ऐसी क्या बात है कि बिहार में भारतीय जनता पार्टी के नेता नीतीश कुमार और लालू यादव पर तो हमला करते हैं, लेकिन मांझी सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा नहीं खोलते. यह बात भी सार्वजनिक होने लगी है कि जदयू के कई मंत्रियों और नेताओं के भाजपा के साथ रिश्ते मधुर से मधुरतम होते जा रहे हैं. राजनीति में कुछ भी अनायास नहीं होता. उसके पीछे रहस्य छिपा होता है. ऐसी क्या बात है कि जिन नरेंद्र मोदी के नाम पर नीतीश ने गठबंधन तोड़ा था, उन्हीं मोदी के नाम को सुनते ही जदयू के कई नेता वाह-वाह कर उठते हैं. बिहार में विधानसभा चुनाव होने में अभी काफी वक्त है, लेकिन प्रदेश का राजनीतिक पारा अभी से गरम हो चुका है. नीतीश कुमार और लालू यादव जनता परिवार और महा-गठबंधन के ज़रिये भाजपा को उपचुनाव की तरह शिकस्त देने की तैयारी कर रहे हैं, वहीं भारतीय जनता पार्टी बिहार में लालू और नीतीश की पार्टियां तोड़ने का चक्रव्यूह रच रही है.
झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा की शानदार जीत ने बिहार में सियासत की एक नई बिसात बिछा दी है. इस खेल का खाका तो नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही खींचा जाने लगा था, पर इंतज़ार झारखंड चुनाव परिणाम का हो रहा था. परिणाम आते ही सूबे का राजनीतिक पारा चढ़ना तय था और यह हुआ भी. बंद कमरों में देर रात तक बैठकों का दौर शुरू है और सबसे ज़्यादा हलचल भाजपा खेमे में देखी जा रही है. मिशन 175 प्लस को हासिल करने के लिए भाजपा ने अपने घोड़े हर दिशा में खोल दिए हैं. संगठन को मजबूत करने से लेकर बूथ स्तर की तैयारियां दुरुस्त करने का काम तो पहले से ही किया जा रहा है. कार्यकर्ता सम्मेलनों और छोटी रैलियों का सिलसिला भी जनवरी के दूसरे हफ्ते से शुरू हो जाएगा. अमित शाह जनवरी के तीसरे हफ्ते में बिहार आकर सारी तैयारियों की समीक्षा करने वाले हैं. साथ ही बिहार में अमित शाह की 37 रैलियां होने वाली हैं. यह तो आम तौर पर सारी पार्टियां करती हैं, लेकिन बिहार के लिए भाजपा की स्ट्रेटजी कुछ और ही है. भारतीय जनता पार्टी की एक स्पेशल टीम एक और महत्वपूर्ण मिशन को अंजाम देने में जुटी है. इस टीम की ज़िम्मेदारी नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड के कद्दावर नेताओं को तोड़ने की है. हैरानी की बात यह है कि इस काम में जदयू के बागी विधायक भाजपा की मदद कर रहे हैं. गुप्त तरीके से जदयू के बड़े जनाधार वाले नेताओं को अपने पाले में लाने की कोशिश हो रही है. इस मिशन में जातीय समीकरणों का भी पूरा ख्याल रखा जा रहा है. मिशन का मकसद है कि साम-दाम-दंड-भेद के ज़रिये जनता दल यूनाइटेड को तोड़ना और जनता को यह संदेश देना कि सत्ताधारी खेमे में भगदड़ मची है, क्योंकि अगली सरकार भाजपा की बनने वाली है.
मिशन का एक मकसद हां-ना में फंसे नेताओं को यह भी संदेश देना है कि जीत की संभावना भाजपा की तरफ़ बन रही है, इसलिए देर करने में होशियारी नहीं है. आइए और मजबूत सरकार की बुनियाद बिहार में रखी जाए. भाजपा की तरफ़ से सहयोगी दलों को भी यह इशारा है कि जो लोग किसी भी वजह से भाजपा में आने में दिक्कत महसूस करते हैं, उन्हें वे अपने खेमे में शामिल कर सकते हैं. इस लाइन पर लोजपा और रालोसपा का होमवर्क भी जारी है. जानकार सूत्रों पर भरोसा करें, तो भाजपा ने जदयू के कम से कम आधा दर्जन मंत्रियों को भरोसे में लेने का काम शुरू किया है. बताया जा रहा है कि जदयू के इन नेताओं को भी लग रहा है कि झारखंड के नतीजे जिस तरह से आए हैं, उसके उलट बिहार में कुछ नहीं होने जा रहा है. यह सभी मान रहे हैं कि नीतीश कुमार के इस्ती़फे के बाद बिहार सरकार की हनक कम हुई है. और, सच्चाई भी यह है कि नीतीश कुमार की हालत वैसी ही है, जैसी दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की है. लोगों को लगता है कि नीतीश कुमार ने अपने व्यक्तित्व की साख को बचाने के लिए राज्य को दांव पर लगा दिया. लोग नीतीश कुमार के शासन से खुश थे. सकारात्मक बदलाव भी हो रहा था. लोगों की निराशा ख़त्म करने में नीतीश कुमार पूरी तरह से सफल रहे थे. अगर वह आज मुख्यमंत्री होते, तो उनकी स्थिति काफी बेहतर होती और वह अकेले ही भाजपा को टक्कर देने की स्थिति में होते. लेकिन, जीतन राम मांझी ने पूरी स्थिति ही बदल दी है. मांझी सरकार एक ढुलमुल सरकार है. अपने विवादास्पद बयानों की वजह से जीतन राम मांझी ने जाने-अनजाने अगड़ी जातियों को बेहद नाराज़ कर दिया है. इसके अलावा दलित एवं पिछड़ी जातियों के कई नेताओं को ऐसा लगता है कि वे जीतन राम मांझी से कहीं बेहतर मुख्यमंत्री साबित होते. नीतीश कुमार ने मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर ग़लत घोड़े पर दांव लगा दिया. अब स्थिति यह है कि दिल्ली में अगर भाजपा जीत जाती है, तो बिहार में उसका मनोबल सातवें आसमान पर होगा. और अगर भाजपा दिल्ली में हार जाती है, तो बिहार चुनाव उसके लिए वाटर लू सिद्ध हो सकता है.
नीतीश कुमार की हालत वैसी ही है, जैसी दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की है. लोगों को लगता है कि नीतीश कुमार ने अपने व्यक्तित्व की साख को बचाने के लिए राज्य को दांव पर लगा दिया. लोग नीतीश कुमार के शासन से खुश थे. सकारात्मक बदलाव भी हो रहा था. लोगों की निराशा ख़त्म करने में नीतीश कुमार पूरी तरह से सफल रहे थे. अगर वह आज मुख्यमंत्री होते, तो उनकी स्थिति काफी बेहतर होती और वह अकेले ही भाजपा को टक्कर देने की स्थिति में होते.
बताया जाता है कि खुद नीतीश कुमार को लगता है कि कुछ चूक हो गई है. सत्ता के दो केंद्र की बात जो पहले छिप-छिपाकर कही जा रही थी, अब खुलेआम हो रही है. यही वजह है कि जदयू के भीतर भी अलग-अलग गोलबंदी है. ये ऐसे हालात हैं, जो आगामी चुनाव में जदयू नेताओं की जीत की संभावनाएं कम कर रहे हैं. चुनावी साल में पार्टी के भीतर इस तरह के माहौल ने जदयू के कई बड़े नेताओं को बेचैन कर दिया है. यह मुसीबत तो खड़ी ही है, पर असली आफत खरमास के बाद आने वाली है. चर्चा है कि खरमास के बाद जदयू एवं राजद का विलय हो सकता है. नीतीश कुुमार और लालू प्रसाद दोनों ही यह लाइन खींचने में लगे हैं. अगर इन दोनों नेताओं का यह सपना साकार हो गया, तो फिर जदयू और राजद के कई नेताओं के दिन खराब होना तय है. मौजूदा विधानसभा में जदयू के 70 विधायक ऐसे हैं, जो सीधे मुकाबले में राजद प्रत्याशी को हराकर आए हैं. मतलब यह है कि कम कम इन 70 सीटों पर तो निश्चित तौर पर दो मजबूत प्रत्याशी टिकट के प्रबल दावेदार हैं. इसलिए यह तो तय है कि 70 नेताओं के अच्छे दिन जाने वाले हैं. इनमें कुछ जदयू के हो सकते हैं और कुछ राजद के. इन 70 में जदयू के कुछ मंत्री भी शामिल हैं.
जानकार बताते हैं कि जदयू के कुछ नेताओं को यह पच नहीं रहा है कि उन्हें एक बार फिर लालू प्रसाद के साथ काम करना होगा. ऐसे नेता जनता को लालू प्रसाद को जंगलराज का राजा बताकर विधानसभा पहुंचे थे. उन्हें लगता है कि लालू प्रसाद के साथ मंच साझा करना उनके लिए आत्मघाती साबित हो सकता है. 2015 में विधानसभा कैसे पहुंचें, यह चिंता उन्हें खाए जा रही है. ऐसे ही हालात ने भाजपा को मा़ैका दिया है कि वह सत्ताधारी पार्टी में भगदड़ मचा सके. झारखंड के चुनाव नतीजों ने भाजपा नेताओं के हौसले काफी बढ़ा दिए हैं. उन्हें लगने लगा है कि नरेंद्र मोदी का जादू बिहार की जनता के सिर चढ़कर बोलेगा और यही बात वे जदयू के बड़े नेताओं को भी समझा रहे हैं. नीतीश कुमार से खफा चल रहे शकुनी चौधरी तो खुलेआम नरेंद्र मोदी की तारीफ़ों के पुल बांधते हैं. कहते हैं, कुछ बात तो है नरेंद्र मोदी में. झारखंड के नतीजों के बाद शकुनी चौधरी का भरोसा नरेंद्र मोदी पर और बढ़ा है. अपनी भावी राजनीति के बारे मेंे कुछ भी बोलने से वह परहेज करते हैं, पर जब बात नरेंद्र मोदी की होती है, तो वह वाह-वाह कह उठते हैं.
ग़ौरतलब है कि उनके पुत्र सम्राट चौधरी इस समय जीतन राम मांझी सरकार में मंत्री हैं. सम्राट चौधरी नीतीश कुमार और जीतन राम मांझी दोनों के क़रीबी माने जाते हैं. सम्राट चौधरी काम करने वाले मंत्रियों में गिने जाते हैं. अपने कुछ फैसलों से उन्होंने इस बात को साबित भी किया है. ऐसे में अगर उनके पिता शकुनी चौधरी पर मोदी मैजिक का असर बरकरार रहा, तो फिर सम्राट चौधरी के लिए धर्मसंकट की स्थिति पैदा हो सकती है. हालांकि, सम्राट चौधरी बार-बार कहते हैं कि वह सौ फ़ीसद नीतीश कुमार और जीतन राम मांझी के साथ हैं. सूत्रों पर भरोसा करें, तो मंत्री रमई राम, नरेंद्र सिंह, विनय बिहारी, शाहिद अली खान, वृशिण पटेल और मनोज सिंह कुशवाहा सहित जदयू के कई बड़े नेताओं पर एनडीए, खासकर भाजपा की नज़र है. भाजपा तो मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी पर भी डोरे डाल रही है. भाजपा के कई बड़े नेता इस संदर्भ में मीडिया में बयानबाजी भी कर चुके हैं.
भाजपा चाहती है कि जदयू में पसोपेश में फंसे बड़े नेताओं को एक विकल्प दिया जाए. अगर वे चुनाव से पहले आ जाते हैं, तो बहुत अच्छा और किसी वजह से नहीं आ पाए, तो इतना संतोष रहेगा कि चलो कोशिश तो की गई थी. अगर चुनाव बाद किसी वजह से इन नेताओं की मदद की ज़रूरत पड़ी, तो कम से कम पहल करने में आसानी रहेगी. लेकिन, भाजपा को लगता है कि उसका प्रयास खाली नहीं जाएगा, क्योंकि मोदी मैजिक का असर बिहार में बढ़ने ही वाला है और कोई भी नेता, जो चुनावी जंग में जीत के लिए आश्वस्त होना चाहता है, वह इस समय तो भाजपा को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता है.
पप्पू पास हो रहा है
पप्पू यादव एक ऐसा नाम है, जिसे लेकर समाज में हमेशा अलग-अलग धारणाएं रही हैं. मंडल आंदोलन के दौरान वह एक तबके का हीरो था, तो एक तबके के लिए विलेन. वह दौर ख़त्म हुआ, तो पप्पू सलाखों के पीछे चले गए. इस कारण उनकी राजनीतिक गतिविधियों को विराम-सा लग गया. साल 1994 में उनके द्वारा बनाया गया ग़ैर-राजनीतिक संगठन युवा शक्ति ही इस दौर में पप्पू यादव की भावनाओं से समाज को अवगत कराता रहा. पप्पू यादव जेल से बाहर निकले और लोकसभा चुनाव में खुद तो जीते ही, उनकी पत्नी भी सुपौल से सांसद बन गईं. मोदी लहर में इस दंपत्ति की जीत ने राजनीतिक पंड़ितों को चौंका दिया. जिस लहर में बड़े-बड़े दिग्गज ध्वस्त हो गए, वहां पप्पू यादव ने अपनी राजनीतिक कुशलता और चुनाव प्रबंधन का बेजोड़ नमूना पेश करते हुए जीत दर्ज कराकर अपना कद काफी बढ़ा लिया. पप्पू यादव अब पूरे बिहार में घूम रहे हैं. वैसे तो भ्रष्टाचार, दलाल संस्कृति, बेलगाम अफसरशाही, छोटे राज्य और स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली जैसे मुद्दे पप्पू यादव के एजेंडे में हैं, लेकिन इन दिनों वह डॉक्टरों की निजी प्रैक्टिस को लेकर काफी आक्रामक आंदोलन चला रहे हैं. 14 जनवरी के बाद पप्पू यादव हर ज़िले में दो-दो सभाएं करने जा रहे हैं. उसके बाद पटना में एक बड़ी रैली करने का उनका कार्यक्रम है. यह विंडबना ही है कि इन सारे आंदोलनों में पप्पू यादव को अपनी पार्टी यानी राजद का समर्थन नहीं मिल रहा है. इस सवाल पर पप्पू यादव कहते हैं, राजद की जो विचारधारा है, हम उसी विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं. अब यह पार्टी को तय करना है कि वह मेरे आंदोलनों को किस रूप में देखती है. लालू यादव की परेशानी यह है कि उन्हें पता है कि युवाओं के बीच अब उनका वह क्रेज नहीं रहा. उनकी चिंता यह भी है कि वह अब चुनाव नहीं लड़ सकते, वह मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी नहीं बन सकते हैं. ऐसे में पार्टी को आगे ले जाने की चिंता भी है. वह अपने बेटे को प्रमोट कर रहे हैं, लेकिन उसका ज़्यादा असर नहीं दिख रहा है. उधर, पप्पू यादव बिहार में यादवों के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरना चाहते हैं और यही राजद के लिए चिंता का विषय है. पप्पू यादव मांझी सरकार को भी कठघरे में खड़ा करते हैं. वह कहते हैं कि उनके कुछ मंत्री दलाल संस्कृति को प्रश्रय देते हैं. पप्पू यादव इन दिनों पीड़ित दलितों को धर्म परिवर्तन की भी सलाह दे रहे हैं. पप्पू यादव अच्छी तरह जानते हैं कि राजनीतिक तौर पर अपने आपको किस तरह आगे रखना है. लालू के बाद कौन यादवों का नेता? जब यह सवाल चौक-चौराहे पर चर्चा में आता है, तो पप्पू यादव सबसे आगे दिखाई पड़ते हैं. बिहार की लगभग 18 फ़ीसद यादव आबादी का नेता बनने के लिए पप्पू यादव कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. हालांकि, वह कहते हैं, मैं कभी जाति की राजनीति नहीं करता, मैं तोे हमेशा जमात की बात करता हूं. लेकिन, यह सच है कि पप्पू यादव अब धीरे-धीरे यादवों के बीच स्वीकार्य हो रहे हैं. बिहार के कोसी, सीमांचल एवं अंग के बाद अब पप्पू यादव मिथिलांचल में पांव पसारने लगे हैं. आनंदमार्गी पृष्ठभूमि से आने वाले पप्पू यादव आनंदमार्गियों की तरह ही छोटे राज्य के हिमायती हैं.
पिछले दिनों पप्पू यादव ने विद्यापति की जन्मस्थली मिथिला के बिस्फी में जाकर मैथिल ब्राह्मणों के बीच उनकी ज़ुबान में भाषण देकर सबको खुश कर दिया. उन्होंने मैथिली में कहा, मिथिलाक सभ जन मैथिल छथि. सबहक भाषा मैथिली अछि. हमरा सभके मिथिला-मैथिलि के विकास के लेल हर चीज से ऊपर उठि के प्रयास करय पड़त. पप्पू यादव की उक्त बातें मैथिलों को अच्छी लगीं और मिथिला राज्य की राजनीति को बल मिला है. पप्पू यादव कहते हैं कि कोसी और मिथिला की भूमि उर्वरा होने के बावजूद यह इलाका हमेशा शोषित-उपेक्षित रहा है. लिहाजा सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक विकास के लिए मिथिला राज्य के वह समर्थक हैं. पप्पू कहते हैं कि युवा शक्ति द्वारा सामाजिक जागृति अभियान चलाने के बाद वह बिहार में बड़ा आंदोलन करने के मूड में हैं. दरअसल, पप्पू यादव इन दिनों अपने आंदोलन को लेकर अधिक चर्चा में हैं. पहले डॉक्टरों के ख़िलाफ़ सीधी कार्रवाई करके और फिर युवा शक्ति संगठन बनाकर वह लोगों की ज़ुबान पर चढ़े हुए हैं. पप्पू के इस क़दम की न स़िर्फ समर्थक, बल्कि उनके विरोधी भी तारीफ़ करने लगे हैं. बिहार में शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी बुनियादी चीजों की स्थिति काफी दयनीय है. पप्पू ने डॉक्टरों के ख़िलाफ़ अपने आंदोलन को सही दिशा देने के लिए युवा शक्ति को मैदान में उतारा था. पप्पू यादव अब अपने आंदोलन को व्यापक और धारदार बनाने की सोच रहे हैं. अब वह केवल डॉक्टरों के ख़िलाफ़ ही आंदोलन नहीं करेंगे, बल्कि निजी स्कूलों और कलेक्टर राज यानी प्रशासनिक संवेदनहीनता के विरुद्ध भी निर्णायक लड़ाई लड़ने की तैयारी कर रहे हैं. पप्पू मई 2013 में अजीत सरकार हत्याकांड में निर्दोष करार दिए जाने के बाद से काफी सक्रिय हो उठे हैं. वह एक बार फिर अपनी खोई हुई ज़मीन मजबूत करने में लग गए हैं. मजे की बात यह है कि अलग-अलग राजनीतिक दलों में होने के बावजूद पति-पत्नी इस अभियान में जुटे हुए हैं.
ग़ौरतलब है कि पप्पू की पत्नी रंजीता रंजन सुपौल से कांग्रेस सांसद हैं. इस बार पप्पू यादव ने जदयू प्रमुख शरद यादव को उनकी परंपरागत मधेपुरा सीट से पटखनी देकर चुनाव जीता है. बहरहाल, पप्पू की बढ़ती लोकप्रियता से राजद नेतृत्व बेचैन है. पप्पू भी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा छिपा नहीं पा रहे हैं. लालू यादव द्वारा पीठ थपथपाए जाने के बाद कोसी क्षेत्र में मधेपुरा के राजद विधायक प्रोफेसर चंद्रशेखर और सुपौल के यदुवंश सांसद पप्पू यादव के प्रखर आलोचक बनकर उभरे हैं. उक्त दोनों राजद नेता पप्पू को खुली चुनौती देते रहे हैं. जबकि राजद के राज्य प्रमुख डॉ. रामचंद्र पूर्वे ने खुलेआम कहा है कि वह राजद के बैनर का अनाधिकृत इस्तेमाल नहीं होने देंगे. यह पार्टी के ख़िलाफ़ है. उन्होंने कहा कि युवा शक्ति राजद की इकाई नहीं है, बल्कि पप्पू यादव का निजी संगठन है. ऐसी संस्थाओं और उनके क्रियाकलापों से राजद का कोई लेना-देना नहीं है. इसके बाद पप्पू यादव ने तत्काल अपने आंदोलन को विराम दे दिया और राजद प्रमुख लालू यादव को विश्वास में लेने के लिए जुट गए. हालांकि, डॉक्टरों के ख़िलाफ़ आंदोलन से उनकी ही जाति का एक वर्ग उनसे खार खाने लगा है और समय का इंतज़ार कर रहा है. पप्पू यादव राजद प्रमुख लालू प्रसाद को अपना निर्विवाद नेता मानते हैं. वह कहते हैं, हम ग़रीबों और शोषितों के हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं. युवा शक्ति भी समाज के दबे-कुचले और पिछड़े लोगों के लिए संघर्षरत है, लेकिन जो लोग पार्टी को कमज़ोर करना चाहते हैं, वे मेरे और युवा शक्ति के ख़िलाफ़ बोल रहे हैं. उन्होंने कहा कि वह ऐसे लोगों का नोटिस लेने की बजाय लालू यादव से परामर्श करने के बाद अपने आंदोलन का विस्तार करेंगे.