पिछले कई दिनों से संसद का काम-काज ठप्प है। सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच ठनी हुई है। विपक्ष के दर्जन भर से भी ज्यादा दल मोदी सरकार के विरुद्ध एकजुट होने में लगे हुए हैं। लेकिन मोदी सरकार ने क्या दांव मारा है कि सारा विपक्ष खुशी-खुशी कतारबद्ध हो गया है। अब फर्क करना ही मुश्किल है कि भारत की संसद में कौन सत्तापक्ष है और कौन विपक्ष है ? कौनसा ऐसा मामला है, जिसने दोनों के बीच यह अपूर्व संगति बिठा दी है? वह मामला है— देश के सामाजिक और आर्थिक पिछड़े वर्ग की जनगणना का! पक्ष और विपक्ष दोनों उस 127 वें संविधान के समर्थन में हाथ खड़े कर रहे हैं, जो राज्यों को अधिकार देगा कि वे अपने-अपने पिछड़ों की जन-गणना करवाएं। यह संशोधन सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले को रद्द कर देगा, जिसमें उसने राज्यों को उक्त जन-गणना के अधिकार से वंचित कर दिया था।

अदालत का कहना था कि शिक्षण संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने का अधिकार सिर्फ केंद्र सरकार को ही है। केंद्र की मेादी सरकार ने सोनिया-मनमोहन सरकार के नक्शे-कदम पर चलते हुए जातीय जनगणना पर रोक लगा दी थी लेकिन अब वह क्या करेगी ? अब वह जातीय जनगणना करवाने के लिए भी तैयार हो जाएगी। जैसा कि मैं हमेशा कहता आया हूँ कि हमारे सभी नेता वोट और नोट के गुलाम हैं। यह प्रांतीय जन-गणना इसका साक्षात प्रमाण है। सभी दल चाहते हैं कि देश की पिछड़ी जातियों के वोट उन्हें थोक में मिल जाएं। इसीलिए वे संविधान का भी कचूमर निकालने पर उतारु हो गए हैं। संविधान कहता है कि ‘‘सामाजिक और आर्थिक पिछड़ा वर्ग’’ लेकिन हमारे नेता जातियों को ही वर्ग का जामा पहना देते हैं। क्या जाति और वर्ग में कोई फर्क नहीं है ?

यदि सरकारी रेवड़ियाँ आपको थोक में ही बांटनी है तो आप जन-गणना क्यों करवा रहे हैं ? जब आप गणना कर ही रहे हैं तो हर आदमी से आप उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति क्यों नहीं पूछते? आपको एकदम ठीक-ठीक आंकड़े मिलेंगे। उन आँकड़ों के आधार पर आप उन करोड़ों लोगों को शिक्षा और चिकित्सा मुफ्त उपलब्ध करवाइए लेकिन उन्हें आप कुछ सौ नौकरियों का लालच देकर उनकी जातियों के करोड़ों वोट पटाना चाहते हैं। इससे बड़ी राजनीतिक बेईमानी और क्या हो सकती है? देश के किसी भी नेता या पार्टी में इतना नैतिक साहस नहीं है कि वह इस सामूहिक बेइमानी के खिलाफ मुँह खोले। अब यह मांग भी उठेगी कि आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से कहीं ज्यादा हो।

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