नहीं चाहेगा कि जब कमान उनके हाथ में हो तो वहां दिग्विजय का कोई दखल हो.
छत्तीसगढ़ के लिए कार्यकर्ता कोई ऐसा महासचिव चाहते हैं जो कार्यकर्ताओं को पहचानता हो. कुछ कार्यकर्ता चाहते हैं कि भक्त चरणदास को प्रमोट कर प्रभारी महासचिव बनाया जाए, तो कुछ मुकुल वासनिक से प्रभावित दिखते हैं. यहां के एक बड़े नेता किसी युवा चेहरे को महासचिव बनाने के हक़ में हैं, ताकि टिकट बंटवारे में उन्हें ज्यादा दिक्कत न हो.
जानकार मानते हैं कि दिग्विजय सिंह के महासचिव बनाने भर से पार्टी मुकाबले में आ जाएगी. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि छत्तीसगढ़ में दिग्विजय सिंह से बाहर कुछ नहीं है. सभी नेता उनके बनाए हैं. चरणदास महंत, भूपेश बघेल, टीएस सिंहदेव, सत्यनारायण शर्मा, धनेंद्र साहू सब दिग्विजय कैंप के हैं. दिग्गी राजा के रहते सारी गुटबाज़ी खत्म हो जाएगी.
इसकी बानगी अक्सर उनके छत्तीसगढ़ दौरे पर दिखती है, जब वे आते हैं, तब गुटों में बंटी कांग्रेस एक साथ खड़ी दिखती है. यहां यह भी याद रखना होगा कि मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह दूसरी बार छत्तीसगढ़ की वजह से ही जीते थे. उन्हें ये बखूबी मालूम है कि यहां किसे क्या काम सौंपना है.
जिन दो मामलों में राज्य की कांग्रेस कमज़ोर दिखती है दिग्विजय सिंह उसे भी दुरुस्त कर सकते हैं. राज्य के नौकरशाह मध्यप्रदेश से आए हैं. वरिष्ठ नौकरशाहों के दिग्विजय सिंह से संबंध ठीक-ठाक हैं. चुनाव में इन नौकरशाहों की भूमिका अहम होती है. इसके अलावा वे आसानी से चुनावी संसाधन भी जुटा लेंगे. फिलहाल यह देखना होगा कि छत्तीसगढ़ से पहले मध्यप्रदेश में आलाकमान उनकी भूमिका को सीमित करता है या नहीं. जब तक इस पर आलाकमान कोई फैसला नहीं लेता है, तब तक कयासों का बाज़ार गर्म रहने की उम्मीद है.