पिछले सप्ताह अखबारों की सुर्खियों में दो विषय प्रमुख रहे. पहला, जांच एजेंसियों का विपक्षी नेताओं को ऐसे मुद्दों पर घेरना जो अभी तक स्पष्ट नहीं हैं. मिसाल के तौर पर कार्ति चिदंबरम, जो एक बिज़नसमैन हैं. उनकी कंपनियां सही ढंग से व्यवस्थित हैं. तीन साल से उनके खिलाफ साक्ष्य तलाशने की कोशिश हो रही है.
यदि अफवाहों पर विश्वास करें, तो इन तमाम कोशिशों के बावजूद उनके यहां से 15 हज़ार डॉलर की राशि बरामद हुई थी, जो एक बहुत ही छोटी राशि है और जिसमें अनियमितता पाई गई. पिछले दिनों प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई ने उनके आवास पर इस उम्मीद में छापा मारा कि उनके खिलाफ सबूत इकट्ठे किए जा सकते हैं या ज़रूरत पड़े, तो उन्हें गिरफ्तार भी किया जा सकता है. लेकिन ये सब ठीक नहीं है.
ऐसा प्रतीत नहीं होना चाहिए कि सरकारी तंत्र का इस्तेमाल कर सरकार अपने विरोधियों को परेशान कर रही है. इसका बहुत फायदा नहीं मिलने वाला. उत्तर प्रदेश चुनाव में मिले जन समर्थन के बाद इस तरह की चीज़ें भाजपा की असुरक्षा को दर्शाती हैं. यदि पार्टी का दावा है कि नरेंद्र मोदी सम्पूर्ण भारत में स्वीकार्य हैं, तो फिर वो इतनी घबराई हुई क्यों है? भारत सरकार पी चिदंबरम को डराना क्यों चाहती है? क्या इसलिए कि वे हर रविवार को इंडियन एक्सप्रेस में एक कॉलम लिखते हैं! मैं यहां ज़रूर कहूंगा कि उनके कॉलम बहुत ही शालीन और संतुलित होते हैं.
उनकी भाषा ऐसी होती है, जैसी किसी पूर्व वित्त मंत्री की होनी चाहिए. वे अलग-अलग मामलों पर सरकार को सुझाव भी देते हैं. बेशक, वे इस बात की आलोचना करते हैं कि सरकार विकास के जो दावे कर रही है वो ज़मीनी स्तर पर नहीं दिखते. कृषि क्षेत्र और रोज़गार सृजन के लिए वे ठोस सुझाव देते रहे हैं. दरअसल, सरकार की घबराहट मेरी समझ से बाहर है.
बहरहाल, ये सरकार कांग्रेस की नक़ल में कांग्रेस को भी मात दे रही है, फर्क सिर्फ इतना है कि भाजपा ये काम अपरिपक्व और बेढंगे तरीके से कर रही है. यदि कांग्रेस इनके स्थान पर होती, तो वो कहती कि इन चीज़ों से उनका कोई वास्ता नहीं है, कानून अपना काम रहा है. यहां भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता विपक्षी नेताओं को नीचा दिखाने की हर मुमकिन कोशिश करते हैं. लालू यादव, बेनामी जायेदाद.
हम भाजपा नेताओं को टीवी पर सुनना चाहते हैं, सरकार को नहीं. नेता समझ रहे हैं कि वे ही सरकार हैं. वे जोकरों की तरह दिखने लगे हैं. एक प्रवक्ता हैं, संबित पात्रा. ज़रा उनकी भाषा को देखिए, उनकी बॉडी लैंग्वेज को देखिए, उनके तर्क को देखिए. जब वे कहते हैं कि कांग्रेस भी ऐसा किया करती थी, तो उन्हें ये एहसास नहीं होता कि ऐसा कह कर वे यह दावा कर रहे हैं कि वे केवल कांग्रेस के पूरक हैं, उनके विकल्प नहीं हैं. वे समझते हैं कि ऐसा करना ठीक है, क्योंकि कांग्रेस ऐसा करती थी इसलिए हम भी करेंगे.
चाहे सीबीआई का दुरूपयोग हो, प्रवर्तन निदेशालय का दुरूपयोग हो, गवर्नर के दफ्तर का दुरूपयोग हो, विपक्ष से एमएलए की खरीद हो, यदि जनता ने उन्हें नहीं चुना है, तो भी सरकार बनाने जैसे मामले हैं. दरअसल, कांग्रेस इनसे बड़े गुनाह की दोषी नहीं है! लिहाज़ा, उच्च नैतिकता की बात, पार्टी विद डिफरेंस (अडवाणी जी कहा करते थे कि हम पार्टी विद डिफरेंस हैं, यदि जनता हमें नहीं चुनेगी तो विपक्ष में बैठेंगे) सारी चीज़ें कहीं खो गई हैं. अब मामला बहुत सीधा है. लड़ाई शुरू हो गई है, सत्ता हमारे हाथ में है, हम आप पर मुकदमा चलाएंगे आप को प्रताड़ित करेंगे, नतीजा चाहे जो भी हो.
दूसरा विषय विपक्षी नेताओं से सम्बंधित है. उनकी भी बात मेरी समझ में नहीं आती. फर्ज़ कर लीजिए कि लालू यादव के कथित बेनामी जायेदादों को उजागर करने के लिए दिल्ली और गुडगांव के 20 जगहों पर छापेमारी होती है. इस मसले पर जिस तरह से रिपोर्टिंग हुई, उसपर लालू यादव को ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए. क्या उन्हें पता नहीं है कि तमाम राष्ट्रीय अख़बार पूंजीपतियों द्वारा संचालित होते हैं.
इस देश के पूंजीपति किसी भी हालत में सरकार के विरुद्ध नहीं जा सकते. एक बदतर घटना घटी, इंदिरा गांधी ने आपातकाल घोषित कर दी और सेंसरशिप लागू कर दिया. लोगों की आवाज़ बंद करने का यह कानूनी तरीका था. हर किसी को पैसा दिया गया किसी को विज्ञापन के ज़रिए, किसी को दूसरे माध्यम से और उसके बाद हर कोई बिना किसी तर्क के एक ही सुर में गाने लगा. ऐसे अख़बार और संपादक जिनके लिए मेरे मन में आदर है, वे कहीं नहीं दिख रहे हैं.
विपक्ष की रणनीति इन दो में से कोई एक होनी चाहिए. पहली या तो आप खामोश हो जाइए और 2019 के चुनाव के लिए ख़ामोशी के साथ तैयारी कीजिए और भाजपा के खिलाफ किसी एक उम्मीदवार को उतारिए. आपको किसी एक पर सहमती बनानी पड़ेगी, जैसा कि 1977 में जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि जब तक आप आमने सामने की लड़ाई नहीं लड़ेंगे, मैं आपके लिए नहीं लड़ूंगा.
आज भी वही स्थिति आ गई है. यहां सवाल ये है कि क्या आप वास्तव में भाजपा को 2019 में हराना चाहते हैं? यदि हां, तो फिर आपके पास कोई और विकल्प नहीं है कि आप अपने अहंकार को छोड़ कर, थोड़ी कुर्बानी दीजिए. एक बार जब लोकतंत्र सुरक्षित हो जाए, तो फिर 2024 भी आएगा. लेकिन फिलहाल आपको अपने महत्वाकांक्षाओं को अलग रखना होगा और एक ऐसा उम्मीदवार चुनना होगा, जिसकी जीतने की उम्मीद अधिक हो, चाहे वो जिस पार्टी से सम्बंधित हो. यह पहला विकल्प है.
यदि इतनी धीरज नहीं है और आप आज ही आंदोलन छेड़ना चाहते हैं, तो राष्ट्रपति का चुनाव लड़ना कोई मायने नहीं रखता. क्योंकि राष्ट्रपति के पास कोई अधिकार नहीं होता. दरअसल, संविधान में जहां कहीं भी राष्ट्रपति का नाम आया है उसका अर्थ होता है भारतीय सरकार. यहां तक कि किसी को मा़फी देने का अधिकार भी राष्ट्रपति के पास नहीं है, वो किसी को मा़फी नहीं दे सकता. जब भी मा़फी की कोई अपील आती है, राष्ट्रपति उसे गृहमंत्रालय को भेजते हैं. गृह मंत्रालय और यूनियन कैबिनेट उस पर फैसला करते हैं. ब्रिटिश महारानी की तरह राष्ट्रपति देश के टाईटुलर हेड होते हैं.
वे देश की गरिमा का प्रतिनिधित्व करते हैं. उनका पद कोई राजनैतिक पद नहीं है. यदि 2019 से पहले वाकई आप कुछ करना चाहते हैं, तो ईवीएम पर सवाल उठाइए. मैं उन लोगों में से हूं, जो ये समझते हैं कि चुनाव, चुनाव होते हैं. इनमें कोई जीतता है, कोई हारता है. चुनावी प्रक्रिया की ईमानदारी और सच्चाई पर सवाल क्यों खड़े किए जाएं? लेकिन ईवीएम पर कई हलकों से बहुत ही गंभीर संदेह ज़ाहिर किए गए हैं. यदि वाकई ऐसा है और विपक्ष इसको मनाता है, तो ईवीएम को मुद्दा बनाना चाहिए.
उन्हें कहना चाहिए कि 2019 में ईवीएम का उपयोग नहीं होना चाहिए. चुनाव पहले की तरह बैलट पेपर पर होने चाहिए. यदि चुनाव नतीजे आने में देरी होती है, तो उसे क्या फर्क पड़ता है. जल्दी किसको है? उन्हें कहना चाहिए कि भले भाजपा एक बार फिर चुन ली जाए, हम ईवीएम से होने वाले चुनाव का बहिष्कार करेंगे, क्योंकि यदि चुनावी प्रक्रिया में छेड़छाड़ होती है, तो वैसे भी भाजपा ही जीतेगी. हमें अफ्रीकी देशों के रास्ते पर नहीं जाना चाहिए, जहां चुनाव चुराए जाते हैं या बांग्लादेश जहां सभी पार्टियों ने चुनाव का बहिष्कार किया और शेख हसीना दूसरी बार जीत गईं. यह सही तरीका नहीं है.
इन सभी चीज़ों को एक परिप्रेक्ष्य में रखते हुए हम एक सुर में कहते हैं कि 2019 के चुनाव ईमानदारी से होंगे और भाजपा और विपक्ष के बीच में होंगे, चाहे उनके नतीजे जो भी हों. आखिरकार हम लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं. यदि लोग वाकई भाजपा का समर्थन करना चाहते हैं, यदि वे वाकई सेक्युलर नहीं रहना चाहते, तो हम कुछ नहीं कर सकते. लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है, क्योंकि 2014 में उन्हें केवल 31 प्रतिशत वोट मिले थे, 69 प्रतिशत ने उन्हें वोट नहीं दिया था.
वो भी उन्हें कुल वोटिंग का 31 प्रतिशत वोट मिला था. इस लिहाज़ से देखा जाए, तो देश के 125 करोड़ लोगों में से केवल 15-16 करोड़ लोगों ने उन्हें वोट दिया था. यह देश केवल 1950 में नेहरु, आंबेडकर और अन्य लोगों द्वारा तैयार संविधान की वजह से धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी और लोकतांत्रिक नहीं है, बल्कि यह देश अपनी परम्परा और संस्कृति के कारण धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी और लोकतांत्रिक है.
यदि ये लोग कहते हैं कि औरंगजेब ने सबका धर्मांतरण करवा दिया, लिहाज़ा उसके नाम पर सड़क नहीं होनी चाहिए. लेकिन औरंगजेब ने तो 50 साल तक शासन किया, यदि उसने सबका धर्मांतरण करवा दिया होता तो देश में 85 प्रतिशत हिन्दू कहां से आ गए? भारत को एक मुस्लिम देश बन जाना चाहिए था? राजनैतिक लाभ के लिए कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप लगाने पर मुझे कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा नहीं जा सकता. यह हिन्दू प्रभुत्व वाला देश है. हिन्दू का अर्थ हिंदुत्व नहीं है.
हिन्दू का मतलब सनातन धर्म है, जिसका सदियों से जीओ और जीने दो की परम्परा में विश्वास है. सनातन धर्म को किसी मुस्लिम, इसाई, सिख या जैन से कोई आपत्ति नहीं है. सनातन धर्म के कभी नहीं बदलने वाले मूल्य हैं, उनमें से एक ये देश है, जो कभी बदल नहीं सकता. मोदी आते रहेंगे और जाते रहेंगे. हम मुगलों को झेल गए, हम अंग्रेजों को झेल गए तो क्या हम भाजपा सरकार के पांच-दस साल नहीं झेल सकते? देश बहुत मजबूत है, घबराने की कोई वजह नहीं है, लेकिन हमें सही रास्ते पर चलना चाहिए. या तो हमें पूरी चुनावी प्रक्रिया को चुनौती देनी चाहिए या फिर 2019 की तैयारी करनी चाहिए. इसके अलावा कुछ करने का कोई अर्थ नहीं है.