NDAराजनीति का उसूल है कि जनता-जनार्दन को ऐसा आभास दीजिए, जैसे मेरे अंगने में सब कुछ ठीक-ठाक है और मौका मिला तो देश और राज्य का कायाकल्प करने के लिए मेरी पार्टी या गठबंधन चौबीसों घंटे तैयार है. चूंकि राजनीति में परसेप्शन का बहुत महत्व होता है, इसलिए बहुत कुछ छिपा कर भी यह दिखाने की कोशिश की जाती है कि देखिए हमारी कमीज सबसे ज्यादा सफेद है. हकीकत में ऐसा होता नहीं है और छिपाते-छिपाते भी बहुत कुछ सामने आ ही जाता है. पिछले दिनों ऐसा ही एक वाकया मुंगेर में देखने को मिला. मौका था मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की विकास समीक्षा यात्रा का. मुंगेर की माननीया सांसद वीणा देवी ने मंत्री ललन सिंह को देखा और उनका गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया. मैडम का मूड इतना खराब हो गया कि उन्होंने मीटिंग में भाग लेना ही मुनासिब नहीं समझा और बैठक का बहिष्कार कर दिया. वीणा देवी ने आरोप लगाया कि मेरे बैठने के लिए अलग से एक कुर्सी की भी व्यवस्था नहीं की गई थी.

ऐसे में बैठक में भाग लेने का कोई मतलब नहीं था. दरअसल इस घटना को समझने के लिए हमलोगों को थोड़ा पीछे जाना होगा. 2014 के चुनाव में वीणा देवी लोजपा की उम्मीदवार थीं और जदयू से मैदान में उतरे ललन सिंह को उन्होंने पराजित कर दिल्ली का सफर तय किया था. अब सूबे के राजनीतिक समीकरण बदल गए हैं. जदयू एनडीए में शामिल है और ललन सिंह नीतीश कुमार के खासमखाम हैं. अगर कोई अप्रत्याशित घटना नहीं हुई, तो एनडीए से ललन सिंह मुंगेर से लोकसभा चुनाव में उतरेंगे. ऐसे में अब सवाल उठता है कि अगर ललन सिंह को मुंगेर से टिकट देना है तो फिर वीणा देवी का क्या होगा?

लोजपा बार-बार कह रही है कि कहीं कोई दिक्कत नहीं है और टिकटों का  बंटवारा मिल-जुलकर कर लिया जाएगा. लोजपा का लक्ष्य बिहार की सभी चालीसों सीटों पर एनडीए का कब्जा है, लेकिन जानकार मानते हैं कि ये बातें बस कहने की हैं. वास्तव में ऐसा कुछ है नहीं, जब टिकट बंटवारे का समय आएगा, तब सच्चाई से पर्दा उठ जाएगा. वीणा देवी के साथ मुंगेर में हुई घटना एक बानगी भर है. ऐसा नहीं है कि यह समस्या बस लोजपा के साथ है. इस संकट से तो कमोबेश बिहार में हर एक दल को गुजरना है.

लोजपा को दिक्कत ज्यादा है क्योंकि इसकी तीन सीट फंस रही है. पहला बवाल तो मुंगेर सीट को लेकर छिड़ ही चुका है. ललन सिंह को यहां से बेदखल करना किसी के लिए भी आसान नहीं है और इस मामले में लोजपा और जदयू के बीच भाजपा भी नही पड़ेगी, चूंकि मामला सीधे नीतीश कुमार से जुड़ा है. खगड़िया से लोजपा के मौजूदा सांसद कहां रहते हैं, इसे पार्टी भी नहीं जानती है. पार्टी के एकाध कार्यक्रम में ही वे नजर आते हैं. बताया जा रहा है कि उन्हें आभास हो चुका है कि इस बार लोजपा से टिकट की राह इतनी आसान नहीं है.

इसकी वजह यह है कि भाजपा ने इस सीट के लिए पूर्व मंत्री सम्राट चौधरी को निमंत्रण दे रखा है. बताया जा रहा है कि सम्राट चौधरी पार्टी में शामिल ही  इसी शर्त पर हुए कि भाजपा खगड़िया से उन्हें लोकसभा का चुनाव लड़वाएगी. सम्राट इसके लिए लगातार तैयारी में भी जुटे हैं और क्षेत्र की जनता से मिल रहे हैं. इसलिए मंंुंंगेर की तरह खगड़िया में भी लोजपा का पेंच फंस सकता है. वैशाली से मौजूदा लोजपा सांसद रामा सिंह फिलहाल नाराज बताए जाते हैं. लोजपा के किसी भी आयोजन में उनकी हिस्सेदारी नहीं हो रही है.

इस सीट पर भी भाजपा की नजर है. यहां से वीणा शाही भाजपा या फिर जदयू की प्रत्याशी हो सकती हैं. कहा जाए तो भाजपा लोजपा को तीन सीटों पर संतोष करने को कह सकती है. रामविलास पासवान बार-बार कह रहे हैं कि एनडीए को सभी चालीस सीटों पर जीत दिलवानी है और इसमें लोजपा की तरफ से कोई दिक्कत नहीं आएगी. इशारा साफ है कि वह अपने परिवार की तीन सीटों के अलावा और किसी सीट के लिए अड़ने वाले नहीं हैं. जहानाबाद सीट के लिए रालोसपा, हम और भाजपा के बीच घमासान होना तय है. यह सीट पिछले चुनाव में रालोसपा को मिली थी. अरुण सिंह के रालोसपा से हट जाने के बाद उपेंद्र कुशवाहा इस सीट पर अपना प्रत्याशी उतारने का दावा करेंगे.

अरुण सिंह के समर्थकों का कहना है कि चूंकि यहां से अरुण सिंह सांसद हैं, इसलिए टिकट पर पहला हक उनका ही है. जानकार बताते हैं कि अरुण सिंह यहां से भाजपा या फिर जदयू के उम्मीदवार हो सकते हैं. उपेंद्र कुशवाहा के विरोध को यहां तवज्जो मिलने की उम्मीद कम है. जीतन राम मांझी को खुश करने के लिए भाजपा उनके पुत्र संंतोष मांंझी को गया से लोकसभा का टिकट दे सकती है. जदयू और भाजपा में भले ही अभी मेल लग रहा हो पर अंदरखाने आग सुलगनी शुरू हो गई है. पहला बवाल तो पूर्णिया सीट को लेकर ही छिड़ा हुआ है. जदयू यहां से संतोष कुशवाहा को दोबारा उतारना चाहती है, लेकिन भाजपा के उदय सिंह की चाहत रास्ते को कठिन बना रही है. उदय सिंह का भाजपा में काफी प्रभाव है और पूर्णिया से टिकट पाने के लिए वे कोई कोर कसर नहीं छोड़ने वाले हैं.

भाजपा बिहार में 22 से 25 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है और इसकी तैयारी भी जोर शोर से की जा रही है. अमित शाह जल्द बिहार आने वाले हैं और उनके सामने ही रणनीति को अंतिम रूप दिया जाएगा. यह सही है कि जदयू के साथ आ जाने के बाद एनडीए की ताकत बढ़ी है लेकिन टिकट के बंटवारे पर पूरा एनडीए एक साथ रह पाएगा यह देखना बड़ी बात है. भाजपा नीतीश को नाराज नहीं कर सकती है, ऐसे में नुकसान तो लोजपा, हम और रालोसपा को ही उठाना पड़ेगा. कांग्रेस और राजद में अभी इस तरह का घमासान शुरू नहीं हुआ है, लेकिन ऐसा नहीं होगा, यह नहीं कहा जा सकता है. अररिया सीट पर होेने वाले उपचुनाव को लेकर ही बयानबाजी शुरू है.

कांग्रेस का एक तबका चाहता है कि यहां से पार्टी अपना प्रत्याशी मैदान में उतारे. अररिया से राजद के तस्लीमुद्दीन सांसद थे और उनके निधन से यह सीट खाली हुई है. ऐसे में इस सीट पर राजद का स्वाभाविक दावा बनता है, लेकिन इस पर भी राजनीति होनी तय है. कहा जाए तो सभी दलों के भीतर अभी से टिकटों को लेकर बवाल जारी है. बाहर से शांत दिखने वाली बिहार की सियासत हकीकत में उतनी शांति से नहीं गुजर रही है. अंदरखाने हिसाब लगाया जा रहा है कि कौन सी सीट पर कौन सा प्रत्याशी अखाड़े में उतरेगा. सूबे में विधानसभा की दो और लोकसभा की एक सीट पर उपचुनाव होने हैं. लगता है इसी समय दलों के अंदर हो रही राजनीति की एक पूरी झलक जनता के सामने आ जाएगी. कम से कम इतना तो आभास हो ही जाएगा कि लोकसभा चुनाव के समय टिकट देने के लिए नेताओं को कितना पसीना बहाना पड़ेगा.

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