यदि भाजपा की अप्रत्याशित पराजय के कारणों का आकलन किया जाए, तो उसमें दो मुख्य पहलू उभर कर सामने आते हैं. पहला यह कि आम आदमी पार्टी की रणनीति अधिक कारगर और असरदार थी. आम आदमी पार्टी ने सबसे पहले चुनाव की तैयारी शुरू कर दी थी और चुनाव की घोषणा होने से पहले ही भाजपा एवं कांग्रेस से बढ़त बना ली थी. पार्टी ने सबसे पहले अपने खिसके हुए जनाधार को सुरक्षित किया और भाजपा विरोधी मतदाताओं को यह यकीन दिलाया कि इस चुनाव में कांग्रेस कोई चुनौती नहीं पेश कर रही है.
लिहाज़ा आम आदमी पार्टी ही एक ऐसी पार्टी है, जो भाजपा को हराने की स्थिति में है. नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी के जनाधार का एक बड़ा हिस्सा भी आम आदमी पार्टी को हस्तांतरित हो गया. और, आम आदमी पार्टी को एक ऐसी जीत मिली, जिसकी उम्मीद उसके नेताओं को भी नहीं थी. दूसरा पहलू यह है कि भाजपा ने चुनाव प्रक्रिया शुरू होते ही कई ऐसी ग़लतियां कीं, जो उसके लिए न केवल घातक साबित हुईं, बल्कि एक ऐतिहासिक हार का कारण बनीं.
हालांकि, भाजपा यह कहकर खुद को सांत्वना दे रही है कि उसका मत प्रतिशत 2013 के विधानसभा चुनाव से बहुत अधिक कम नहीं हुआ है, इसलिए मतों की संख्या और जनाधार की बुनियाद पर पार्टी को अधिक नुक़सान नहीं हुआ है. लेकिन, सिक्के का एक और पहलू भी है. यदि 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को मिले मतों से इस चुनाव की तुलना की जाए, तो भाजपा के मत प्रतिशत में ज़बरदस्त गिरावट दर्ज की गई है. बहरहाल, भाजपा ने दिल्ली जैसे छोटे राज्य (जिसे पूर्ण राज्य का दर्जा भी नहीं है) के चुनाव को अत्यधिक महत्व देते हुए अपने चुनाव अभियान की शुरुआत रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली के साथ की, लेकिन उस रैली में पार्टी की अपेक्षा के अनुरूप भीड़ इकट्ठा नहीं हो पाई. इसी घबराहट में पार्टी ने आनन-फानन में अपनी रणनीति में बदलाव करना शुरू किया. और, फिर वह एक बाद एक ग़लतियां करती चली गई, जो अंत में उसकी इतनी बड़ी हार का कारण बनीं.
भाजपा ने सबसे पहली ग़लती किरण बेदी को अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर की. चूंकि किरण बेदी इससे पहले भाजपा की आलोचना करती रही थीं और हाल में पार्टी में शामिल हुई थीं. उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाते ही पार्टी में विद्रोह के सुर सुनाई देने लगे. विपक्ष को भी यह कहने का मौक़ा मिल गया कि भाजपा के पास अपना कोई उम्मीदवार नहीं है, इसलिए वह पैराशूट उम्मीदवार उतार रही है. रही-सही कसर खुद किरण बेदी ने पूरी कर दी. मीडिया के सवालों के कुछ ऐसे जवाब उन्होंने दिए, जो चुनाव में पार्टी का नुक़सान करने वाले थे. जब तक भाजपा नेतृत्व को अपनी ग़लतियों का एहसास होता, तब तक काफी देर हो चुकी थी. डैमेज कंट्रोल के लिए समय नहीं था, इसलिए किरण बेदी के मीडिया से बात करने पर ही पाबंदी लगा दी गई. दरअसल, यह जोखिम पार्टी के जान-बूझकर उठाया था. भाजपा समझ गई थी कि इस बार उसका मुकबला सीधे तौर पर आम आदमी पार्टी से होने वाला है और कांग्रेस पार्टी यहां हाशिये पर चली गई है. चूंकि अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी अन्ना आंदोलन की उपज हैं और किरण बेदी भी उस आंदोलन का एक चेहरा थीं और एक पुलिस अधिकारी के तौर पर भी उनकी पहचान है, लिहाज़ा भाजपा को लगा कि बेदी आम आदमी पार्टी को हरा सकती हैं. लेकिन, भाजपा कार्यकर्ताओं और दिल्ली के वरिष्ठ नेताओं को यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगा. इसी वजह से भाजपा की सबसे सुरक्षित समझी जाने वाली सीट से भी वह चुनाव हार गईं.
लोकसभा चुनाव की कामयाबी के बाद भाजपा ने किसी भी प्रदेश के चुनाव में अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा नहीं की थी. उक्त सभी प्रदेशों में पार्टी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ी और हर जगह कामयाब हुई थी. आम आदमी पार्टी यह समझ रही थी कि अगर यह चुनाव अरविंद केजरीवाल बनाम नरेंद्र मोदी हुआ, तो उसे परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है. इसलिए चुनाव प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही अपने प्रचार में आम आदमी पार्टी ने अपनी तरफ़ से भाजपा के मुख्यमंत्री उम्मीदवार से अपने मुख्यमंत्री उम्मीदवार की तुलना शुरू कर दी. ज़ाहिर है, आम आदमी पार्टी ने यह एक पासा फेंका था, जिसमें भाजपा फंस गई.
आम आदमी पार्टी ने मुफ्त पानी, बिजली के बिल में कटौती और मुफ्त वाईफाई जैसे लोक-लुभावन वादे किए. जनता को भी लगा कि आप इन वादों को पूरा कर सकती है. चुनाव प्रचार के अंतिम चरण में भाजपा की तरफ़ से दिल्ली के विभिन्न अख़बारों में आम आदमी पार्टी के ख़िलाफ़ कुछ कार्टून प्रकाशित हुए, जिनमें निजी तौर पर हमले किए गए, जिसका भाजपा के ऊपर प्रतिकूल असर पड़ा. भाजपा की हार का एक महत्वपूर्ण कारण पार्टी नेतृत्व का अति आत्मविश्वास था. वे यह समझ रहे थे कि अपने स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीन-चार रैलियों से दिल्ली का चुनाव जीत लेंगे, लेकिन उनका यही अति आत्मविश्वास पार्टी पर भारी पड़ गया.