क़रीब एक महीने तक बार-बार टिकट बदलने और लंबे ड्रामे के बाद आख़िरकार कांग्रेस ने अपना रायपुर का प्रत्याशी सत्य नारायण शर्मा को ही बनाया. इसी के साथ छत्तीसगढ़ में पूरी 11 सीटों पर कांग्रेस और भाजपा के उम्मीदवार फाइनल हो गए. अब सवाल है कि कौन कितनी सीटें जीतेगा. पिछले दो लोकसभा चुनाव से भाजपा यहां की 11 में से 10 सीटें जीतती आई है. मुख्यमंत्री रमन सिंह का दावा है कि इस बार सभी 11 सीटें जीतेंगे, लेकिन विधानसभा चुनाव में मात्र 0.73 प्रतिशत वोट से सत्ता बचाने वाले रमन सिंह को मालूम है कि 10 सीटें बचाना भी आसान नहीं है. दूसरी तरफ़ कांग्रेस के नेता दावा करते हैं कि कम से कम छह सीटें उनकी हैं. जानकारों के मुताबिक, भाजपा के लिए लोकल एंटी इनकम्बेंसी से बचकर फिर से 10 सीटें जीतना आसान नहीं है, वहीं गुटों में बिखरी कांग्रेस का भाजपा से ज़्यादा सीटें जीतना हकीकत से दूर दिखता है.
भाजपा के दावे का आधार विधानसभा चुनाव में तीसरी बार मिली कामयाबी है. विधानसभा चुनाव में रमन सिंह ने पूरी कमान अपने हाथों में ले ली थी. चुनाव में जीत की हैट्रिक लगाकर रमन ने 11 अशोक रोड तक यह संदेश दे दिया कि विधानसभा में मिली जीत उनकी अपनी छवि का नतीजा है. अब छत्तीसगढ़ में रमन पार्टी से बड़े हो चुके हैं. भाजपा के फैसलों में इसका साफ़ असर दिखता है. पार्टी में वह अपने तमाम विरोधियों को किनारे कर चुके हैं. विधानसभा चुनाव में ही उन्होंने करुणा शुक्ला को टिकट और प्रचार में जगह न देकर बाहर का रास्ता दिखा दिया. नंद कुमार साय अलग- थलग पड़े हैं. चुनाव के बाद उन्होंने नई सरकार में बृजमोहन के सभी अहम मंत्रालय छीनकर अपने चहेते राजेश मूणत को थमा दिए हैं. भाजपा में सबसे चतुर खिलाड़ी समझे जाने वाले बृजमोहन अभी किनारे लगा दिए गए हैं. बृजमोहन प्रबंधन कौशल के लिए जाने जाते हैं. विधानसभा चुनाव में उनके पास महासमुंद ज़िले का प्रभार था, जहां उन्होंने एक भी सीट कांग्रेस को जीतने नहीं दी, पर बृजमोहन की कामयाबी रमन की हैट्रिक के आगे फीकी पड़ गई.
रमेश बैस और सरोज पांडेय का राजनीतिक भविष्य लोकसभा चुनाव में जीत पर निर्भर करेगा. पार्टी में रमन सिंह की किस कदर तूती बोल रही है, इसका अंदाज़ा राजनांदगांव की सीट है, जहां से उन्होंने सवा लाख से ज़्यादा वोटों से जीतने वाले मधुसूदन यादव का टिकट काटकर अपने बेटे अभिषेक सिंह को दिलवा दिया. रमन को खुद पर पूरा भरोसा है. पार्टी में कोई नेता बचा नहीं है, जो अंदरखाने रमन के लिए चुनौती बन सके. इसलिए भाजपा यह चुनाव एकजुटता के साथ बिना किसी घात-प्रतिघात के लड़ने जा रही है. बेहतर प्रबंधन और अनुशासन भाजपा के पक्ष में है. वह यह चुनाव मोदी के नाम और रमन के काम के सहारे लड़ रही है. जो बात भाजपा नेताओं के ख़िलाफ़ दिखती है, वह है प्रत्याशी. भाजपा ने 2 सांसदों के टिकट काटे हैं. दो सांसदों का निधन होने की वजह से पार्टी को नए प्रत्याशी उतारने पड़े हैं. बाकी 6 मौजूदा सांसद ही हैं. भाजपाई सांसदों के खाते में ऐसी कोई उपलब्धि नहीं है, जिसे वे जनता के बीच बता सकें. ज़्यादातर सांसद ऐसे हैं, जो चुनाव में ही दिखते हैं. संसद में भी कोई छत्तीसगढ़िया सांसद अपनी पहचान नहीं बना पाया. अभिषेक को छोड़कर जिन लोगों को मौक़ा मिला है, उनमें कोई नामचीन नहीं है. सबको मोदी और रमन का ही सहारा है. ऐसे हालात में भाजपा अपना पुराना प्रदर्शन दोहरा पाएगी, इसकी संभावना कम ही दिखती है.
कांग्रेस के लिहाज़ से देखें, तो छत्तीसगढ़ उसके उन राज्यों की सूची में है, जहां कांग्रेस बढ़त हासिल करेगी. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि पिछले दो चुनावों में कांग्रेस 11 में से स़िर्फ एक सीट ही जीत सकी. लिहाज़ा उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है. दूसरी बड़ी वजह यह है कि कांग्रेस चार महीने पहले हुए विधानसभा चुनाव में केवल छत्तीसगढ़ में ही टक्कर दे पाई थी. दो-ध्रुवीय राजनीति के केंद्र छत्तीसगढ़ में कांग्रेस महज़ पौन फ़ीसद वोटों और 5 सीटों के अंतर से सत्ता में आते-आते रह गई. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 5 लोकसभा सीटों पर बढ़त हासिल की थी. एक और बड़ी वजह है कि छत्तीसगढ़ में स्थानीय जनप्रतिनिधियों के ख़िलाफ़ खूब आक्रोश था. जनता ने दोनों पार्टियों के 50 से ज़्यादा विधायकों को सड़क पर ला खड़ा किया था. अगर यही ट्रेंड लोकसभा में सांसदों के ख़िलाफ़ रहा, तो कांग्रेस की बल्ले-बल्ले हो सकती है.
भाजपा ने रमेश बैस और एक हद तक विष्णुदेव साय को छोड़कर प्रदेश स्तर पर पहचान रखने वाले किसी नेता को नहीं उतारा है, जबकि कांग्रेस ने अपने सभी बड़े नेताओं को टिकट थमा दिए हैं, जैसे कोरबा से केंद्रीय मंत्री चरणदास महंत, महासमुंद से पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी, बिलासपुर से करुणा शुक्ला एवं रायपुर से पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सत्य नारायण शर्मा. लेकिन, इन्हीं दिग्गजों की आपसी टकराहट कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी है. प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल पिछले दस सालों से जोगी की ब्लैक लिस्ट में हैं. पार्टी में भूपेश बघेल जोगी के सबसे बड़े विरोधी माने जाते रहे हैं. माना जाता है कि जोगी के अधूरे संन्यास की वजह भूपेश बघेल को प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाना था. रायपुर सीट से पहली बार सत्य नारायण शर्मा का टिकट कटा, तो शर्मा समर्थकों ने भूपेश को इसका ज़िम्मेदार ठहराते हुए कांग्रेस मुख्यालय में कुर्सियां तोड़ी थीं. हालांकि बाद में टिकट सत्य नारायण शर्मा को मिला. रायगढ़, जांजगीर-चाम्पा बिलासपुर और राजनांदगांव में टिकट वितरण से उपजा विरोध थमा नहीं है.
कई कांग्रेस नेताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया है. इस हालत में कांग्रेस छत्तीसगढ़ में कितनी सीटें निकाल पाएगी, यह बड़ा रोचक सवाल है. इस चुनावी रण में आम आदमी पार्टी भी है, छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच भी है, लेकिन जानकार उन्हें मुख्य लड़ाई का हिस्सा नहीं मानते. बस्तर से सोनी सोरी ज़रूर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं, लेकिन अभी उनके बारे में आकलन करना मुश्किल है. जिस राज्य में आज भी जनता नेता नहीं, बल्कि फूल छाप और हाथ पहचानती है, वहां मोदी और केजरीवाल इफेक्ट के असरदार रहने की संभावना कम है. शहरी इलाकों में इसका कुछ असर हो सकता है, लेकिन वह निर्णायक होगा, इसकी संभावना कम है.
छत्तीसगढ़ कांग्रेस और भाजपा में कांटे की जंग
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