ट्रेड यूनियनों की दो दिवसीय हड़ताल के पीछे मक़सद क्या था और श्रमिक संगठनों ने बजट सत्र से ठीक पहले सड़कों पर उतरने का फ़ैसला क्यों किया, इसी मुद्दे पर चौथी दुनिया संवाददाता अभिषेक रंजन सिंह ने ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) के राष्ट्रीय महासचिव और सीपीआई सांसद गुरुदास दासगुप्ता से विस्तृत बातचीत की, प्रस्तुत हैं उसके मुख्य अंश… 

ट्रेड यूनियनों ने हड़ताल करने का फैसला बजट सत्र से ठीक पहले ही क्यों लिया?
ऐसा इसलिए, क्योंकि मज़दूरों की पूरी मांगें आर्थिक और सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण हैं. संसद में पूरे देश के जनप्रतिनिधि होते हैं और मज़दूरों की यह समस्या भी देशव्यापी है. सरकार पर इसका दबाव पड़े, इसलिए हमने यह समय तय किया.
प्रधानमंत्री ने ख़ुद ट्रेड यूनियनों से हड़ताल वापस लेने की मांग की, आप लोगों ने इसे गंभीरता से क्यों नहीं लिया?
यह सवाल आप प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री से करें कि उन्होंने ट्रेड यूनियनों की मांगों को संजीदगी से क्यों नहीं लिया. दूसरी बात, प्रधानमंत्री ने हड़ताल वापस लेने की अपील अख़बारों के ज़रिए की. क्या इस बारे में प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री को स्वयं ट्रेड यूनियनों से बात नहीं करनी चाहिए थी. यूपीए सरकार का रवैया पूरी तरह जनविरोधी और मज़दूर विरोधी है, इसलिए हमें विवश होकर हड़ताल करनी ही पड़ी.
आर्थिक मामलों के जानकारों का कहना है कि हड़ताल से देश को 20 हज़ार करोड़ रुपये से भी ज़्यादा का नुक़सान हुआ. क्या कहना चाहेंगे आप इस मुद्दे पर?
प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री को हड़ताल की वजह से हुए आर्थिक नुक़सान की चिंता तो है, लेकिन देश के करोड़ों आम लोगों की चिंता नहीं है. प्रधानमंत्री को 2-जी घोटाला, कॉमनवेल्थ घोटाला, आदर्श घोटाला, कोयला घोटाला, हेलिकॉप्टर घोटाला और बढ़ती महंगाई नज़र नहीं आ रहा. अगर इन रुपयों का इस्तेमाल जनहित में किया जाता, तो आज जनता की मुश्किलें कम हो सकती थीं.
एसोचैम, फिक्की और सीआईआई ने इस हड़ताल को देश की अर्थव्यवस्था के लिए सही नहीं कहा है. एसोचैम ने तो बंद के दौरान हुए उपद्रव में शामिल लोगों पर कठोर कार्रवाई की मांग भी की है.
कॉरपोरेट घरानों द्वारा पोषित इन संगठनों से श्रमिक हितों की बात करना ही बेकार है. उनका एक ही मक़सद है कि किस तरह औद्योगिक घरानों को अधिक से अधिक मुनाफ़ा हो. आज मज़दूरों को खलनायक के रूप में पेश किया जा रहा है, जो सरासर ग़लत है. जिन मज़दूरों को कारखानों में काम करने से रोटी मिलती है, उनके परिवार का भरण-पोषण होता है, वे मज़दूर यह कभी नहीं चाहेंगे कि उद्योग-धंधे बंद हो जाएं. इसलिए कॉरपोरेट घरानों को यह समझना चाहिए कि मज़दूरों की जो ज़ायज़ मांगें हैं, उनकी अनदेखी न करें.
क्या हिंसक घटनाओं के लिए ट्रेड यूनियनों के नेता और कार्यकर्ता ज़िम्मेदार हैं?
नोएडा में हुई हिंसा को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि हिंसा में शामिल लोग कौन थे. पिछले साल गुड़गांव के मानेसर स्थित मारुति-सुजुकी की फैक्ट्री में मज़दूरों ने आंदोलन किया था. मानेसर में भी आंदोलन ने उग्र रूप ले लिया, मज़दूरों पर झूठे मुक़दमे चलाए गए, जबकि मीडिया ख़ुद इस बात को कहता रहा है कि मारुति के मज़दूरों की मांग काफी पुरानी थी, जिसकी लगातार अनदेखी हरियाणा सरकार और मारुति प्रबंधन करती रही.
देश की सभी ट्रेड यूनियनों ने अपनी-अपनी विचारधाराओं से ऊपर उठकर एकजुटता दिखाई, उसके क्या निहितार्थ हो सकते हैं?
भारतीय ट्रेड यूनियनों के इतिहास में ऐसा पहली मर्तबा हुआ है, जबकि सभी संगठनों ने एक साथ मिलकर दो दिनों तक तालाबंदी की है. इससे ट्रेड यूनियनों की ताक़त बढ़ेगी. हमारी एकजुटता मौजूदा यूपीए सरकार के लिए एक चेतावनी है. अगर सरकार ने अपना तानाशाही रवैया बंद नहीं किया, तो ट्रेड यूनियनें इससे भी बड़ा आंदोलन खड़ा करेंगी.
अब संसद में आपकी रणनीति क्या होगी?
संसद में भी हम लोग, ख़ासकर कम्युनिस्ट पार्टियां भ्रष्टाचार, महंगाई, किसानों और मज़दूरों की समस्याओं को लेकर आंदोलन करेंगे. आपने देखा होगा कि बजट सत्र की शुरुआत से पहले राष्ट्रपति के अभिभाषण के समय वामपंथी सदस्य सदन में मौजूद नहीं थे. हम लोग जनता के अधिकारों की लड़ाई सड़क और संसद दोनों जगहों पर लड़ेंगे. अगर सरकार हमारी मांगें नहीं मानती, तो आने वाले दिनों में इससे भी बड़ी हड़ताल की जाएगी.

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