बिहार में लोकसभा से ले कर बिहार विधान सभा चुनाव 2020 तक की तैयारी शुरू हो चुकी है. नीतीश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग से ले कर राजद का सोशल इक्वेशन से ले कर भाजपा समेत तमाम दलों के निशान एपर अभी से दलित और पिछडे है. बिहार में ये दोनों वर्ग काफी महत्वपूर्ण है. ये जिधर जाएंगे, जीते उसी की होगी. लेकिन, सबसे बडा सवल है कि ये जाएंगे कहां?
एनडीए से नाराज दलितों को मनाने के भाजपा के प्रयास का कोई सकारात्मक नतीजा अब तक दिख नहीं रहा है. बिहार में दलित वोटरों पर भाजपा का जुड़ाव कभी सघन नहीं रहा है, पर दलितों के एक तबके पर रामविलास पासवान का गहरा असर है. करीब 13 वर्षों के अपने शासन काल में नीतीश कुमार इन समूहों के लिए काफी कुछ करने की बात कह रहे हैं, उन्होंने किया भी है.
इन समूहों का लगाव नीतीश कुमार की राजनीति से रहा है. लेकिन जीतनराम मांझी प्रकरण के बाद इसमें क्षरण हुआ है और अनेक महादलित समूहों पर मांझी का प्रभाव दिख रहा है. सो, नीतीश कुमार को इन वोटरों को गोलबंद करने के लिए मशक्कत करनी पड़ रही है. उनके इस अभियान के दो मकसद हैं. पहली तो उन्हें जद (यू) के साथ एकजुट करना और दूसरा, मांझी के असर को खत्म करना.
जद (यू) सूत्रों पर भरोसा करें, तो महीनों से जारी अभियान के बावजूद यह कहना कठिन है कि वे नीतीश के साथ खड़े हो गए हैं. बिहार की मौजूदा राजनीति में सूबे के करीब 40 प्रतिशत अतिपिछड़े वोटरों की पहली पसंद नीतीश कुमार ही हैं, पर यह भी सही है कि मांझी के उदय के बाद अतिपिछड़ों में भी अति विपन्न उनसे सहानुभूति रखने लगे हैं.
इन समाजिक समूहों में लालू प्रसाद की वक़त अब भी बनी हुई है. तेजस्वी अपनी मौजूदा यात्रा के दौरान इस मोर्चे पर भी ध्यान देंगे. जद (यू) की परेशानी यह भी है कि उसके नेतृत्व की सामाजिक संरचना में अतिपिछड़ों की भागीदारी कतई उल्लेखनीय नहीं है.
एनडीए का दूसरा बड़ा घटक भाजपा भी इन सामाजिक समूहों में पैठ बनाने की कोशिश कई वर्षों से कर रहा है. इस बार उसे भी कुछ न कुछ हासिल होने की उम्मीद दिखती है. ऐसे में इन सामाजिक समूहों के वोट का कितना हिस्सा कौन पाएगा, यह कहना कठिन है.