2005 में बिहार के सत्ता परिवर्तन को एक नई उम्मीद और नए सबेरे के रूप में प्रचारित किया गया था. काफी हद तक यह परिवर्तन अनेक क्षेत्रों में सकारात्मक बदलाव ले कर आया भी. एक दशक में बिजली, सड़क, स्वास्थ्य और कानून व्यस्था के स्तर पर बिहार में आए परिवर्तन को सराहा भी गया. लेकिन इन दस वर्षों में जो सबसे बड़ी चिंता और चुनौती थी, वह थी बिहार में औद्योगिक निवेश की. 2007-10 तक यह कहा और बताया जाता रहा था कि राज्य में जब तक बुनियादी सुविधाएं स्तरीय नहीं होंगी, तब तक निजी निवेश संभव नहीं होगा.
इन वर्षों में हर दिशा में तरक्की हुई, लेकिन इन वर्षों में निजी निवेश और इन निवेशों से रोजगार सृजन की दिशा में हुए कामों पर नजर जाती है, तो एक लम्बी मायूसी छा जाती है. राज्य सरकार ने नए निवेश को आकर्षित करने के लिए औद्योगिक नीति बनाई. निवेश के लिए निवेश संवर्धन बोर्ड बनाया. निवेशकों को आकर्षित करने के लिए उनसे मुलाकातों का लम्बा दौर चला.
अनिवासी बिहारियों को जोड़ने के लिए बिहार फाउंडेशन बना. इस फाउंडेशन के अलग-अलग देशों में चैप्टर खोले गए, निवेशकों के लिए अनेक सम्मेलन आयोजित किए गए. एक दशक से भी ज्यादा के इन प्रयासों से जो परिणाम सामने आए हैं, उन्हें देख कर लगता है कि अभी बिहार के लिए मंजिल बहुत दूर, बहुत ही दूर है.
नीतीश कुमार ने अपने दूसरे शासनकाल की शुरूआत (2010) में निवेश और औद्योगिक घरानों को आकर्षित करने की दिशा में काफी प्रयास किया था. देश के सबसे बड़े औद्योगिक घराने रिलायंस के प्रमुख मुकेश अंबानी को बुला कर उनका रेडकार्पेट वेलकम तक किया गया था, लेकिन उन्होंने भी निवेश का न तो कोई ठोस प्रस्ताव सामने रखा और न ही किसी अन्य बड़े घरानों ने कोई दिलचस्पी दिखाई.
औद्योगिक घरानों के निराश करने वाले रवैये के बाद राज्य सरकार ने भी शायद यह मान लिया कि उन पर समय और ऊर्जा लगाने से ज्यादा बेहतर है कि छोटे उद्यमियों को ही प्रोत्साहित किया जाए.
लेकिन यह काम इसलिए भी जोखिम भरा था कि राज्य सरकार के पास उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए कोई ठोस पॉलिसी नहीं थी. इसके बाद राज्य सरकार ने औद्योगिक नीति पर काम शुरू किया. इसके लिए राज्य के प्राकृतिक संसाधनों को ध्यान में रखते हुए कृषि से जुड़े उद्योग और निवेश पर ध्यान केंद्रित किया गया.
बिहार में कृषि क्षेत्र में निवेश की सबसे बड़ी संभावना चीनी उत्पादन के सेक्टर में है. किसी भी अन्य राज्य की तुलना में बिहार में ईंख या गन्ना उत्पादन की संभावना बिहार में है. यहां की उपजाऊ मिट्टी और आबो हवा गन्ना उत्पादन के अनुकूल हैं. लेकिन सिंचाई, खाद और दीगर संसाधनों की कमी एक बड़ी चुनौती रही है.
इसलिए कभी चीनी उत्पादन में अग्रणी रहा यह राज्य आज इस मामले में छठे पायदान पर है. 90 का दशक आते-आते यहां की अनेक चीनी मिलें बंद हो गईं. हालांकि 2008 के बाद अनेक चीनी मिलें खुली हैं और उत्पादन में इजाफा होना भी शुरू हुआ है, परंतु अब भी इस सेक्टर में काफी संभावनाएं हैं.
उत्तर बिहार के नरकटियांगज और हरिनगर समेत कुछ और क्षेत्रों में चीनी मिलों की स्थापना हुई और उत्पादन भी शुरू हुआ. इसी तरह जूट उत्पादन के क्षेत्र में बिहार देश का दूसरा सबसे बड़ा राज्य है, लेकिन जहां तक जूट आधारित उद्योगों की बात है, तो इसमें यह फिसिड्डी है. सरकारी स्तर पर इस क्षेत्र में पूंजी निवेश के लिए निवेशकों के प्रोत्साहन की बात तो कही जाती है, लेकिन निवेश के स्तर पर हालात संतोषजनक नहीं हैं.
उधर निवेशकों के अनुकूल नीति बनाने के लिए उद्योग जगत ने हमेशा ही बिहार सरकार पर जोर दिया. औद्योगिक विकास और निवेश के लिए राज्य सरकार ने बिहार औद्योगिक प्रोत्साहन नीति 2016 बनाई है, जिसमें निवेशकों के लिए अनेक सुविधाओं का प्रावधान है.
साथ ही सरकार ने मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन भी किया गया है, जो उद्योग जगत से फीडबैक मिलने के बाद उद्योग नीति में आवश्यक प्रावधान जोड़ने की दिशा में काम कर रही है. इस नीति की घोषणा के बाद वेदांता रिसोर्सेज के संस्थापक अनिल अग्रवाल ने कहा कि उनकी तरफ से बिहार में एक खनिज प्रसंस्करण संयंत्र और एक विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय शुरू करने की योजना है.
हालांकि अनिल अग्रवाल की घोषणा के लगभग पांच महीने हो गए हैं, लेकिन अब तक इसकी कोई स्पष्ट रूपरेखा सामने नहीं आई है. गौरतलब है कि अनिल अग्रवाल बिहार के हैं और उनका वेदांता समूह दुनिया की नामचीन कम्पनियों में शुमार है. अगर वेदांता इस दिशा में कदम बढ़ाता है, तो संभव है कि उनका निवेश अब तक का सबसे बड़ा निजी निवेश माना जाएगा. लेकिन यह तो अभी भविष्य की बात है.
दूसरी तरफ जहां तक उद्योग जगत को प्रभावित करने की बात है, तो इस बारे में पीएचडी चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज के बिहार चैप्टर के अध्यक्ष सत्यजीत कुमार ने पिछले वर्ष फरवरी में सरकार को एक पत्र लिखा था. इस पत्र में उन्होंने इस बात पर चिंता जताई थी कि पिछले दस वर्षों में राज्य सरकार लैंड बैंक बनाने में असफल रही है, वहीं दूसरी तरफ जमीन का सर्किल रेट इतना बढ़ा दिया गया है कि भूमि अधिग्रहण काफी महंगा हो चुका है. महंगी जमीन ले कर उद्योगों की स्थापना बहुत मुश्किल है.
कब हटेंगे मायूसी के बादल
बिहार में निवेश के लिए निवेश संवर्धन बोर्ड का अंतिम क्लियरेंस लेना पड़ता है. बोर्ड की वेबसाइट पर 2016 में निवेश अप्रुवल की एक भी सूचना उपलब्ध नहीं है. जहां तक 2015 में निवेश प्रस्ताव की मंजूरी की बात है, तो गिनती के लिहाज से इसकी संख्या 65 है, लेकिन निवेश की राशि के लिहाज से देखें, तो ये आंकड़ें चिंता ही बढ़ाते हैं.
निवेश के लिए स्वीकृत कुल 65 प्रस्तावों में से सर्वाधिक निवेश 21 करोड़ रुपए का है, जिसके तहत मेट्रोपोल विनिम प्राइवेट लिमिटेड कैमूर में रिफाइन ऑयल प्रोसेसिंग युनिट शुरू करने की योजना पर काम कर रहा है. बाकी के अन्य निवेश प्रस्तावों में से 90 प्रतिशत लघु उद्योग की श्रेणी में हैं, जिनका निवेश दो करोड़ से पांच करोड़ रुपए के बीच ही है. इन तमाम प्रस्तावों में चंद ही ऐसे हैं, जिनके तहत 10 से 18 करोड़ के निवेश होने हैं.
ध्यान रहे कि ये सारे निवेश कृषि से जुड़े उत्पादों के लिए हैं और अधिकतर निवेशक बिहार के हैं. 2015 में राज्य निवेश बोर्ड के आंकड़ों को देखें, तो उसके द्वारा मंजूर किए गए कुल निवेश प्रस्ताव 250 करोड़ से ज्यादा नहीं हैं. इतने बड़े राज्य में ढ़ाई सौ करोड़ का निवेश ऊंट के मुंह में जीरा जैसा है. राज्य निवेश संवर्धन बोर्ड के गठन से ले कर अब तक जो आंकड़े सरकार के पास उपबल्ध हैं, उनके अनुसार पिछले 11 वर्षों में बिहार में कुल 4 हजार 800 करोड़ के निवेश हुए हैं. इस निवेश से अब तक राज्य में 314 इकाइयां कार्यरत हैं.
इन तमाम इकाइयों में 13 हजार लोगों को रोजगार मिला हुआ है. इस तरह देखें तो 11 करोड़ आबादी और क्षेत्रफल के लिहाज से दुनिया के अनेक देशों से ब़ड़े इस राज्य में पिछले 11-12 वर्षों में निजी क्षेत्र में महज 5 हजार करोड़ का निवेश हुआ है, जो मायूस करने वाला है. इन मायूसियों के वैसे तो अनेक कारण हैं, लेकिन कुछ सबसे महत्वपूर्ण वजहें ये हैं कि अब तक कोई बड़ा औद्योगिक समूह बिहार नहीं आया.