हाउस ऑफ कॉमन्स में नेता प्रतिपक्ष के लिए सबसे कठिन समय वह होता है, जब उसे चांसलर द्वारा दिए गए बजट भाषण पर अपनी प्रतिक्रिया देनी होती है. यही नहीं, अर्थशास्त्र की पूरी जानकारी के साथ-साथ उसमें ज़बरदस्त राजनीतिक सूझबूझ भी होनी चाहिए. अरुण जेटली द्वारा पेश किए गए आम बजट में कोई खामी निकालना किसी भी विपक्षी नेता के लिए आसान नहीं था. ज़्यादातर प्रतिक्रियाएं राजनीति से प्रेरित थीं. तमाम बहसें शहरी क्षेत्र की मांगों, औद्योगिक क्षेत्र की ज़रूरतों और बैंकों के एनपीए (नॉन परफार्मिंग एसेट्स) पर केंद्रित थीं. जेएनयू मुद्दे पर सरकार घिरी हुई दिख रही है, इसलिए उसे इस बजट में आर्थिक मसलों का उचित हल देना था. दरअसल, राजनीतिक तौर पर जहां यह बजट चतुराई भरा था, वहीं आर्थिक रूप से भी स्वस्थ था.
कश्मीर की आज़ादी के नारे और अफज़ल गुरु पर केंद्रित हंगामे के बीच बहस का रुख दो वर्षों से सूखे का सामना कर रहे ग्रामीण क्षेत्र की तरफ़ मोड़ दिया गया. विरले ही कोई बजट भाषण ग्रामीण भारत से शुरू हुआ और मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्र पर केंद्रित रहा हो. भारतीय जनता पार्टी के बारे में आम धारणा यह है कि वह शहरी क्षेत्रों के व्यापारियों की पार्टी है. वित्त मंत्री के बजट भाषण ने यह धारणा बदल दी.
अर्थव्यवस्था की दशा-दिशा का अंदाज़ा लगाना वित्त मंत्री के लिए एक पेचीदा मसला था. सेंट्रल स्टैटिस्टिकल ऑफिस द्वारा आर्थिक आंकड़ों के संशोधन ने भी भ्रम पैदा किया. उनसे जो इशारे मिल रहे थे, वे विरोधाभासी थे. सवाल यह है कि क्या भारत जी-20 देशों में सबसे तेजी से तरक्की करने वाली अर्थव्यवस्था है? अगर ऐसा है, तो निर्यात और औद्योगिक उत्पादन के आंकड़ों का रुख नीचे की तरफ़ क्यों है? क्या अर्थव्यवस्था को गति देने की ज़रूरत है या उसकी चाल ठीक है? ये फैसले जितने राजनीतिक हैं, उतने ही आर्थिक भी.
दरअसल, इन सवालों का जवाब हां में भी है और न में भी. कुल मिलाकर स्थिति ठीक है, लेकिन फिलहाल शहरी क्षेत्रों या औद्योगिक मंदी से बड़ा संकट गांव का संकट है. ऐसे में अधिक ज़ोर गांव की ज़रूरतों, कल्याण और उत्पाद पर होना चाहिए था. एक लंबे समय से यहां संरचनागत सुधार की ज़रूरत थी. जल संसाधनों में लंबे समय से महसूस की जा रही गिरावट (जिसे लगातार नज़रअंदाज़ किया जा रहा था) पर ध्यान देना था. ग्रामीण सड़क निर्माण की ज़रूरत थी. यह ज़िम्मेदारी पंचायतों को देने से इसकी मांग बढ़ गई थी. वर्षों की बहस के बाद फसल बीमा योजना लागू करनी थी.
बजट की नौ सूत्री वरीयता सूची में महिला स्वास्थ्य को भी स्थान दिया गया है. उन्हें धुआंयुक्त चूल्हों से मुक्ति दिलाने के लिए एलपीजी कनेक्शन देने की बात कही गई है. पूर्ववर्ती बजटों में आम तौर पर महिलाओं की समस्याओं को लेकर चिंता नहीं होती थी. मानव संसाधन विकास सूचकांक पर भारत का रिकॉर्ड निराशाजनक इसलिए है, क्योंकि 1991 के बाद भी महिला कल्याण कभी अग्रणीय मुद्दा नहीं रहा.
महत्वपूर्ण सवाल यह था कि क्या बजट घाटे का लक्ष्य शहरी औद्योगिक अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए तोड़ा जाना चाहिए. इसका जवाब यह है कि अगर अर्थव्यवस्था जी-20 में उच्चतम दर से बढ़ रही है, तो उसमें और अधिक ज़ोर लगाने की कोई ज़रूरत नहीं थी. बैंकों के बैड लोन्स का मामला बुनियादी ढांचे का निवेश बढ़ाकर सुलझाया जा सकता है. इसके लिए वित्त व्यवस्था में छेड़छाड़ की ज़रूरत नहीं थी. तथाकथित नव मध्य वर्ग को यह अवगत कराना था कि देश में कुछ और लोग भी हैं, जिनकी हालत ठीक नहीं है.
वर्ष 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने का वादा जोखिम भरा है. ङ्गूड प्रोसेसिंग सेक्टर में विदेशी निवेश से खाद्यान की बर्बादी में कमी आएगी. यह बर्बादी ङ्गिलहाल दो प्रतिशत है. सिंचाई की उपलब्धता से छोटे और बड़े काश्तकारों के खेतों की पैदावार में इजाफ़ा होगा. इससे उपभोक्ता खाद्यान की जो क़ीमत देता है और किसान को जो पैसा मिलता है, उसके बीच का फासला कम होगा. इन सब बातों के बावजूद कृषि एक ऐसा जुआ है, जो बेहतर मानसून और सूखे से बचाव पर निर्भर है. भाजपा का पुनर्निर्वाचन भी इसी पर निर्भर करेगा.