महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और झारखंड में अभूतपूर्व सफलता हासिल करने वाली भाजपा का विजय रथ दिल्ली आकर ठिठक-सा गया है. ऐसा नहीं है कि नरेंद्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व की चमक धुंधली पड़ने लगी, बल्कि वजह यह है कि दिल्ली की आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी अरविंद केजरीवाल का मुरीद है. इसलिए दिल्ली का चुनाव भाजपा के लिए अग्नि परीक्षा से कम नहीं है. वहीं 49 दिनों में अपनी सरकार छोड़कर लोकसभा चुनाव लड़ने और उसमें जबरदस्त पराजय का मुंह देखने वाले केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी के लिए भी यह चुनाव जीवन-मरण का सवाल बनकर सामने खड़ा है. कैसे? यही बता रही है, इस बार की कवर स्टोरी…
दिल्ली विधानसभा चुनाव का हाई वोल्टेज ड्रामा जारी है. यह चुनाव एक सस्पेंस थ्रिलर सिनेमा की तरह बन गया है. चुनाव कौन जीतेगा, सरकार कौन बनाएगा, इस बारे में वोटों की गिनती के बाद ही कुछ कहा जा सकता है. वजह यह कि इस चुनाव में हर पार्टी, चाहे वह भारतीय जनता पार्टी हो, आम आदमी पार्टी हो, कांग्रेस हो, बहुजन समाज पार्टी हो और यहां तक कि निर्दलीय
उम्मीदवारों का अहम रोल है, सभी का महत्व है. इन सभी का चुनाव नतीजों पर दखल रहेगा, क्योंकि इनमें से कोई जीतेगा, कोई जिताएगा, तो कोई किसी की लुटिया डुबोएगा. मतलब यह कि हर सीट पर कांटे की टक्कर होने वाली है.
मजेदार बात यह है कि दिल्ली पूरी तरह से एक राज्य भी नहीं है. यहां के मुख्यमंत्री के पास किसी बड़े शहर के मेयर जैसी शक्ति है. दिल्ली सरकार की इतनी भी हैसियत नहीं है कि वह किसी बड़े अधिकारी का तबादला कर सके. एक पुलिस इंस्पेक्टर को हटाने के लिए मुख्यमंत्री को अनशन करना पड़ता है. लेकिन चुनाव का माहौल ऐसा बन चुका है, जैसे यह पूरे देश का चुनाव हो. टीवी पर न स़िर्फ प्रचार हो रहा है, बल्कि हर चैनल के प्राइम टाइम में इसे बढ़-चढ़ कर दिखाया जा रहा है. एफएम रेडियो पर हर पांच मिनट में प्रचार सुनाई देता है. अख़बारों और पत्रिकाओं में ख़बरों के साथ-साथ लेखों की भरमार है. इंटरनेट पर तो और भी बुरा हाल है. सोशल मीडिया में तो ऐसा लग रहा है, जैसे दिल्ली चुनाव के अलावा दुनिया में कुछ हो ही नहीं रहा है. कहने का मतलब यह कि दिल्ली चुनाव हर तरफ़ छाया हुआ है. इसकी दो मूल वजहें हैं. एक तो यह चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है और दूसरी तरफ़ यह चुनाव आम आदमी पार्टी के लिए अस्तित्व की लड़ाई बन चुका है.
दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने सबसे पहले प्रचार शुरू किया. जब दूसरी पार्टियों में चुनाव की सुगबुगाहट भी नहीं थी, तब आम आदमी पार्टी का प्रचार-प्रसार दिल्ली में शुरू हो चुका था. पार्टी ने दिल्ली डायलॉग और मुहल्ला सभा जैसे कार्यक्रम कर जनता से जुड़ने का काम भी जोर-शोर से किया. चुनाव की घोषणा से पहले ही पार्टी सभी 70 उम्मीदवारों के नाम घोषित कर चुकी थी. दिल्ली की सड़कों पर होर्डिंग्स की भरमार के साथ-साथ रेडियो पर लगातार केजरीवाल प्रचार कर रहे थे. कहने का मतलब यह कि आम आदमी पार्टी शुरुआती लीड ले चुकी थी. इस बार केजरीवाल जन-लोकपाल और स्वराज जैसे मुद्दे दरकिनार कर मुफ्त बिजली और मुफ्त पानी के मुद्दे पर चुनाव लड़ रहे हैं. भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भी पार्टी का जोर पिछले चुनाव से कम है. महिला सुरक्षा को लेकर पार्टी महिलाओं को लुभाने की कोशिश में लगी हुई है. पार्टी का प्रचार, केजरीवाल की भाषा और प्रवक्ताओं का अंदाज़ पिछले चुनाव से ज़्यादा परिपक्व नज़र आ रहा है. इसके अलावा पार्टी यह संदेश देना चाह रही है कि 49 दिनों की सरकार के दौरान केजरीवाल ने अपने वादे पूरे किए. अपनी सरकार की पीठ थपथपाते हुए केजरीवाल यह दावा कर रहे हैं कि उस दौरान दिल्ली में भ्रष्टाचार में कमी आई थी. साथ ही आरोप लगाकर विरोधियों को ललकारने की रणनीति आम आदमी पार्टी के लिए फ़ायदेमंद साबित हो रही है.
दिल्ली में केजरीवाल का जादू बरकरार है. झुग्गी-झोंपड़ी, निम्न आय वर्ग, खासकर ऑटो वालों, रेहड़ी-पटरी वालों और छोटे दुकानदारों का समर्थन केजरीवाल के प्रति बरकरार है, क्योंकि वे इस बात को मानते हैं कि केजरीवाल सरकार के दौरान पुलिस ने तंग करना बंद कर दिया था. केजरीवाल का यह दावा भी सही है कि उनकी 49 दिनों की सरकार के दौरान घूसखोरी में कमी आई थी.
पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान आम आदमी पार्टी ने बिजली के बिल को बड़ा मुद्दा बनाया था. पार्टी का मानना है कि दिल्ली में जो बिजली के मीटर हैं, वे तेज चलते हैं. इस मुद्दे पर पिछली बार आम आदमी पार्टी को बहुत समर्थन मिला था. इस बार केजरीवाल ने दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष सतीश उपाध्याय और महासचिव आशीष सूद पर दिल्ली में बिजली के मीटर सप्लाई करने और लगाने का आरोप लगाया. केजरीवाल दरअसल यह साबित करना चाहते हैं कि दिल्ली में तेज चलने वाले बिजली के खराब मीटर भाजपा ने लगवाए थे. यह मामला इतना गरमा गया कि सतीश उपाध्याय ने केजरीवाल के ख़िलाफ़ चुनाव आयोग में शिकायत की और अदालत में आपराधिक मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया. सच्चाई यह है कि केजरीवाल के आरोपों में आधा सच और आधा झूठ है. केजरीवाल ने जो छह कंपनियां सतीश उपाध्याय और आशीष सूद की बताईं, उनमें से दो कंपनियां मौजूद ही नहीं हैं. ये दोनों कंपनियां वे हैं, जिनके बारे में केजरीवाल ने कहा था कि इन दोनों कंपनियों में सबसे ज़्यादा कारोबार हुआ. चुनौती देने के बावजूद केजरीवाल कोई सुबूत नहीं पेश कर सके. सच्चाई यह भी है कि उक्त छह कंपनियों में से एक कंपनी दिल्ली में रिलायंस की बिजली कंपनी के साथ कारोबार करती थी. समझने वाली बात यह है कि केजरीवाल ने सतीश उपाध्याय और आशीष सूद की कंपनियों पर बिजली कंपनी के साथ काम करने की बात कही थी, किसी गड़बड़ी या घोटाले का आरोप नहीं लगाया था. उन्होंने बिजली के मीटर का मुद्दा उठाकर भाजपा को घेरने की कोशिश की और इसमें वह सफल भी हो गए.
दिल्ली में केजरीवाल का जादू बरकरार है. झुग्गी-झोंपड़ी, निम्न आय वर्ग, खासकर ऑटो वालों, रेहड़ी-पटरी वालों और छोटे दुकानदारों का समर्थन केजरीवाल के प्रति बरकरार है, क्योंकि वे इस बात को मानते हैं कि केजरीवाल सरकार के दौरान पुलिस ने तंग करना बंद कर दिया था. केजरीवाल का यह दावा भी सही है कि उनकी 49 दिनों की सरकार के दौरान घूसखोरी में कमी आई थी. इसका फ़ायदा केजरीवाल को ज़रूर मिलेगा. इसके अलावा, दिल्ली में मुसलमानों का झुकाव भी आम आदमी पार्टी की ओर बढ़ा है. इसकी वजह कांग्रेस का घटता वर्चस्व है. मुसलमानों को लगता है कि दिल्ली में कांग्रेस पार्टी भाजपा का विजय रथ रोकने में असमर्थ है. उन्हें विश्वास है कि केजरीवाल भाजपा को दिल्ली में चारों खाने चित कर सकते हैं, इसलिए टैक्टिकल वोटिंग के तहत मुसलमान बड़ी संख्या में केजरीवाल को वोट करेंगे. स्थिति इस कदर पक्ष में (फेवरेबल सिचुएशन) होने के बावजूद आम आदमी पार्टी की जीत सुनिश्चित नहीं है. इसके कई कारण हैं. 49 दिनों में दिल्ली छोड़कर वाराणसी जाने से लोग नाराज़ हैं. उन्हें लगता है कि केजरीवाल भी दूसरी पार्टियों के नेताओं की तरह महत्वाकांक्षी हैं. एक वर्ग को लगता है कि केजरीवाल झूठे हैं. उसका मानना है कि केजरीवाल को वादा करके मुकर जाने की आदत है. केजरीवाल को भी लोगों की इस नाराज़गी का साफ़-साफ़ अंदाज़ा है. उन्हें पता है कि उन पर भगोड़ा होने का आरोप है.
यही वजह है कि केजरीवाल ने जबसे चुनाव प्रचार शुरू किया है, वह हर जगह माफी मांग रहे हैं और लोगों से यह वादा कर रहे हैं कि अब किसी भी क़ीमत पर दिल्ली छोड़कर नहीं जाएंगे. केजरीवाल की दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि इस बार 35 ऐसे नेताओं को टिकट नहीं मिले, जो पिछली बार विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार थे. कार्यकर्ता आरोप लगा रहे हैं कि इस बार आम आदमी पार्टी ने बिना कार्यकर्ताओं और जनता की राय लिए उम्मीदवार चुने हैं. उन्हें लगता है कि इस बार केजरीवाल ने उन्हीं लोगों को टिकट देना ज़्यादा उचित समझा, जिनके पास पैसा है. केजरीवाल और कार्यकर्ताओं के लिए निराशा का विषय यह भी है कि आम आदमी पार्टी के पुराने नेता पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टियों में शामिल हो रहे हैं. अन्ना आंदोलन के समय से जुड़े कार्यकर्ता पार्टी में अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं. वे या तो घर में शांत बैठे हैं या फिर अपने-अपने क्षेत्रों में पार्टी के ख़िलाफ़ प्रचार कर रहे हैं. पिछले चुनाव में आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता पार्टी की सफेद टोपी लगाए दिल्ली की सड़कों में नज़र आते थे, लेकिन इस बार पार्टी कार्यकर्ता सड़कों पर नज़र नहीं आ रहे हैं. इसकी वजह पार्टी के अंदर का वातावरण है. दूसरे राज्यों के कार्यकर्ताओं का आना भी बिल्कुल बंद हो गया है, जबकि पार्टी लगातार उनसे अपील कर रही है कि वे दिल्ली आएं और चुनाव प्रचार में शामिल हों.
भारतीय जनता पार्टी और उसके रणनीतिकारों को यह बात भलीभांति समझ में आ गई कि दिल्ली का चुनाव दूसरे राज्यों से अलग है. उन्हें समझ में आ गया कि दिल्ली में केजरीवाल की चुनौती से निपटने के लिए उन्हें एक चेहरा पेश करना होगा. एक ऐसा चेहरा, जो केजरीवाल से हर लिहाज से मजबूत हो.
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सबसे बड़ी पूंजी अरविंद केजरीवाल का चेहरा है. पिछले विधानसभा चुनाव से पहले केजरीवाल की छवि एक आंदोलनकारी, ईमानदार और व्यवस्था परिवर्तन करने वाले नेता के रूप में थी. 49 दिनों के शासनकाल और लोकसभा में पार्टी की शर्मनाक हार के बाद केजरीवाल की लोकप्रियता में कमी आई है. पिछले विधानसभा चुनाव से पहले केजरीवाल मध्यम वर्ग की नज़रों में हीरो थे, आज वह लोकप्रियता नहीं है. इन सबके बावजूद पार्टी के समर्थकों एवं मतदाताओं के बीच वह एक ईमानदार और विश्वसनीय चेहरा हैं. आम आदमी पार्टी ने इस बार अपनी खूबियों और कमियों का सही अवलोकन करते हुए रणनीति तैयार की है. केजरीवाल लोकसभा चुनाव से सबक लेते हुए मोदी से सीधे मुकाबला करने के पक्ष में नहीं थे. यही वजह है कि पार्टी ने अपने कैंपेन की शुरुआत में ही यह दलील दी कि मोदी तो देश के प्रधानमंत्री बन गए हैं, इसलिए केजरीवाल का मुकाबला दिल्ली के किसी नेता से है. मोदी से सीधा मुकाबला न हो, इसके लिए आम आदमी पार्टी पूरी दिल्ली में भाजपा के जगदीश मुखी के पोस्टर लगाकर कैंपेन करती रही कि इस बार दिल्ली में केजरीवाल का मुकाबला जगदीश मुखी से है. आम आदमी पार्टी ने बड़ी सफलता के साथ यह संदेश दिया कि केजरीवाल के मुकाबले में भाजपा के पास कोई चेहरा नहीं है. भारतीय जनता पार्टी और उसके रणनीतिकारों को यह बात भलीभांति समझ में आ गई कि दिल्ली का चुनाव दूसरे राज्यों से अलग है. उन्हें समझ में आ गया कि दिल्ली में केजरीवाल की चुनौती से निपटने के लिए उन्हें एक चेहरा पेश करना होगा. एक ऐसा चेहरा, जो केजरीवाल से हर लिहाज से मजबूत हो. एक और वजह यह भी रही कि भारतीय जनता पार्टी दिल्ली के नतीजों को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं थी. इसलिए उसने मोदी को सीधे केजरीवाल के मुकाबले उतारने की रणनीति पर पुनर्विचार किया. इसमें एक ख़तरा था कि अगर भाजपा बहुमत नहीं ला पाती है, तो मोदी की साख पर विरोधियों को सवाल उठाने का मौक़ा मिल जाएगा. बिहार और उत्तर प्रदेश के चुनाव में मोदी बेअसर हो जाएंगे. इसीलिए भारतीय जनता पार्टी ने किरण बेदी को मैदान में उतार दिया. किरण बेदी विश्वसनीयता, लोकप्रियता, अनुभव और उपलब्धियों के मामले में केजरीवाल से बहुत आगे हैं. दोनों अन्ना हजारे के आंदोलन में भी शामिल थे. वह आंदोलन, जो आम आदमी पार्टी की आत्मा है. किरण बेदी देश की पहली महिला आईपीएस हैं, वहीं केजरीवाल एक आयकर अधिकारी. किरण बेदी ने नौकरी में रहते हुए जो उपलब्धियां हासिल कीं, उनके सामने केजरीवाल की उपलब्धि न के बराबर है. किरण बेदी के आने से भाजपा को सबसे बड़ा फ़ायदा यह होने वाला है कि महिला सुरक्षा के मुद्दे पर आम आदमी पार्टी का सारा कैंपेन बेअसर हो जाएगा. किरण बेदी के भाजपा में शामिल होने के बाद आम आदमी पार्टी के कई नाराज़ नेता और कार्यकर्ता भाजपा में शामिल हो गए.
किरण बेदी को चुनाव का चेहरा बनाना भारतीय जनता पार्टी का मास्टर स्ट्रोक है, क्योंकि किरण बेदी चुनाव प्रचार और लोकप्रियता में केजरीवाल पर भारी हैं. हालांकि, किरण बेदी को इतना महत्व देने की वजह से भाजपा का एक गुट नाराज़ हो गया है, लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद जिस तरह पार्टी संगठन पर मोदी और अमित शाह ने शिकंजा कसा है, उसकी वजह से कोई सामने आकर विरोध करने की स्थिति में नहीं है. भाजपा के पास दिल्ली में केजरीवाल से दो-दो हाथ करने वाला कोई नेता नहीं था, लेकिन पार्टी में मुख्यमंत्री पद के पांच से ज़्यादा दावेदार ज़रूर थे, इसलिए भितरघात की आशंका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. भारतीय जनता पार्टी का कैंपेन देर से शुरू हुआ. पार्टी के पास कोई चेहरा नहीं था, इसलिए नरेंद्र मोदी के नाम पर ही चुनाव प्रचार चल रहा था. केंद्र में अपनी सरकार होने की वजह से भाजपा को मदद भी मिली. केंद्र सरकार ने दिल्ली की कई अनाधिकृत कॉलोनियों को अधिकृत करने का ़फैसला कर दिल्लीवासियों को खुश करने की कोशिश की. केंद्र सरकार ने ई-रिक्शा को अनुमति देकर भी केजरीवाल के वोट बैंक में डाका डालने का काम किया. इसके अलावा रामलीला मैदान की रैली में मोदी ने दिल्ली के लोगों को कई सपने दिखाए. मोदी ने दिल्ली में 2022 तक झुग्गियां ख़त्म करने का आश्वासन दिया. साथ ही बिजली और पानी की सुविधाएं बेहतर करने का भरोसा दिलाया. इन सबके बावजूद भाजपा को लगा कि दूसरे राज्यों में जिस तरह वह अपने पक्ष में हवा बनाने में सफल रही, वैसा माहौल दिल्ली में नहीं दिख रहा है. यही वजह है कि भाजपा ने अपनी रणनीति में बदलाव किया.
इस बीच दिल्ली की राजनीति में हाशिये पर गई कांग्रेस ने कुछ अच्छे ़फैसले लिए. कांग्रेस की तरफ़ से अजय माकन को चुनाव प्रचार का चेहरा बनाया गया. साथ ही पार्टी ने दिल्ली के सभी बड़े नेताओं और दिग्गजों को मैदान में उतार दिया. इसी रणनीति के तहत राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा भी कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रही हैं. कांग्रेस की साख पिछले विधानसभा चुनाव से लगातार ख़त्म होती जा रही थी. पिछली बार पार्टी महज आठ सीटें जीत सकी थी. कांग्रेस को लोगों ने इनोवा पार्टी कहना शुरू कर दिया था. कांग्रेस के सामने साफ़-साफ़ लक्ष्य है. दिल्ली में अपना अस्तित्व बचाने के लिए कांग्रेस को अपने खोए हुए वोट बैंक का विश्वास जीतना होगा, झुग्गी-झोंपड़ी वालों और मुसलमानों का विश्वास जीतना होगा. 2013 के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के वोट बैंक में जबरदस्त सेंधमारी की थी. कहने का मतलब यह कि कांग्रेस जितना मजबूत होगी, केजरीवाल की परेशानी उतनी ही बढ़ती जाएगी. कांग्रेस इस बार भी अगर दस का आंकड़ा पार नहीं कर सकी, तो आने वाले कई चुनावों तक दिल्ली की राजनीति आम आदमी पार्टी बनाम भारतीय जनता पार्टी बन जाएगी. इसके अलावा बहुजन समाज पार्टी ने भी दिल्ली के सभी 70 विधानसभा क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार उतारने का फैसला किया है. 2008 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को 14 फ़ीसद वोट मिले थे, जबकि 2013 में यह आंकड़ा घटकर पांच फ़ीसद रह गया. बहुजन समाज पार्टी का सारा वोट केजरीवाल के खाते में जा पहुंचा था. इस बार अगर बहुजन समाज पार्टी की स्थिति 2008 वाली हो जाती है, तो केजरीवाल को भारी ऩुकसान हो जाएगा. इस सबके अलावा इस चुनाव में विभिन्न पार्टियों के बागी उम्मीदवारों का भी रोल काफी अहम है. चूंकि दिल्ली विधानसभा चुनाव में हर सीट पर कांटे की टक्कर है, इसलिए बागी उम्मीदवार किस सीट पर किस पार्टी को कितना ऩुकसान पहुंचाएंगे, इसका सीधा असर चुनाव नतीजे के फाइनल टैली पर अवश्य दिखाई देगा.
दिल्ली चुनाव केजरीवाल का भविष्य और आम आदमी पार्टी का अस्तित्व तय करेगा. पार्टी अगर हार जाती है, तो केजरीवाल के नेतृत्व पर सवाल उठेगा और पार्टी में विघटन की स्थिति पैदा हो सकती है. कई नेता जो अलग-अलग व्यवसाय छोड़कर राजनीति में कूदे, उनके पास वापस जाने के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा. साथ ही देश में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन पर कुठाराघात होगा. जिन लोगों ने अन्ना के आंदोलन में हिस्सा लिया, उनके सपने चकनाचूर हो जाएंगे. आम आदमी पार्टी के बारे में यही कहा जाएगा कि यह सामाजिक आंदोलन का एक ऐसा प्रयोग था, जो विफल हो गया. यह चुनाव नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के लिए भी प्रतिष्ठा का सवाल है. भाजपा अगर हार जाती है, तो उसका असर बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्यों के चुनाव पर पड़ेगा. दिल्ली चुनाव के नतीजे क्या होंगे, यह तो 10 फरवरी को पता चलेगा, लेकिन इस चुनाव में साम-दाम-दंड-भेद यानी राजनीति के सारे तिकड़म आजमाए जा रहे हैं. हर पार्टी लोक-लुभावन वादे करके, अगर साफ़-साफ़ कहा जाए, तो झूठे सपने दिखाकर वोट झटकने की फिराक में है.
दिल्ली चुनाव में यह होड़ लगी हुई है कि किसकी सरकार किन-किन चीजों को मुफ्त मुहैया कराएगी. किसी भी पार्टी के पास युवाओं के लिए रोज़गार को लेकर कोई योजना नहीं है. हैरानी की बात यह है कि रोज़गार की कोई बात ही नहीं कर रहा है. दिल्ली में असंगठित मज़दूरों की एक बड़ी संख्या है, लेकिन किसी भी पार्टी या नेता द्वारा इस वर्ग की समस्याएं दूर करने के झूठे वादे भी नहीं किए जा रहे. कभी-कभी लगता है कि नेताओं को इन ग़रीब मज़दूरों की समस्याओं का अंदाज़ा है भी या नहीं. भूमि अधिग्रहण के नए क़ानून से दिल्ली के गांवों की ज़मीनों का क्या होगा, यह बात चुनाव के मुद्दों में शामिल नहीं है. दिल्ली में बड़ी संख्या में दूसरे राज्यों के लोग रहते हैं. इन प्रवासियों में जो ग़रीब वर्ग है, उसका शोषण कई तरीकों से दिल्ली शहर में होता है. इसका रिश्ता अपराध से भी है, लेकिन भविष्य के सभी महान मुख्यमंत्रियों ने इन मुद्दों पर एक वाक्य तक नहीं कहा. बिजली-पानी की समस्या के बारे में हर पार्टी वादे कर रही है, लेकिन यह कोई नहीं कह रहा है कि दिल्ली के नीचे यानी भूगर्भ स्थित पानी ज़हरीला हो चुका है. दिल्ली दुनिया का बेहतरीन शहर बने, इसके लिए ज़रूरी है कि यहां रहने वाले लोग खुशहाल हों, युवाओं के पास रा़ेजगार हो, सबके लिए अच्छी शिक्षा का प्रबंध हो, सबके पास घर हो, इलाज के लिए सस्ते अस्पताल हों. अफ़सोस इस बात का है कि दिल्ली चुनाव में स़िर्फ तू-तू, मैं-मैं हो रही है. जनता के सरोकारों और उससे जुड़ी समस्याओं को नज़रअंदाज़ करने के मामले में सारी पार्टियां एक जैसी हैं.