मीडिया, राजनीति और कमोबेश पूरा समाज आजकल सांसद व कारोबारी विजय माल्या के 9 हजार करोड़ रुपये के कर्ज को लेकर चर्चा कर रहा है. चर्चा इस बात की भी है कि बैंकों का लाखों करोड़ रुपये का कर्ज डूब चुका है. लेकिन, इस सब के बीच यह जानकारी शायद ही बाहर आ पाती है कि आखिर कौन हैं ये लोग, जिन्होंने बैंकों के करीब 5 लाख करोड़ रुपये के ऋण को नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स (एनपीए) यानी डूबा हुआ धन बना दिया है. इससे भी बड़ी बात यह कि आखिर ये विलफुल डिफॉल्टर कौन हैंै? दरअसल, बैंकों की शब्दावली में विलफुल डिफॉल्टर उन्हें कहते हैं, जिनके पास पैसा तो होता है लेकिन वे जानबूझ कर बैंकों का कर्ज नहीं चुकाते. ऐसे कर्जदारों को बैंक विलफुल डिफॉल्टर मानती है. दरअसल, ये विलफुल डिफॉल्टर ही जनता के पैसों के असली लुटेरे हैं. नव उदारवादी आर्थिक व्यवस्था में विकास के नाम पर, विकास के कथित मॉडल के नाम पर जिस तरीके से बैंकों ने अनाप-शनाप लोन देने शुरू किए, उसी का नतीजा है कि पिछले 25 साल के दौरान बैंकों का करीब 5 लाख करोड़ रुपये का कर्ज एनपीए बन चुका है. जाहिर है, यह पैसा जनता का है.
जनता की गाढ़ी कमाई का है, जो बचत या कर के रूप में बैंकों के पास जमा होता है. लेकिन, सवाल यह है कि आखिर, सरकार, बैंक, आरबीआई या मीडिया की वह कौन सी मजबूरी है जिसकी वजह से ये लोग इन विलफुल डिफॉल्टर्स का नाम सार्वजनिक करने से हिचकते हैं. सवाल है कि क्या जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि किस राज्य के किस बैंक के किस ब्रांच से किसने कितना पैसा लूटा. चौथी दुनिया आपको इस बार कुछ ऐसे ही विलफुल डिफॉल्टर, बैंकों के नाम, राज्यों के नाम बता रहा है जहां से आम आदमी की जेब से लाखों करोड़ रुपये निकाले गए और जिनका अब वापस मिलना नामुमकिन लगता है.
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विजय माल्या और उनके 9,000 करोड़ रुपये के कर्ज की सुर्खियों के बीच आज हम आपको बताते हैं कि माल्या की कम्पनी के अलावा 5,954 अन्य ऐसी विलफुल डिफॉल्टर कम्पनियां हैं, जिनके पास बैंकों का 60 हजार करोड़ से अधिक का कर्ज बाकी है. करीब-करीब प्रत्येक राज्य में, प्रत्येक बैंक की प्रत्येक ब्रांच से इन कम्पनियों ने पैसे लिए हैं. यह जानकारी क्रेडिट इन्फॉर्मेशन ब्यूरो (इंडिया) लिमिटेड (सिबिल) द्वारा इकट्ठा की गई सूचना से निकल कर सामने आई है. हालांकि, यह लिस्ट भी अधूरी है. इसकी कई वजहें हैं. पहली तो यह कि सिबिल की इस लिस्ट में केवल उन्हीं विलफुल डिफॉल्टरों के नाम शामिल हैं जिनके ऊपर कम से कम 25 लाख रुपये का कर्ज है. इससे कम कर्ज वालों के नाम इसमें शामिल नहीं हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि विलफुल डिफॉल्टर्स की वास्तविक संख्या और रकम इससे भी ज्यादा हो सकती है.
लेकिन, सिबिल के इतने डाटा भर से भी एनपीए को लेकर एक दृष्टि तो मिल ही जाती है कि आखिर, इस देश में कर्ज के नाम पर जनता के पैसों की लूट का कैसा खेल चल रहा है. हम, इस स्टोरी में आपको सिर्फ विलफुल डिफॉल्टरों के बारे में बताएंगे. इसका मतलब यह है कि हम केवल उन्हीं कर्जों की चर्चा करेंगे जिन्हें कम्पनियां पैसा होने के बाद भी जानबूझ कर नहीं चुका रही हैं. ऐसी ही कम्पनियों के खिलाफ बैंकों ने सूट फाइल किया हुआ है. ऐसी 5,354 कम्पनियां हैं, जिनके ऊपर करीब 60 हजार करोड़ रुपये का कर्ज है. यह रकम कितनी बड़ी है, इसका अंदाज़ा आप केंद्रीय बजट में मनरेगा, स्वास्थ्य या शिक्षा के लिए आवंटित किए गए पैसे से तुलना कर लगा सकते हैं. इस बार के बजट में किसानों और कृषि क्षेत्र के लिए करीब 36 हज़ार करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं. इसका अर्थ है कि विलफुल डिफॉल्टरों के पास भारत की पूरी कृषि व्यवस्था के लिए एक बजट में आवंटित पैसे से भी अधिक पैसा बैंकों का कर्ज है.
हम आपको भारतीय बैंकों के कुछ सबसे बड़े विलफुल डिफॉल्टरों के बारे में बताते हैं. इनके नाम हैं, मुम्बई की विनसम डायमंड्स एंड ज्वेलरी लिमिटेड, जिसके ऊपर करीब 3 हज़ार करोड़ रुपये से भी अधिक का कर्ज़ है. इसके अलावा, मध्य प्रदेश के इंदौर स्थित ज़ूम डेवलपर्स के ऊपर भी डेढ़ हज़ार करोड़ रुपये से अधिक का लोन है, किंगफिशर एयरलाइंस का नाम तो है ही, बीटा नापथाल के ऊपर भी क़रीब 1 हजार करोड़ रुपये का लोन है और ये सब विलफुल डिफॉल्टर हैं. 2002 से लेकर 2016 के बीच भारतीय बैंकों का क़र्ज़ दस गुना से भी अधिक बढ़ गया है. ऐसे में एनपीए बन चुकी इस विशाल राशि के लिए किसी एक व्यक्ति, किसी एक संस्था, किसी एक राजनीतिक दल या किसी एक सरकार को दोष देना भी ठीक नहीं होगा. दरअसल, एनपीए के इस हम्माम में सब नंगे हैं. यह खेल ऐसा है जिसके खिलाड़ी बदलते रहे, लेकिन खेल बदस्तूर जारी रहा.
सबसे पहले हम आपको 25 लाख रुपये से ज्यादा के विलफुल डिफॉल्टरों के बारे में बताते हैं. अकेले स्टेट बैंक ऑफ इंडिया और उसके सहयोगी बैंकों के खाते में 1,546 विलफुल डिफॉल्टर शामिल हैं और जो रकम डूबी है, वह है 18,576 करोड़ रुपये. इसी तरह प्राइवेट सेक्टर बैंकों के खाते में 792 डिफॉल्टर हैं और इन्होंने प्राइवेट सेक्टर बैंकों का करीब 10,250 करोड़ रुपये जानबूझ कर नहीं चुकाए हैं. अगर बात राष्ट्रीयकृत बैंकों (एसबीआई को छोड़कर) की करें तो इनके खाते में 3,536 विलफुल डिफॉल्टर हैं और इन्होंने करीब 30 हजार करोड़ रुपये डूबोए हैं.
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इसके साथ ही वित्तीय संस्थानों के 42 और विदेशी बैंकों के 38 विलफुल डिफॉल्टरों ने करीब 1,200 करोड़ रुपये का क़र्ज़ लिया है और उसे अब तक नहीं चुकाया है. दिलचस्प रूप से विदेशी बैंकों और प्राइवेट बैंकों का एनपीए राष्ट्रीयकृत बैंकों के मुक़ाबले काफी कम है. कुल एनपीए में राष्ट्रीयकृत बैंकों की हिस्सेदारी 70 फीसदी से भी अधिक है. ज़ाहिर है, इसके पीछे कहीं न कहीं राजनीतिक दबाव भी एक वजह हो सकती है. ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि राष्ट्रीयकृत बैंकों को राजनीतिक दबाव के तहत लोन देना पड़ता है. ध्यान देने की बात है कि किंगफिशर जैसी कम्पनियों की खस्ता हालत को देखते हुए भी राष्ट्रीयकृत बैंकों ने उसे लगातार लोन देना जारी रखा. अब, ऐसा क्यों हुआ, इसकी कोई स्पष्ट जानकारी तो किसी के पास नहीं है, लेकिन यह अंदाजा लगाना भी मुश्किल नहीं है कि ऐसा क्यों हुआ होगा.
अगर हम राज्यवार इन डिफॉल्टररों की बात करें तो इसमें महाराष्ट्र का नंबर सबसे ऊपर आता है. जाहिर है, देश की आर्थिक राजधानी होने के नाते यहां सबसे अधिक बिजनेसमैन हैं. इसलिए यहां क़र्ज़ भी अधिक लिया जाता है. महाराष्ट्र में विलफुल डिफॉल्टररों की संख्या 1,200 है, जिन्होंने विभिन्न बैंकों से करीब 21,788 करोड़ रुपये कर्ज के रूप में लिए हैं और अब तक जानबूझ कर उसे नहीं चुकाया है. आमतौर पर पश्चिम बंगाल को औद्योगिक दृष्टि से रुग्ण राज्य माना जाता है, फिर भी विलफुल डिफॉल्टरों की संख्या के मामले में यह राज्य दूसरे नंबर पर आता है. पश्चिम बंगाल में विलफुल डिफॉल्टरों की संख्या 888 है, जिनके पास विभिन्न बैंकों के करीब 5340 करोड़ रुपये कर्ज के रूप में हैं.
दिलचस्प यह है कि दिल्ली में विलफुल डिफॉल्टरों की संख्या पश्चिम बंगाल से कम है लेकिन कर्ज की रकम ज्यादा है. दिल्ली में विलफुल डिफॉल्टररों की संख्या सिर्फ 426 है, वहीं क़र्ज़ की रकम 7,435 करोड़ रुपये है. इसी तरह, अगर दक्षिण भारत की बात करें तो तमिलनाडु में विलफुल डिफॉल्टरों की संख्या आंध्र प्रदेश के 569 के मुकाबले सिर्फ 357 है, वहीं क़र्ज़ की रकम आंध्र प्रदेश के 3,162 करोड़ रुपये के मुक़ाबले 4,324 करोड़ रुपये है.
इसके अलावा, हम आपको ऐसे खातों की संख्या भी बता रहे हैं (देखें बाक्स) जो विलफुल डिफॉल्टर तो नहीं हैं लेकिन जिनके ऊपर कम से कम एक करोड़ रुपये का क़र्ज़ है और जिनके ख़िलाफ बैंकों ने सूट फाइल किया है. यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि जब हम कम से कम एक करोड़ रुपये की बात करते हैं तो यह एक हजार करोड़ या 5 हजार करोड़ रुपये का भी कर्ज़ हो सकता है. ऐसे में, सवाल सिर्फ अकेले विजय माल्या का नहीं है. सवाल सिर्फ 9 हजार करोड़ रुपये का भी नहीं है. सवाल है उन 5 लाख करोड़ रुपये का जो आज एनपीए यानी डूबा हुआ क़र्ज़ बन गया है. सवाल है उन सैकड़ों विजय माल्याओं का, जिनके नाम अब तक सरकार, मीडिया और बैंक सामने नहीं लाना चाहते हैं.
आखिर कौन हैं ये लोग? इनकी पहचान जब दस्तावेजों पर है तो उनसे क़र्ज़ वसूलने में समस्या क्या है? दूसरी तरफ इस देश के किसान हैं, बेरोज़गार हैं, आम आदमी हैं, जो खेती के लिए, छोटे-मोटे व्यापार के लिए बैंक से क़र्ज़ लेना चाहते हैं. लेकिन उन्हें बैंक क़र्ज़ नहीं देते. किसान खेती बर्बाद होने की वजह से क़र्ज़ नहीं लौटा पाता तो उस पर इतना दबाव पड़ता है कि वह आत्महत्या तक कर लेता है. आम आदमी कार लोन या होम लोन की तीन किस्तें लगातार नहीं दे पाता तो बैंक कार या घर पर क़ब्ज़ा करने पर उतारू हो जाते हैं. उनके घर बाउंसर भेज दिए जाते हैं. सवाल है कि क्या सरकार और बैंक ऐसे विलफुल डिफाल्टरों के साथ भी ऐसा ही सलूक कर पाने की हिम्मत दिखा सकते हैं? क्या जितने विलफुल डिफॉल्टर हैं उनसे सरकार अपना क़र्ज़ वापस ले सकती है?
कृषि बनाम कॉरपोरेट एनपीए की बात करें तो कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए हमेशा से कॉरपोरेट सेक्टर के मुक़ाबले बहुत ही कम रहा है. कृषि क्षेत्र में एक किसान ट्रैक्टर, खाद, बीज आदि खरीदने के लिए चंद हज़ार या एक-दो लाख रुपये का लोन लेता है, जबकि कॉरपोरेट क्षेत्र में एक कम्पनी पर ही सैकड़ों-हजारों करोड़ का लोन बकाया है. लेकिन, किसान क़र्ज़ पर जहां हर ओर चर्चा होती है, वहीं इस बात पर चर्चा नहीं होती कि किस कम्पनी ने कितने करोड़ का लोन लेकर नहीं चुकाया? क्या इस देश की जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि किस राज्य के किस बैंक की किस ब्रांच से किस कम्पनी ने कितने करोड़ का लोन लिया और फिर उस लोन को नहीं चुकाया? चौथी दुनिया ने अपने पाठकों को ऐसे ही विलफुल डिफॉल्टरों की संख्या और क़र्ज़ की रक़म की जानकारी देने की कोशिश की है, ताकि आम आदमी यह जान सके कि उसकी जेब का पैसा कहां जा कर सूख गया है.
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क़र्ज़ लेने का यह तरीक़ा शातिराना है…
सिबिल वेबसाइट से हमने कुछ स्क्रीन शॉट्स लिए हैं. ये स्क्रीन शॉट्स बताते हैं कि कंपनियां कैसे अलग-अलग राज्यों के अलग-अलग बैंकों की अलग-अलग शाखाओं से सौ, दो सौ करोड़ का लोन लेती हैं और धीरे-धीरे यह लोन हज़ारों करोड़ का हो जाता है.
पथेजा ब्रदर्स नाम की एक कम्पनी है. सिबिल वेबसाइट पर इसके नाम से कर्ज़ की क़रीब 200 डिटेल हैं. हम आपको यहां सिर्फ एक ही स्क्रीन शॉट दिखा रहे हैं. इस एक स्क्रीन शॉट को देखने से पता चलता है कि इस एक कम्पनी ने अलग-अलग तारीख को मुम्बई और पुणे के दो बैंकों से सैकड़ों करोड़ रुपये का लोन लिया है. इसके अलावा, इस कम्पनी ने और भी कई बैंकों की ब्रांच (अधिकतर महाराष्ट्र) से कर्ज़ लिए हैं.
दोषी बैंकों पर क्यों नहीं होती कार्रवाई?
पूंजीपतियों को ऋण देकर पांच लाख करोड़ रुपये डुबो देने वाले बैंकों पर कोई क़ानूनी कार्रवाई क्यों नहीं होती? यह ऐसा सवाल है जिसका सामना न केंद्र सरकार करना चाहती है, न भारतीय रिजर्व बैंक करना चाहता है और न आर्थिक अपराध की छानबीन करने वाली केंद्रीय एजेंसियां करना चाहती हैं. सारी कार्रवाइयां बैंकों के छोटे अधिकारियों और मैनेजरों पर केंद्रित रहती हैं और बड़े-बड़े मामले इन्हीं छोटी-छोटी कार्रवाइयों के जाल-़फरेब में दफना दिए जाते हैं. पूंजीपतियों और औद्योगिक घरानों को ऋण देने की बैंकों की आपाधापी पर गौर करें तो बैंकों के शीर्ष प्रबंधन पर बैठे शीर्ष अधिकारियों की मिलीभगत आपको साफ-साफ दिखेगी. ऋण की राशि गायब करने वाले पूंजीपतियों के साथ बैंकों की आपराधिक साठगांठ है और उन पैसों में बैंकों का हिस्सा है. विजय माल्या को जिस तरह यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया ने सारी मर्यादाएं लांघकर ऋण दिए, उसमें झांकें तो कई दिलचस्प और आश्चर्यजनक तथ्य सामने आएंगे
. इनके बारे में चौथी दुनिया के पूर्व के अंकों में बताया जा चुका है और आगे भी इसके बारे में हम विस्तार से बताएंगे. भारतीय स्टेट बैंक ने करीब दर्जनभर बैंकों का कंसोर्टियम बनाकर विजय माल्या को ऋण दिए. यह गिरोहबंदी नहीं है तो क्या है? पूंजीपतियों को अनाप-शनाप ऋण देने वाले बैंकों के कई शीर्ष अधिकारी अपना काम अंजाम देकर स्वैच्छिक अवकाश लेकर बैंकों की नौकरी छोड़कर पहले ही भाग लिए ताकि उन पर छींटे न आने पाएं. सरकार या जांच एजेंसियां एनपीए घपले में बैंकों की भूमिका तलाशें तो डूबा हुआ धन वापस आ सकता है. लेकिन डूबा धन वापस लाने में दिलचस्पी ही किसकी है..!
क्या-क्या हो सकता है पांच लाख करोड़ के एनपीए से
क्या यह संभव है कि देश के सभी बच्चे विश्वस्तरीय स्कूलों में पढ़ाई कर सकें? क्या यह संभव है कि देश के हर नागरिक का इलाज अपोलो जैसे सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल में हो सके? क्या कृषि क्षेत्र में इतनी उन्नति हो सकती है कि किसान अपने क़र्जों के बोझ के कारण आत्महत्या करने को मजबूर न हों? पहली नज़र में ऐसा होना असंभव लगता है. लेकिन यह असंभव नहीं है. भारत के बैंकों का बड़े कॉरपोरेट हाउसेज पर पांच लाख करोड़ रुपये का ऐसा ऋण है जो कि यदि उपरोक्त क्षेत्रों में लगाया जाता है तो इन क्षेत्रों का कायाकल्प हो सकता है. सबसे पहले कृषि क्षेत्र पर एक नज़र डालते हैं. कृषि प्रधान देश का किसान बदहाल है. इस वर्ष आम बजट में कृषि क्षेत्र के लिए तक़रीबन 36 हज़ार करोड़ की राशि आवंटित की गई है. अब यदि बैंकों के एनपीए की तुलना कृषि के लिए आवंटित बजट से की जाए तो यह उससे 13 गुना अधिक है.
कहने की कोई आवश्यकता नहीं है कि यदि एनपीए की यह राशि कृषि क्षेत्र के लिए आवंटित कर दी जाए तो देश में कृषि की तस्वीर बदल जाएगी. उसी तरह शिक्षा क्षेत्र, खास तौर पर उच्च शिक्षा क्षेत्र की यह शिकायत रही है कि उसके लिए आवंटित बजट नाकाफी है. देश में सबके लिए शिक्षा का अधिकार क़ानून लागू होने के बाद प्राथमिक शिक्षा पर काफी ज़ोर दिया जा रहा है. लेकिन ज़मीनी स्तर पर प्राथमिक शिक्षा भी महज़ खानापूर्ति ही नज़र आती है. बहरहाल, इस साल आम बजट में शिक्षा के लिए 68,968 करोड़ रुपये का प्रावधान रखा गया है, जो बैंकों के एनपीए से सात गुना कम है. अगर एनपीए की राशि शिक्षा के लिए आवंटित कर दी जाए तो न सिर्फ अनुबंधित शिक्षकों की मांगों को पूरा किया जा सकता है, बल्कि शिक्षा की गुणवत्ता के स्तर को भी काफी ऊंचा उठाया जा सकता है.
इसी तरह स्वास्थ्य क्षेत्र उपेक्षित क्षेत्र है. गरीबों के इलाज के लिए उनके आस-पास बेहतर स्वाथ्य सेवाओं का अभाव है, जिसके कारण दिल्ली के एम्स जैसे अस्पतालों में मरीजों की लंबी कतारें लगी रहती हैं. देश में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तो हैं, लेकिन वहां डॉक्टर नहीं हैं, दवाएं नहीं हैं. देश में मेडिकल कॉलेजों का भी अभाव है. ऐसे में जबकि इस साल स्वास्थ्य के लिए 38,892 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं, यदि एनपीए की राशि स्वास्थ्य क्षेत्र को दे दी जाती तो अपोलो जैसे अस्पताल देश के हर नागरिक की पहुंच में आ जाते.