बजट एक जटिल विषय है. बजट कैसे बनता है, इसकी पूरी प्रक्रिया क्या है, इन सब चीजों से सामान्य लोगों का कोई रिश्ता नहीं है. शायद यही वजह भी है कि आम आदमी के लिए बजट एक नीरस एवं उबाऊ घटना बनकर रह जाता है. बजट बनाने की प्रक्रिया से जुड़ा एक और अहम तथ्य है, पारदर्शिता यानी बजट बनाने की प्रक्रिया में कितनी पारदर्शिता बरती जाती है और इसमें आम आदमी की क्या भूमिका होती है. एक अहम सवाल यह भी है कि जिस जनता के लिए बजट बनाया जाता है, उसकी राय कितनी शामिल होती है उसमें. कम से कम भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में तो यही देखने को मिलता है कि बजट निर्माण में आम आदमी का कोई योगदान नहीं होता. एक अंतरराष्ट्रीय संस्था इंटरनेशनल बजट पार्टनरशिप ने बजट बनाने की प्रक्रिया को लेकर पूरी दुनिया में एक सर्वे किया और यह पता लगाने की कोशिश की कि कौन सा देश कितने पारदर्शी तरीके से अपना बजट बनाता है. इसमें यह देखा गया कि क्या सरकार जनता के साथ बजट से जुड़ी सूचनाएं साझा करती है और क्या सरकार जनता को बजट निर्माण प्रक्रिया में हिस्सा लेने का अवसर देती है? यह संस्था प्रत्येक दो साल में यह सर्वे करती है और क़रीब सौ देशों की सिविल सोसायटी के साथ मिलकर इस सर्वे को अंजाम देती है.
2012 के इस सर्वे से यह पता चला कि दुनिया के सारे देशों में न्यूजीलैंड पहले स्थान पर है, जो सर्वाधिक पारदर्शी तरीके से बजट बनाता है. उसे 100 में से 90 अंक मिले. जबकि दक्षिणी अफ्रीका दूसरे स्थान पर है. दक्षिणी अफ्रीका अपना बजट बनाने से पहले सारी सूचनाएं जनता के बीच रखता है. चौक-चौराहों पर जाकर जनता की राय ली जाती है. लोगों से यह भी पूछा जाता है कि उन्हें इस बजट में क्या चाहिए. यहां तक कि बच्चों से भी राय ली जाती है. इसके बाद नंबर आता है ब्रिटेन, स्वीडन, नॉर्वे एवं फ्रांस का. इस सूची में भारत का स्थान 14वां है. हम आपको ब्राजील का एक उदाहरण बताते हैं, जहां न केवल बजट बनाने की एक शानदार परंपरा का विकास किया गया है, बल्कि वहां बजट बनाने में हर एक आदमी की भूमिका होती है. ब्राजील में आम आदमी द्वारा मिल-जुल कर बजट बनाने की प्रक्रिया काफी लोकप्रिय हो चुकी है. 1989 में वर्कर्स पार्टी ने पोर्ट अलेगे्र में इसकी शुरुआत की थी. शहर के लोगों का जीवन स्तर बढ़िया बनाने के लिए अपनाए गए सुधारों का एक हिस्सा बजट बनाने की यह प्रक्रिया भी थी. शहर की एक तिहाई जनसंख्या झुग्गियों में रहती थी और उसके पास सामान्य जन-सुविधाएं (पानी, बिजली, शौचालय, चिकित्सा, स्कूल इत्यादि) भी उपलब्ध नहीं थीं. बजट बनाने की यह प्रक्रिया हर साल संपन्न होती थी, जिसमें स्थानीय, क्षेत्रीय एवं शहर की आम सभाएं शामिल होती थीं. स्थानीय लोग अपनी प्राथमिकताओं के हिसाब से यह तय करते थे कि पैसा कहां खर्च करना है.
ग़ौरतलब है कि पोर्ट अलेगे्र में प्रत्येक साल 200 मिलियन डॉलर स़िर्फ निर्माण और सेवा क्षेत्र पर खर्च किए जाते हैं. इस शहर के 50 हज़ार लोग बजट बनाने की प्रक्रिया में हिस्सा लेते हैं, जो विभिन्न आर्थिक एवं राजनीतिक पृष्ठभूमि से आते हैं. इसका नतीजा यह रहा कि 1989 से पोर्ट अलेगे्र के नगर निगम चुनावों में वर्कर्स पार्टी ने लगातार 4 बार जीत दर्ज की. यह पूरे लैटिन अमेरिका में नगर निगम स्तर पर वामपंथी प्रशासकों की असफलता के ख़िलाफ़ आम लोगों की प्रतिक्रिया थी. सच तो यह है कि एक मशहूर बिज़नेस पत्रिका पोर्ट अलेगे्र को जीवन के उच्च गुणवत्ता मानकों के आधार पर लगातार 4 बार ब्राजील के सबसे अच्छे शहर के रूप में नामित कर चुकी है. 1989 से पहले इस शहर की वित्तीय स्थिति काफी कमजोर थी. इसकी वजह थी खराब राजस्व प्रणाली, उद्योगों का न होना, कर्ज, पलायन इत्यादि, लेकिन 1991 तक वित्तीय सुधारों का प्रभाव साफ़-साफ़ दिखने लगा था और इस सबमें आम लोगों की भागीदारी से बजट बनाने की प्रक्रिया अहम थी. 1989 से 1996 के बीच वैसे परिवारों की संख्या 80 प्रतिशत से बढ़कर 98 प्रतिशत हो गई, जिनके घरों में पानी उपलब्ध था. उसी तरह सीवेज सुविधा के मामले में यह आंकड़ा 46 से बढ़कर 85 प्रतिशत हो गया. स्कूल में दाखिला पाने वाले बच्चों की संख्या दोगुनी हो गई. ग़रीब इलाकों में हर साल 30 किलोमीटर सड़कें बनाई गईं. प्रशासन में पारदर्शिता के कारण अब लोग करों का भुगतान भी कर रहे थे, जिससे राजस्व में 50 प्रतिशत की वृद्धि हो गई.
आज ब्राजील के लगभग 80 शहर पोर्ट अलेगे्र मॉडल को अपना चुके हैं. इस सबका एक बड़ा ही सुखद नतीजा यह रहा कि तकनीकी कर्मचारी, जिनमें बजट बनाने वाले से लेकर इंजीनियर तक शामिल थे, अब आम आदमी से जुड़ने लगे थे. सहभागिता से बजट बनाने की प्रक्रिया ब्राजील में शुरू हुई, लेकिन धीरे-धीरे यह लैटिन अमेरिका के सैकड़ों शहरों में फैल गई. आज यही प्रक्रिया यूरोप, एशिया, अफ्रीका और उत्तरी अमेरिका के कई शहरों में भी अपनाई जाने लगी है. जहां तक भारत में बजट निर्माण प्रक्रिया में जनता की भागीदारी का सवाल है, तो वह लगभग न के बराबर है. हां, उद्योग जगत या अन्य क्षेत्रों के विशेषज्ञों से फीडबैक ज़रूर लिए जाते हैं, लेकिन इस सबमें सामान्य जनता की कोई भूमिका नहीं होती. वैसे कई राज्यों में कुछ ग़ैर सरकारी संगठन ज़रूर इस काम में हिस्सा लेते हैं, लेकिन उनकी भूमिका भी संबंधित क्षेत्र से जुड़े आंकड़े मुहैय्या कराने तक सीमित है. कुछ राज्य सरकारें, मसलन गुजरात सरकार बजट से जुड़ी सूचना अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर भी देती है, ताकि जनता को अपने बजट के बारे में पहले से जानकारी मिल सके. फिर भी यह जन-सहभागिता वाली बजट निर्माण प्रक्रिया की श्रेणी में नहीं आता. राजस्थान में कुछ संगठन बजट निर्माण प्रक्रिया को लेकर काम कर रहे हैं.
हालांकि, उनकी भी भागीदारी सीधे-सीधे न होकर स़िर्फ क्षेत्रीय समस्याओं से जुड़े मुद्दे उठाना और फीडबैक देना भर है. अब राज्य सरकार या केंद्र सरकार उस पर कितना अमल करती है, यह उसका विशेषाधिकार है. बहरहाल, बजट की जटिलता को जन-सहभागिता के सहारे सुलझाने की ज़रूरत है. जनता के लिए नीतियां बनाने के काम में अगर जनता की भी भागीदारी हो, तो लोकतंत्र के लिए इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है. उम्मीद करते हैं, नई सरकार इस दिशा में भी ज़रूर सोचेगी.
बजट निर्माण में जन-सहभागिता ज़रूरी
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