बिहार के लिए 2017 बनते-बिगड़ते सियासी समीकरणों का साल रहा. नीतीश का महागठबंधन से अलग होकर भाजपा के साथ गठजा़ेड ने बिहार की राजनीति में एक तरह से सियासी भूचाल ला दिया. लालू ने नीतीश को विश्वासघाती कहा, तो नीतीश भी लालू के खिलाफ मैदान में उतर गए. अब लालू के दोनों बेटे तेजस्वी यादव और तेजप्रताप भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर जमकर आरोप लगा रहे हैं. उनका कहना है कि जनता ने महागठबंधन को वोट दिया था और अब नीतीश भाजपा के साथ मिलकर जनता के साथ विश्वासघात कर रहे हैं. सृजन और चारा घोटाले ने भी इन सियासी समीकरणों को काफी हद तक प्रभावित किया.
सिखों के 10वें गुरु गोविंद सिंह जी के 350वें प्रकाश पर्व के अवसर पर ही महागठबंधन में फूट दिखने लगा था. इस दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक साथ मंच साझा किया और एक-दूसरे से गर्मजोशी के साथ मिले. नीतीश ने प्रधानमंत्री मोदी के नोटबंदी का खुलकर समर्थन किया, तो वहीं प्रधानमंत्री मोदी ने भी नीतीश के शराबबंदी की जमकर प्रशंसा की.
नोटबंदी, जीएसटी और राष्ट्रपति पद के लिए रामनाथ कोविंद पर भाजपा का समर्थन करने के बाद ही यह तय हो गया था कि नीतीश लालू से अलग किसी और राजनीतिक साथी की तलाश में हैं. लालू और उनके दोनों बेटों पर लग रहे घोटाले के आरोपों के बाद नीतीश को एक बेहतर मौका मिल गया और उन्होंने एनडीए का दामन थाम लिया. नीतीश कुमार को अपनी सुशासन बाबू की छवि बचाने के लिए यह जरूरी था कि वे राजद पर लग रहे आरोपों पर सफाई दें. उन्होंने लालू यादव से इस संदर्भ में चर्चा की और उनसे आग्रह किया कि वे तेजस्वी और तेजप्रताप को इस बात के लिए राजी कर लें कि वे इन घोटाले के आरोपों पर बयान दें. लेकिन लालू की चुप्पी के बाद नीतीश के पास दो ही विकल्प बचे थे. या तो वे तेजस्वी और तेजप्रताप से इस्तीफा ले लेते या फिर खुद मुख्यमंत्री पद छोड़ देते. उन्होंने दूसरा रास्ता अपनाना ज्यादा बेहतर समझा. नीतीश की हठधर्मिता से लालू को भी यह लग गया कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी तरह का कोई समझौता नहीं करने वाले हैं. इसके बाद नीतीश ने सभी को चौंकाते हुए अचानक इस्तीफा दे दिया.
नीतीश ने इस्तीफा देने के बाद मीडिया में बयान दिया कि हमने 20 महीने तक गठबंधन धर्म निभाया. लेकिन अब ऐसा माहौल बन गया था, जिसमें उनके लिए काम करना मुश्किल था. नीतीश को यह लग गया था कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का साथ उनकी पार्टी के लिए जरूरी है, तभी वे बड़े भाई लालू के दबाव से मुक्त हो सकते हैं.
उधर, भाजपा ने भी नीतीश के इस्तीफा देने के तुरंत बाद नीतीश को मुख्यमंत्री बना दिया. यानी नीतीश तो मुख्यमंत्री बने रहे, लेकिन लालू के दोनों बेटों का मंत्री पद छिन गया. उधर इस सियासी उथल-पुथल का असर कांग्रेस पर भी पड़ा. यह तय माना जा रहा था कि कांग्रेस दो धड़ों में बंट जाएगी और एक गुट नीतीश का समर्थन करेगा. हालांकि इस मामले में जदयू ने कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई, जिसके कारण कांग्रेस तो बच गई, लेकिन अशोक चौधरी को अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा.
महागठबंधन से टूट के बाद नीतीश कुमार की पार्टी को भी आंशिक विद्रोह का सामना करना पड़ा. शरद यादव और अली अनवर ने जदयू में इस गुट का नेतृत्व किया. यह गुट लालू की पार्टी राजद के साथ ही सरकार बनाने का समर्थक था. शरद के करीबियों को पार्टी से बाहर कर दिया गया और उन्हें भी अपनी राज्यसभा की सीट गंवानी पड़ी.
नीतीश से अलग होने के बाद लालू भी एक नए गठबंधन की तलाश में थे. उनकी नजर रालोसपा और हम पर टिकी थी. सियासी सूत्रों की मानें तो लालू इस बात पर भी तैयार हो गए थे कि उपेंद्र कुशवाहा इस गठबंधन का नेतृत्व करेंगे. लालू को उम्मीद थी कि सपा और बसपा भी बिहार में स्वाभाविक सहयोगी बनकर उनका साथ दे सकते हैं. लेकिन अपने बेटों को राजनीति में स्थापित करने की लालू की लालसा के कारण यह बात आगे नहीं बढ़ सकी. फिलहाल राजद इस सियासी समीकरण को साधने में ही जुटा है.
चारा घोटाले के एक मामले में लालू के जेल जाने के बाद बिहार में सियासत उबाल पर है. नई सरकार के गठन के कुछ ही समय बाद सृजन घोटाला सामने आया है. यह मामला राजकोष से एक एनजीओ को सैकड़ों करोड़ रुपए धोखे से ट्रांसफर करने से जुड़ा है. नीतीश कुमार ने इस मामले में सीबीआई जांच के आदेश तो दे दिए हैं, लेकिन यह तय है कि सृजन का यह भूत लंबे समय तक नीतीश को डराता रहेगा.