देश में दहशत का यह नया दौर है। कोरोना की दहशत से लोग अभी उबरे भी नहीं है कि बर्ड फ्लू ने खतरनाक दस्तक दे दी है। हालांकि यह महामारी पक्षियों में ही फैल रही है, लेकिन इंसान को भी इससे खतरा तो है। पक्षियों के लिए तो कोई वैक्सीन वगैरा भी नहीं होती। वो बीमार हुए तो मर जाते हैं या मार दिए जाते हैं।
यूं बर्ड फ्लू अमूमन मुर्गे-मुर्गियों की महामारी ज्यादा मानी जाती है, लेकिन मध्यप्रदेश में कौव्वे भी इस रोग से मर रहे हैं तो केरल में बतखें बड़ी तादाद में इसका शिकार हो रही हैं। यूं बर्ड फ्लू ने अपनी दस्तक तो पिछले साल ही दे दी थी, क्योंकि महामारियां एक दूसरे के आने या जाने की चिंता नहीं करतीं।
वो अपना काम करती रहती हैं। मनुष्य उन्हें रोकने की हर संभव कोशिश करता है। कुछ साल पहले भी बर्ड फ्लू ने देश को हिला दिया था,तब बड़ी संख्या में मुर्गियों को मारना पड़ा था ( मरना तो उनकी किस्मत में ही है, परंतु बर्ड फ्लू ग्रस्त मुर्गियां पेट पूजा के काम भी नहीं आ सकतीं) लेकिन कोरोना की दहशत के आगे सभी डर फीके पड़ गए।
यूं कोई भी वायरस समूची मानव सभ्यता के लिए ही चुनौती बनकर खड़ा हो जाता है। बहुत से खतरनाक वायरसो को तो अभी हम ठीक से पहचानते भी नहीं हैं, उनकी तासीर को समझना तो दूर की बात है। मसलन कोरोना वायरस का कोविड 19 नामकरण भी तब हुआ, जब हजारों लोग इस नए वायरस का शिकार हो चुके थे।
अलबत्ता बर्ड फ्लू वायरस की हमे पहले से जानकारी है। दुनिया में ऐसा पहला मामला 1996 में देखा गया। अगले साल हांगकांग में इसका असर मनुष्यों में देखा गया। हमारे देश में इस साल अभी तक पांच राज्यों में बर्ड फ्लू से 85 हजार से अधिक पक्षियों की मौत हो चुकी है। ये सिलसिला जारी है, वो पक्षी, जो हमारे पर्यावरण का अनिवार्य हिस्सा हैं।
बर्ड फ्लू ( इसे एवियन फ्लू भी कहते हैं) का वैज्ञानिक नाम एच 5 एन 1 तथा एच 5 एन 8 है। वैज्ञानिकों के अनुसार इन दोनो में फर्क इतना है कि एच 5 एन 8 पुराने एच 5 एन 1 का बदला हुआ रूप है। यानी इसका स्ट्रेन नया है। इसीलिए इसे एच 5 एन 8 नाम दिया गया है। ये स्ट्रेन जानवरों व पक्षियों के लिए खतरनाक है, लेकिन इंसानों पर इसका ज्यादा असर नहीं देखा गया है।
लेकिन प्रकृति में रंग भरने और दिन रात चहकाने वाले इन पक्षियों की असमय सामूहिक मौत की खबर ने पर्यावरण प्रेमियों को दुखी कर दिया है और सरकारें भी चौकन्नी हो गई हैं। बर्ड फ्लू फैलने से पक्षियों की मौतों के बाद केरल ने तो राज्य में आपदा की घोषणा कर दी है तो मध्यप्रदेश, राजस्थान व हिमाचल प्रदेश में आदि में अलर्ट घोषित कर दिया गया है।
केरल सरकार ने वहां बर्ड फ्लू प्रभावित दो जिलों में 50 हजार बतखों व अन्य पक्षियों को मारने के आदेश दिए गए हैं ताकि इस महामारी को फैलने से रोका जा सके। राज्य में बर्ड फ्लू से 12 हजार बतखों के मरने की खबर पहले ही आई थी। उधर गुजरात में तो बतखों के अलावा टिटहरी और बगुले भी काफी संख्या में मरे हैं।
मृत पक्षियों के सेम्पल की जांच भोपाल की प्रयोगशाला में हो रही है। बताया जाता है कि एच 5 एन 8 एवियन इन्फ्लूएंजा से सिर्फ कौवों की ही मौत हुई है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार एच 5 एन 1 वायरस मनुष्य से मनुष्य में नही फैलता, लेकिन यदि मनुष्य इसकी चपेट में आ जाए तो मौत भी हो सकती है। गौरतलब है कि बर्ड फ्लू के इंसानों में फैलने का पहला मामला 2013 में चीन में सामने आया था। जिसमें संक्रमित महिला की मौत हो गई थी।
अगर मध्यप्रदेश की बात करें तो यहां कई जिलों में बड़ी संख्या में कौव्वे मर रहे हैं। उपलब्ध जानकारी के मुताबिक 23 दिसम्बर 20 से 3 जनवरी 2021 तक इंदौर में 142, मंदसौर में 100, आगर-मालवा में 112, खरगोन जिले में 13 और सीहोर में नौ कौवों की मौत हुई है।
मृत कौवों के नमूने जांच के लिए भोपाल स्थित स्टेट डी.आई. प्रयोगशाला भेजे जा रहे हैं। कहते हैं भारत में कौव्वों की 6 प्रजातियां हैं। लेकिन प्रख्यात पक्षी विज्ञानी सालिम अली ने हमे दो प्रजातियों के बारे में ही बताया है। ये जगंली कौआ और घरेलू कौव्वा। लेकिन अब एक भी प्रजाति का कौव्वा मिल जाए तो गनीमत समझें।
बहरहाल, कौव्वों पर यह कुदरत की दूसरी मार है। बीते दो दशकों से पहले ही कौव्वे संख्या में घट रहे थे। जिस कौव्वे की कांव-कांव को हिकारत के भाव से देखा जाता था, उसे सुनने के लिए भी कान तरस गए थे। ( शायद मोबाइल युग ने अब कांव-कांव’का झगड़ानंद भी हमसे छीन लिया है।
सर्दियों में सुबह की धूप में बिजली के तारों पर लगने वाले पक्षियों की पाठशाला भी अब कभी-कभार देखने को मिलती है। उसमें भी कौव्वों की मौजूदगी तो अब दुर्लभ है। अटरिया तो दूर हाई राइज अट्टालिका की किसी छत भी शायद ही कौव्वे दिखाई पड़ते हैं। तमाम बुराइयों के बावजूद हिंदू धर्म में काव्वों का अपना महत्व और भूमिका रही है।
अपने बुद्धि चातुर्य के कारण कौव्वा पुराणों में ज्ञानशील कागभुशुंडी के रूप में है तो मरने के बाद की जाने वाली उत्तर क्रिया में मृतक के पिंड स्पर्श के लिए तक कौव्वे की ही अनिवार्यता मानी गई है। लेकिन पिछले कुछ सालों से इस काम के लिए भी कौव्वे मिलना भाग्य की बात हो गई है।
श्राद्ध पक्ष में भोजन कराने के लिए भी कौव्वे मानो दूभर हो गए हैं। कभी गोरैया के साथ पेड़ों और खिड़कियों में जुगलबंदी करने वाले कौव्वे मानो एकांत में कही चले गए हैं। एक जमाना था, जब सुबह मुर्गे की बांग के साथ साथ कौव्वों की कांव-कांव से भी होती थी।
घर की मुंडेर पर कागा का बोलना शुभ माना जाता था। वह किसी अतिथि के आने का संकेत समझा जाता था। अतिथि भले अब भी आते हों, लेकिन उनकी प्राकृतिक रूप से पूर्व सूचना देने वाले कौव्वे मानो अंतर्ध्यान हो गए हैं।
यूं नैतिक शिक्षा में कौव्वे सबसे ज्यादा पढ़ाए जाते हैं कि किस तरह घड़े में भरे थोड़े से पानी को वो कंकर डाल डाल के मुंह तक ले आते हैं, बावजूद इसके कौव्वों को मानव समाज में हमेशा धूर्त, कर्कश और मतलबी पक्षी के रूप में याद किया गया। मनुष्यों के पितरों को तृप्त करने वाले कौव्वे अपनी चोंच पर लगा बदनामी का यह दाग कभी नहीं मिटा जाए।
अब तो मानो प्रकृति ने उन्हें ही मिटाना शुरू कर दिया है। कौव्वों के इस तरह नदारद होने के पीछे एक कारण यह बताया जाता है कि अमूमन कौव्वे जिन पशुओं का मांस खाकर अपना पेट भरते हैं, उनमें कीटनाशकों का असर रहता है और वह कौव्वों तक पहुंच जाता है।
बर्ड फ्लू से ग्रस्त पक्षियों का इस तरह बेमौत मरना या सुरक्षा की खातिर उन्हें मारा जाना सचमुच दुखदायी है। लेकिन कौव्वों का यूं मारा जाना, और भी ज्यादा क्षुब्ध करने वाला है। पिछले साल से ही दुनिया मौत का नंगा नाच देख रही है। इसके पीछे एक कारण खुद मनुष्य ही है तो इसका सबसे बड़ा भुक्तभोगी भी वही है।
वरिष्ठ संपादक
अजय बोकिल
‘सुबह सवेरे’