इस बार जैसे ही बिहार में बिहार केसरी डॉ. श्रीकृष्ण सिंह की जयंती मनाई गई, वह जयंती एक राजनीतिक घटन में बदल गई. इस अवसर का इस्तेमाल कैसे अगले अलगे लोक सभा चुनाव में किया जाए, सबकी नजर इसी पर थी. कांग्रेस भी इस अवसर को अपने लिए भुनाने से पीछे नहीं रही.
कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य डॉ. अखिलेश सिंह की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम में महागठबंधन के सभी दलों के नेता शामिल हुए. श्री बाबू को याद करने के लिए अखिलेश सिंह हर साल ऐसा आयोजन करते हैं. इसके जरिए पार्टी नेतृत्व को अपनी राजनीतिक ताकत का अहसास कराना उनकी मंशा होती है. इसमें वे किस हद तक कामयाब रहे, यह कहना तो कठिन है.
बिहार कांग्रेस अभियान समिति के प्रमुख अखिलेश सिंह के इस आयोजन में प्रदेश कांग्रेस के चार में से किसी कार्यकारी अध्यक्ष ने शिरकत नहीं की. इतना ही नहीं, विधान मंडल में पार्टी के नेता सदानंद सिंह भी इससे दूर ही रहे. लेकिन अखिलेश सिंह के लिए संतोष (खुशी भी कह सकते हैं) की बात यह रही कि कांग्रेस के महासचिव और बिहार के प्रभारी शक्तिसिंह गोहिल समारोह में निरन्तर मौजूद रहे. उनके साथ-साथ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष मदनमोहन झा भी रहे.
लालू प्रसाद के राजनीतिक उत्तराधिकारी तेजस्वी प्रसाद यादव और पूर्व मुख्यमंत्री व हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा के प्रमुख जीतनराम मांझी की मौजूदगी भी अखिलेश सिंह के लिए कम महत्वपूर्ण नहीं रही.
यह बताने की जरूरत नहीं कि श्री बाबू के नाम पर कांग्रेस की यह कवायद क्यों महत्व का मुद्दा है या अतिपिछड़ों व दलितों को गोलबंद करने का जद (यू) का अभियान किस हद तक उसके लिए उपयोगी है या नए चिह्नित सामाजिक समूहों में भाजपा की पैठ की प्रत्यक्ष-परोक्ष कोशिश के पीछे कौन सी राजनीति काम कर रही है.
यह बताने की भी बहुत जरूरत नहीं रही है कि तेजस्वी प्रसाद यादव ‘माय’ के साथ किन सामाजिक समूहों को जोड़ने की कोशिश में हैं. इन बातों को हाल की कुछ राजनीतिक घटनाओं के आलोक में देखने पर बातें साफ हो जाती हैं. एससी/एसटी कानून में हाल ही अध्यादेश के जरिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के विपरीत केंद्र सरकार द्वारा किए गए बदलाव से खासकर हिन्दी-पट्टी का सवर्ण समाज काफी उत्तेजित है.
इस मसले पर आंदोलन चल रहे हैं. बिहार में पिछले दशकों में अगड़े समाज की जातियां भाजपा से जुड़ी रही हैं. अब ये जातियां सरकार के विरोध में सड़क पर आ गई हैं. कांग्रेस बिहार की ऊंची जातियों में फिर से अपनी पकड़ बनाने के लिए इस अवसर को काफी अनुकूल पा रही है. हालांकि अखिलेश सिंह व कुछ और भूमिहार नेता श्री बाबू को उनकी जयंती के अवसर पर निरंतर याद करते रहे हैं, पर इस बार जिस तर्ज पर समारोह आयोजित किए गए, वह खास राजनीतिक मकसद को तो इंगित करता ही है.