झारखंड की रघुवर सरकार के 1000 दिन पूरे होने पर खूब जलसे हुए. लेकिन इनका आम लोगों से कोई लेना-देना नहीं था. अधिकारियों की भारी भीड़ विकास के बीजगणित समझा रही थी और नेता बयानबाजी के जरिए सरकार को सफल सिद्ध कर रहे थे. लेकिन राजनीति का अंकगणित बयानबहादुरों के इस उत्सव को मुंह चिढा रहा था. इस कार्यक्रम में सरकार की सहयोगी आजसू के अध्यक्ष सुदेश महतो कहीं नहीं दिखे. शायद राज्य सरकार समन्वय और सियासत की सामान्य परम्परा भी भूल चुकी थी, तभी तो उन्हें आमंत्रित नहीं किया गया था.
सूबे की राजनीति में आज यह सवाल चर्चा का विषय बना हुआ है कि जिस आजसू के समर्थन से रघुवर दास की सरकार चल रही है, उसे ही इतना उपेक्षित क्यों किया जा रहा है? उन्हें हर फैसले से दूर रखकर रघुवर दास क्या बताने की कोशिश कर रहे हैं. आनन-फानन में सरकार कोई घोषणा कर देती है और उसपर कभी भी आजसू से उनकी राय नहीं ली जाती. ऐसे में क्या अब आजसू के संयम का बांध टूटने वाला है, क्योंकि इसे लेकर अब बयान भी आने लगे हैं. आजसू के एक विधायक का कहना है कि हम एकतरफा गठबंधन धर्म निभा रहे हैं. इतनी उपेक्षा के बाद भी हम कोई सियासी कलंक अपने सर पर नहीं लगाना चाहते. लेकिन लगता है कि भाजपा के रणनीतिकार अपनी सियासी कब्र खुद ही खोदने पर उतारू हैं. ऐसे में हम कर भी क्या सकते हैं. आखिर एकतरफा प्यार कब तक चल सकता है.
इस बात में दम भी है. सीएनटी या एसपीटी में संशोधन के जल्दीबाज़ी भरे फैसले से पहले भी सुदेश महतो को विश्वास में नहीं लिया गया. नतीजतन सुदेश महतो ने पूरे राज्य में घूम-घूमकर इसका विरोध किया. सरकार को जन दवाब का कोई अहसास नहीं था और यू टर्न लेने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा. ऐसे कई मामले आए, जहां सुदेश महतो को कॉन्फिडेंस में रखकर सही और दूरगामी राजनीतिक फैसले लिए जा सकते थे, लेकिन भाजपा ने मौका गवां दिया. इन सब के मद्देनजर, सहयोगी आजसू भी लगातार एनडीए सरकार की नीतियों का सरेआम विरोध कर रही है. चाहे सीएनटी-एसपीटी विवाद हो, स्थानीयता को परिभाषित करने का मसला, बड़े कॉर्पोरेट घरानों को जमीन देने का मामला या मोमेंटम झारखंड में उद्योग घरानों के लिए रेड कारपेट बिछाने की बात हो, सरकार के हर फैसले का आजसू ने सड़क पर उतरकर विरोध किया. कई बार तो ऐसा लगा जैसे ये मित्र दल नहीं शत्रु दल हैं. ऐसा क्यों, इस सम्बन्ध में झारखंड के राजनीतिक जानकार मनोज सिंह कहते हैं कि भाजपा और उसके सहयोगी दल खासकर आजसू का समन्वय कहीं नहीं दिख रहा है.
भाजपा के पास इस बार बड़ा मौका था, आजसू के सहारे कुर्मी-कोइरी वोटों को एकजुट करने का. ऐसा करके ये लोग आसानी से 50 का आंकड़ा पार कर जाते, लेकिन भाजपा के रणनीतिकारों ने ये मौका गंवाकर झामुमो को बैठे बिठाए वाक ओवर दे दिया. ये लोग आजसू की उपेक्षा करते करते इनके वोट बैंक की भी उपेक्षा करने लगे हैं. आदिवासी तो इनके विरोध में थे ही झारखंड के कुर्मी-कोइरी वोट बैंक को भी लगने लगा है कि एनडीए से ज्यादा सम्मान तो उन्हें झामुमो में ही मिल रहा था. मनोज कहते हैं कि अब भी भाजपा को अपनी रणनीति बदलनी चाहिए और सुदेश महतो को सम्मान देकर इस ढहते वोट बैंक को बचाने की कोशिश करनी चाहिए. आंकड़ों की नजर से देखें, तो झारखंड की 22 सीटें कुर्मी-कोइरी बहुल हैं. संथाल परगना की 2 सीट, धनबाद कोयलांचल की बेरमो, टुंडी, गोमिया, गिरिडीह जैसी 6 सीटें, कोल्हान की 5 सीटें और चतरा-पलामू इलाके की सीटों को मिलाकर यहां कोइरी-कुर्मी वोट बैंक का एग्रेसिव टर्न अराउंड कमाल कर सकता है. लेकिन सुदेश महतो और उपेन्द्र कुशवाहा जैसे नेता ही एनडीए फोल्डर को इन इलाकों में बेहतर नतीजे दे सकते हैं.
राजनीतिक विश्लेषक दीपक प्रियदर्शी का मानना है कि भाजपा के रणनीतिकार अभी भी बहुमत के सम्मोहन में हैं. अधिकारी विकास का इन्द्रधनुष दिखा रहे हैं. पार्टी को लग रहा है कि उसे किसी सहयोगी की जरूरत ही नहीं है. इसी अहंकार में मुख्यमंत्री अपने किसी सहयोगी की नहीं सुन रहे हैं. समन्वय समिति की कितनी बैठक हुई है, यह भाजपा प्रदेश कार्यालय को भी नहीं पता. ऐसी उदासीनता एनडीए की जीत की सम्भावनाओं पर लगातार ग्रहण लगा रही है. कही ऐसा न हो कि अहंकार की आंधी सारी सियासी सम्भावनाओं को उड़ा ले जाए. विकास के सरकार के अपने मानक होते हैं. बदकिस्मती से झारखंड में विकास की एकांगी गंगा बह रही है. अधिकारी जो आंकड़े रख रहे हैं, मुख्यमंत्री और उनके कैबिनेट सहयोगी वही बोल रहे हैं. इसका सबसे अच्छा उदाहरण सिमडेगा में राशन के अभाव में मरी संतोषी नायक का है. संतोषी नायक जैसे तकरीबन 11 लाख परिवारों का राशन कार्ड तकनीकी आधार पर निरस्त कर दिया गया. मुख्य सचिव ने बिना विभागीय मंत्री की जानकारी के यह तय कर दिया कि जिन्हें राशन कार्ड चाहिए उन्हें आधार कार्ड दिखाना होगा. बाद में विभागीय मंत्री सरयू राय ने मुख्य सचिव के द्वारा की गई अन्य गड़बडियों को उजागर करने की धमकी दी, तो आनन-फानन में यह फरमान वापस हुआ. जब सरकार के अंदर इनती संवादहीनता है, अधिकारी मंत्री की नहीं सुन रहे और विभागीय सचिव मंत्री के आदेशों को फाड़कर फेंक देते हैं, ऐसे में सरकार विकास का वास्तविक मूल्यांकन आखिर किसके भरोसे कर
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