समाज जब दृष्टि बाधित होने लगता है तो सबसे पहले चिंतन के स्तर पर उसका मापक यंत्र लड़खड़ाता है। ‘परफेक्शन’ तक पहुंचते पहुंचते दृष्टि बाधित समाज हर दिशा में बौना और सिर्फ बौना नजर आता है। जब अंग्रेज यहां से हमें हमारे भरोसे छोड़ कर गये थे तब जाते जाते उन्होंने आशंका व्यक्त की थी कि हमारे कर्णधार इस लड़खड़ाते देश को सम्भाल नहीं पाएंगे। शायद अंग्रेजों की इस आशंका को सबसे पहले सुभाष चन्द्र बोस ने समझा था और कहा था कि भारत को अगले बीस साल इमरजेंसी में रहना चाहिए। उनका क्या आशय था यह स्पष्ट नहीं हो पाया था । लेकिन हम यही अंदाज लगा सकते हैं कि वे समाज को प्रौढ़ होता देखना चाहते थे पहले। बौद्धिक स्तर पर जब समाज प्रौढ़ बनेगा तभी इतने बड़े देश में लोकतंत्र स्थायी रह पायेगा। सुभाष बोस का सोचा हो नहीं पाया और आनन फानन में आजाद होकर हम लोकतंत्र को दौड़ाने लगे । भौतिक तरक्की में हम लगातार खोते गये । जाहिर है इतने बड़े और व्यापक समाज को स्थायित्व देना आसान काम नहीं था। जवाहर लाल नेहरू जो और जितना कर सकते थे उन्होंने किया। ‘भारत एक खोज’ ग्रंथ कहिए। उसमें उन्होंने भारतीय समाज और सभ्यता का वस्तुनिष्ठ आकलन के साथ प्रस्तुतिकरण किया है। तो चूक कहां हो गयी। चूक गांधी की दृष्टि से अलग जाकर भारतीय ग्रामीण समाज की अनदेखी कर पश्चिम की होड़ में भारत को लाने की व्यग्रता में दिखी । शिक्षा के बड़े बड़े संस्थान तो खुले लेकिन अंधविश्वासी ग्रामीण समाज अपने हाल पर ही छूट गया। नतीजा हम आज देख रहे हैं। आज की सत्ता भारतीय समाज का दिमागी शोषण करने पर उतारू है। आज हमारे देश में साम्प्रदायिक सोच के लोग सत्ता पर काबिज हैं। इन्हें सत्ता तक लाने में या सत्ता सौंपने में पिछली सरकारों का भी कम हाथ नहीं जो हमेशा अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए गरीब जनता का उपभोग करते रहे। आज की सत्ता पूरी तरह से देश को साम्प्रदायिक आंधी में झोंक देना चाहती है। एक तरफ विकास विकास का ढोल है और दूसरी तरफ अंधविश्वासों को और गहरा करने का षड़यंत्र है। ताकि येन केन प्रकारेण से ‘मूढ़’ समाज मौजूदा सत्ताधारियों को स्वीकृति प्रदान कर राजशाही का मार्ग प्रशस्त करे। बौना समाज तब होता है जब समाज का हर व्यक्ति प्रजा की इकाई बन कर सत्ताधीशों के सामने नतमस्तक होकर स्वयं को संतुष्ट होने का स्वांग रचता है और सत्ता भी उसमें उसी प्रकार के विश्वास का रंग भरती दिखती है।
चारों तरफ भ्रम, धुंध या धुएं का गुब्बार है। बौद्धिक समाज सिकुड़ सा गया लगता है। कौन क्या बोल रहा है, कौन क्या सुन और सुना रहा है, किसी को कुछ नहीं पता। मीडिया विभिन्न खानों में बंट कर दिग्भ्रमित सा हो गया दिखता है। कुछ भी दिखाइए, कुछ भी चर्चा कीजिए। कोई पूछने वाला नहीं। हमेशा मीडिया एक रहा है। हां, कांग्रेस ने रेडियो और दूरदर्शन को सरकारी नियंत्रण में लेकर जरूर पाप किया। ब्रिटेन से सबक नहीं सीखा जहां बीबीसी बरसों तक सरकारी नियंत्रण से मुक्त रहा। आज हमारे देश में आलम यह है कि रेडियो, दूरदर्शन और देश का मुख्य मीडिया सब सरकार के भौंपू हैं और उनके बरक्स सोशल मीडिया है जो किसी के नियंत्रण में नहीं। उसे सिर्फ और सिर्फ सरकार का विरोध करना है। आज की हुकूमत का विरोध करना बेशक बहुत जरूरी है लेकिन साथ ही यह भी जरूरी है कि समाज का बौद्धिक स्तर कैसे ऊपर उठे, दृष्टि कैसे व्यापक बने , तार्किकता कैसे बढ़े । सोशल मीडिया के वैकल्पिक चैनल घिसे पिटे लोगों को रोज रोज लाकर अपनी जगहंसाई कर रहे हैं। मैंने ‘सत्य हिंदी’ के कई लोगों का ध्यान जब इस ओर खींचा तो मुझसे ही से कहा गया कि आप नये लोगों के नाम सुझाइए। हैरानी है सिविल सोसायटी के तमाम लोगों की भीड़ है। कोई उन्हें अपने कार्यक्रमों में लाने की नहीं सोचता। चार छः पत्रकारों को सैट कर रखा है। घूम फिर कर उन्हीं लोगों को बुला कर घंटे भर की चर्चा करके इतिश्री समझ लेते हैं और बड़े बड़े मगों में चाय सुढ़कना नहीं भूलते । इन लोगों को देश और समाज की चिंता है, हमें तो नहीं लगता। एक मुकेश कुमार में गम्भीरता नजर आती है पर उनके भी पैनलिस्ट फिक्स हैं। आज ये कल वो । जनता को बेवकूफ समझ रखा है। एक विजय विद्रोही हैं वे तो श्रोताओं की क्लास ही लेने लगते हैं। सुबह अखबारों के कार्यक्रम में अखबारों में क्या छपा यह बताने की बजाय श्रोताओं को अपने तरीके से समझाने लगते हैं। दरअसल हर व्यक्ति को अपनी प्रसिद्धि की भूख है इसीलिए आशुतोष तमाम गोदी चैनलों पर जाते और उनकी तू-तू मैं-मैं में शामिल होते हैं और दलील यह देते हैं कि हमें जरूर अपनी बात कहनी चाहिए। यह नहीं कहते कि पहचान और प्रसिद्धि चाहिए। अडानी स्पेशलिस्ट एक पैनलिस्ट राजीव रंजन सिंह ने तो यह कह कर कि ‘सत्य हिंदी’ का एक बड़ा पत्रकार अडानी के चैनल के लिए भी काम कर रहा है, विस्फोट ही कर दिया। सबको पता चल गया कौन है वह। सच में सबको अपनी चमड़ी दमड़ी की पड़ी है।
इंडिया गठबंधन मोदी सत्ता से दो दो हाथ करने को तैयार दिखने लगा है। लेकिन इन बिखरे दलों में कोई व्यक्तिगत अनुशासन नहीं है। वे एक दूसरे पर भौंक भी रहे हैं और साथ भी आने को दिखते हैं। वजह है डर । हर किसी को डर है कि मोदी के तीसरी बार लौटने पर वे कहीं के नहीं रहेंगे। उधर मोदी पूरे देश को हिंदू देश में तब्दील कर देना चाहते हैं। वे और उनका मीडिया कहीं से कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता। नेहरू को गाली , कांग्रेस की आबरू को हर तरह से तार तार करके उसके उभरते नेताओं को गरियाने में कोई कसर बाकी नहीं रखता। राहुल गांधी मोदी और भाजपाई नेताओं के साथ साथ मीडिया के टारगेट पर हमेशा बने रहते हैं। वे जानते हैं कि कांग्रेस का कल्चर अपने नेताओं और गांधी परिवार की स्तुति करने का रहा है इसलिए राहुल गांधी के अस्तित्व को पूरी तरह से समाप्त कर देने में यह सत्ता लगी हुई है। देश के लोगों को इस कदर भ्रमित कर दिया गया है कि वे वास्तविक मुद्दे भूल कर मोदी के गुणगान में लग गये हैं यही निशानी है बौने समाज की । यह समाज दिमागी तौर पर बौना हुआ है। लेकिन फिलहाल जो भी है लक्ष्य यह होना चाहिए कि जैसे भी हो मोदी सरकार तीसरी बार न आने पाये। इंडिया गठबंधन में आपसी स्तर पर सीटों के बंटवारे की बात चल रही है।
बौद्धिक बौनेपन का नतीजा यह है कि बीजेपी ने देश को समझा दिया है कि अयोध्या में भव्य राममंदिर बन जाने से देश में त्रेता युग आ जाएगा। वरिष्ठ पत्रकार अभय दुबे ने इसका अच्छा मजाक बनाया। उन्होंने ‘लाउड इंडिया टीवी’ पर अपने शो में कहा कि देश में अब दो युग चलेंगे कलियुग और त्रेतायुग। जब चाहें आप कलियुग से त्रेतायुग में चले जाएं और जब चाहे त्रेतायुग से कलियुग में चले आयें। अयोध्या में त्रेतायुग होगा और शेष भारत में कलियुग। राम मंदिर प्रसंग में ही कल संतोष भारतीय ने अर्थशास्त्री अरुण कुमार का एक जरूरी और दिलचस्प पत्र पढ़ कर सुनाया कि तुलसीदास के समय में राम के कितने और किस किस प्रकार के मंदिर थे। तुलसीदास का समय मुगल काल का था। आशय यह कि मुगलों ने राम के इतने मंदिर बन जाने दिये ? उन्हें नष्ट करने की बजाय उनके निर्माण तक में मदद की ? कल का कार्यक्रम अच्छा और दिलचस्प था। अभय दुबे ने यह भी बताया कि इंडिया गठबंधन किस किस राज्य में मोदी को कैसे कैसे टक्कर दे सकता है। उन्होंने ‘कैचमेंट’ एरिया की बात की । अच्छा कार्यक्रम लगा। उसे देखा जाना चाहिए। धीरे धीरे मोदी में डर दिखाई देने लगा है। यह भी समझ आ रहा है कि अकेले राम मंदिर से पुनः सत्ता हासिल नहीं हो सकती। तो क्या होगा कुछ और नया विस्फोटक ? इंतजार कीजिए।
‘सिनेमा संवाद’ में इस बार का विषय था, ‘क्या सिनेमा का सामाजिक सरोकार होना चाहिए’ । मैं ठीक से पूरा नहीं देख सुन पाया। फिर भी क्या यह विषय खुद में दुविधा पैदा नहीं करता ? सामाजिक सरोकार के बिना सिनेमा का वजूद ही क्या है। तब जबकि आप अपनी भूमिका में हर बार सिनेमा और समाज के रिश्ते की बात करते हैं। दरअसल कुछ ऐसी फिल्में ‘एनीमल’ जैसी पिछले दिनों आयीं जो सुपर हिट होकर रिकॉर्ड बना रही हैं और ‘डंकी’ जैसी फिल्में पिट रही हैं जो सामाजिक समस्या पर आधारित हैं। शायद विषय का चयन इसी आधार पर रखा गया। लेकिन समस्या वही है कि आप एक ही पैनल के साथ लोगों को हांकना चाहते हैं। आप भूल जाते हैं कि लोग हर बार एक से चेहरे देख कर सुनना पसंद नहीं करते। वैसे ही इस कार्यक्रम के श्रोताओं की संख्या बहुत कम है। कल के कार्यक्रम में हितेंद्र पटेल को सुना। अच्छा लगा। अजय ब्रह्मात्मज को सुनना भी अच्छा लगता है। पर अमिताभ श्रीवास्तव की भी वही समस्या है कि आप ही नये लोगों के नाम सुझाइए। यही बात हमें नीलू व्यास ने कही । यही मुकेश कुमार ने भी। यह तो बड़ी समस्या है। नये लोग नहीं मिलते तो बंद कर दीजिए। ‘सत्य हिंदी’ के कार्यक्रमों से कौन सी क्रांति आ रही है। हमेशा वही वही देखने वाले हैं। और ये सब कितने घटिया मानसिकता के लोग हैं उनके कमेंट से जाहिर हो जाता है।
बहरहाल ,इंतजार कीजिए अगले चार छः महीनों का । भारत की दशा दिशा तय हो ही जाएगी।
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