Untitled-23क्या आप जाति, धर्म, समुदाय, भाषा और क्षेत्र के नाम पर वोट डालेंगे?

इस सवाल के जवाब में 16 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उन्हें अपनी जाति या धर्म से इतना अधिक लगाव है कि वे चाहकर भी उससे बाहर नहीं निकल पाते. दूसरी बात यह कि नेता भी अपनी जाति या समुदाय के लोगों की ज़्यादा सुनते हैं. 75 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे उम्मीदवार देखकर वोट देंगे, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म या समुदाय से क्यों न हो. ऐसे लोगों का मानना था कि उन्हें अपने क्षेत्र का विकास चाहिए. जब अच्छी छवि का उम्मीदवार जीतकर आएगा, तो वह उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरेगा. वहीं 09 प्रतिशत लोगों ने कहा कि इस बारे में उन्होंने कभी सोचा ही नहीं, इसलिए वे इस सवाल पर चुप रहना पसंद करेंगे.


क्या लालू और नीतीश एक साथ मिलकर भाजपा का विजय रथ रोक पाएंगे?

इस सवाल के जवाब में 47 प्रतिशत लोगों का कहना था कि जिस तरह विधानसभा की 10 सीटों के उपचुनाव में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी थी, वैसा ही हश्र उसका आगामी विधानसभा चुनाव में होगा. जिन 29 प्रतिशत लोगों ने भाजपा का विजय रथ न रुकने की बात कही, उनमें से अधिकांश पढ़े-लिखे, शहरी, मध्यम वर्ग और ऊंची जाति के थे या फिर ऐसे लोग थे, जिन्होंने लोकसभा चुनाव में भाजपा को वोट दिया था. 24 प्रतिशत लोग कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे. उनका मानना था कि यह तो समय बताएगा. उनके अनुसार, मुकाबला कांटे का है, क्योंकि भाजपा की स्थिति बिहार में पहले से ही बेहतर है.


क्या नीतीश ने मांझी को सत्ता सौंपकर ग़लती की थी?

जब हमने यह सवाल किया, तो 71 प्रतिशत लोगों ने कहा कि मांझी को मुख्यमंत्री बनाना नीतीश कुमार की बहुत बड़ी भूल थी. उनकी इस ग़लती की वजह से बिहार की क़ानून व्यवस्था पटरी से उतर गई. उन्हें जनता के फैसले का सम्मान करना चाहिए था. नीतीश ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली, लेकिन अब उन्होंने अपनी भूल सुधार ली है. ज़्यादातर लोगों का मानना था कि नीतीश के दोबारा मुख्यमंत्री बनते ही बदलाव दिखाई पड़ने लगा है. वहीं 11 प्रतिशत लोगों ने उनके मांझी को मुख्यमंत्री बनाने के फैसले को सही ठहराया. 18 प्रतिशत लोगों की इस सवाल पर कोई राय नहीं थी.


क्या चुनाव में जीतन राम मांझी नीतीश कुमार को नुक़सान पहुंचा सकते हैं?

इस सवाल के जवाब में 73 प्रतिशत लोगों ने कहा कि बिल्कुल नहीं. उनका मानना था कि नीतीश कुमार ने लोकसभा चुनाव में पार्टी की हार की ज़िम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दिया और जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन मांझी मुख्यमंत्री के तौर पर विफल रहे. मांझी सरकार के दौरान बिहार में अपराधियों और भ्रष्टाचारियों का बोलबाला था. मांझी केवल बेतुके बयान देते फिर रहे थे. नीतीश कुमार द्वारा किए गए कार्यों पर भी उन्होंने पानी फेर दिया. मांझी से लोग पहले से ही नाराज हैं. वह नीतीश कुमार को चुनाव में कोई नुक़सान नहीं पहुंचा सकते. 13 प्रतिशत लोगों का कहना था कि मांझी नीतीश को थोड़ा-बहुत ऩुकसान पहुंचा सकते हैं, क्योंकि दलित समुदाय के लोग नीतीश से नाराज हैं और उनके वोटों का बंटवारा हो सकता है. 07 प्रतिशत लोगों का कहना था कि मांझी नीतीश को बहुत ऩुकसान पहुंचा सकते हैं. ऐसे लोगों का मानना था कि नीतीश कुमार द्वारा मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देना केवल एक दिखावा था और दलित कार्ड खेलने के लिए ही उन्होंने मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था. मांझी को बेइज्जत करके मुख्यमंत्री पद से हटाने से लोगों में नाराजगी है कि नीतीश ने ऐसा जानबूझ कर किया. 07 प्रतिशत लोगों ने इस सवाल का जवाब नहीं दिया. कुल मिलाकर निष्कर्ष यह निकलता है कि बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार को जीतन राम मांझी से फिलहाल कोई ख़तरा नहीं है.


क्या नीतीश कुमार ने मांझी को हटाकर सही क़दम उठाया?
इस सवाल का जवाब देना लोगों के लिए शायद सबसे आसान था. तभी इसका नतीजा ऐसा रहा. 76 प्रतिशत लोगों, जिनमें तक़रीबन सभी तबके यानी शहर-गांव, शिक्षित-अशिक्षित, अमीर-ग़रीब शामिल थे, का मानना था कि नीतीश कुमार को जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाना ही नहीं चाहिए था. जिन 11 प्रतिशत लोगों ने नहीं में जवाब दिया, उनका मानना था कि भले ही मांझी सरकार का प्रदर्शन बेहतर नहीं था, लेकिन जिस तरीके से उन्हें हटा दिया गया, उससे मतदाताओं के एक खास वर्ग के बीच ग़लत संदेश गया और राजनीतिक रूप से यह नीतीश कुमार के लिए शायद ऩुकसानदायक साबित हो.


मांझी सरकार का कार्यकाल कैसा रहा?
बिहार में आठ सालों तक लगातार राज करने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पिछले लोकसभा चुनाव के बाद अपनी कुर्सी जीतन राम मांझी को सौंप दी थी. बीते फरवरी माह में नीतीश कुमार एक बार फिर से बिहार के मुख्यमंत्री बन गए. जीतन राम मांझी ने अपने आठ महीने के कार्यकाल के दौरान कैसा काम किया, यह सवाल हमारे जेहन में था. जब इसे लेकर हमने जनता से सवाल किया, तो 58 प्रतिशत लोगों का मानना था कि जीतन राम मांझी का कार्यकाल बुरा था. 24 प्रतिशत लोगों का मानना था कि उनका शासनकाल औसत था, 06 प्रतिशत लोगों ने उसे अच्छा बताया और 12 प्रतिशत लोग कुछ कह सकने की स्थिति में नहीं थे. ज़्यादातर लोगों का मानना था कि जीतन राम मांझी शासन को उस तरीके से नहीं चला सके, जैसे नीतीश कुमार चला रहे थे और जदयू का सुशासन का नारा मांझी सरकार के दौरान कमजोर हुआ.


क्या इस चुनाव में मांझी सरकार के क्रियाकलापों का असर नीतीश कुमार पर पड़ेगा?
पिछले सवाल से हमारे दिमाग में एक और सवाल उपजा कि अगर आधी से ज़्यादा जनता की राय में मांझी सरकार का कार्यकाल ठीक नहीं था, तो क्या इसका असर आगामी विधासभा चुनाव में महा-गठबंधन या नीतीश कुमार पर पड़ सकता है? इस सवाल के जवाब में 40 प्रतिशत लोगों ने नीतीश कुमार में अपना विश्‍वास जताते हुए कहा कि मांझी के कार्यकाल का कोई भी असर आगामी विधानसभा चुनाव में नहीं पड़ेगा. 34 प्रतिशत लोगों ने कहा कि असर स्पष्ट रूप से पड़ेगा, वहीं 26 प्रतिशत लोग अनिर्णय की स्थिति में दिखे. दरअसल, जनता में इस सवाल को लेकर स्पष्टता नहीं दिखाई दी, बावजूद इसके ज़्यादातर लोगों की नज़र में नीतीश कुमार भरोसेमंद पाए गए.


क्या भाजपा नीतीश कुमार से बेहतर सरकार दे सकती है?
जब हमने इस बारे में मतदाताओं की राय जाननी चाही, तो 29 प्रतिशत लोगों का कहना था कि नहीं. वे कहते हैं कि नीतीश राज्य में भाजपा के साथ अपना 17 साल पुराना गठबंधन टूटने और मोदी लहर से इतने डरे हुए हैं कि वह कभी मांझी जैसे अपरिपक्व नेता को बिहार का मुख्यमंत्री बना देते हैं, तो कभी लालू के साथ गठबंधन करके बिहार को फिर से जंगलराज की तरफ़ धकेलने की कोशिश करते हैं. यही कारण है कि उन पर अब विश्‍वास नहीं रहा और लोग भाजपा को नीतीश से अच्छा मानने लगे हैं. 49 प्रतिशत लोगों का कहना है कि केंद्र में मोदी सरकार तो ठीक है, लेकिन राज्य में भाजपा के बीच जबरदस्त कलह देखने को मिलेगी, जो बिहार के विकास में बाधक है. जबकि जनता ने नीतीश के कार्यकाल में विकास का स्वाद चखा है. लोगों का मानना है कि राजद से गठबंधन के बावजूद नीतीश बिहार के हितों से कोई समझौता नहीं करेंगे, जैसे कि उन्होंने मांझी को हटाकर साबित कर दिया. 22 प्रतिशत लोग इस सवाल पर कुछ न कह पाने की स्थिति में रहे.

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