यह नैतिक दृष्टि से भले सही न हो, लेकिन ‘राज’ की दृष्टि से शायद बीजेपी का ‘मास्टर स्ट्रोक’ है। क्योंकि किसी ने अब तक टीके, दवा या जड़ी-बूटी आदि का इस्तेमाल राजगद्दी पर दोबारा काबिज होने के मकसद से नहीं किया या फिर ऐसा करना उसे नहीं सूझा। बिहार विधानसभा चुनाव के दो मुख्य मुद्दे अब तय हो चुके हैं। पहला तो ‘फ्री वैक्सीन’ और दूसरा ज्यादा से ज्यादा ‘बेरोजगारों को नौकरी।‘ पहले मुद्दे में जन स्वास्थ्य रक्षा की नैतिक प्रतिबद्धता के साथ एक खैराती भाव भी है तो दूसरे में उम्मीदों की गाजर है। मजे की बात यह है कि इस चुनाव में राज्य में तकरीबन 15 साल से ( बीच के दो साल माइनस कर दें) सत्ता पर काबिज जद यू- भाजपा गठबंधन यानी राजग अपने काम या उपलब्धियों पर वोट नहीं मांग रहा, बल्कि सपनों की वर्च्युअल डिलीवरी करने में लगा है। चुनावी सभाओं में जब विपक्षी महागठबंधन के मुख्य घटक राजद के नेता और भावी मुख्यमंत्री का सपना देख रहे तेजस्वी यादव ने सत्ता में आने पर प्रदेश के 10 लाख युवाओं को नौकरी देने का वादा किया तो तमाम बेरोजगार भीतर तक रोमांचित हो उठे। लगा कि इधर नई सरकार की शपथ हुई नहीं कि उधर अपाॅइंटमेंट लेटर की होम डिलीवरी पक्की। लोग समझ पाते कि ये 10 लाख नौकरियां कहां खाली हैं और कैसे भरी जाएंगी, इसके पहले ही भाजपा ने ‘ईंट का जवाब पत्थर से’ की तर्ज पर अपने संकल्प पत्र में नौकरियों की बोली दुगुनी करते हुए कहा कि सत्ता सूत्र फिर उसके हाथ आए तो 19 लाख बेकारों को नौकरी पक्की। यानी 10 लाख बेरोजगार तो पहली घोषणा से गदगद थे, भाजपा के ऐलान ने 9 लाख मंत्रमुग्ध चेहरे उसमें और जुड़वा दिए।
सवाल यह है कि करीब 12 करोड़ की आबादी वाले राज्य में इतने रोजगार आएंगे कहां से और कैसे? हकीकत यह है कि प्रदेश में सरकारी विभागों में जो पद खाली पड़े हैं, उन्हें ही सरकार भर नहीं पा रही है। उदाहरण के लिए पिछले दिनो लोकसभा में केन्द्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल ने बताया था कि स्कूल शिक्षकों के खाली पदों के मामले में बिहार देश में अव्वल है। वहां स्कूली शिक्षकों के 2 लाख 75 हजार 255 पद खाली हैं। इस सूची में दूसरे नंबर पर यूपी और मप्र चौथे नंबर पर है। जब ये पद बीते पांच साल में भी नहीं भरे जा सके तो सत्ता का राजदंड फिर हाथ में आते ही चुटकियों में कैसे भरे जाएंगे, यह समझने के लिए किसी डिकोडर की जरूरत नहीं है। यूं भी बिहार सरकार 19 हजार करोड़ रू. से ज्यादा के कर्जे में है। हालांकि तेजस्वी के नौकरी कार्ड का जवाब सत्तारूढ़ जद यू ने आंकड़ों के साथ दिया है। जिसमें दावा है कि पिछले 15 सालों में राज्य में अलग-अलग स्तरों पर 1 लाख 53 हजार 100 लोगों को सरकारी नौकरी दी गई। 61 हजार 491 को नौकरी देने की प्रक्रिया जारी है। उधर तेजस्वी का दावा है कि राजद की और से लांच ‘बेरोजगारी हटाओं पोर्टल’ पर अब तक साढ़े 9 लाख बेरोजगारों ने सीधे और 13 लाख से अधिक युवाओं ने मिस्ड काॅल दिया। तेजस्वी का यह भी गणित है कि राज्य में साढ़े 4 लाख पद पहले से खाली पड़े हैं। 5 लाख 50 हजार नौकरियां और देने की जरूरत है। उधर 19 लाख नौकरियां देने का संकल्प जताने वाली भाजपा ने अपने आंकड़े का कोई डिटेल ब्रेक अप नहीं दिया है। लेकिन इससे इतना तो समझा ही जा सकता है कि बेरोजगारों की संख्या उससे दोगुनी है, जो तेजस्वी ने बताई थी। खुद बिहार सरकार भी मानती है कि राज्य में बेरोजगारी दर 10.2 फीसदी है, जो राष्ट्रीय दर से करीब दो गुनी है। प्रवासी मजदूरों की घर वापसी ने इसे और गंभीर बना दिया है। जमीनी स्तर पर देखें तो बिहार की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि आधारित है। थोड़े बहुत उद्दयोग हैं भी तो वो फूड प्रोसेसिंग, डेयरी, चीनी और मैन्युफैक्चरिंग से सम्बन्धित हैं। खेती में काम की गुंजाइश कम है और उद्योगों का मामला तो और कठिन है। राज्य के इस वित्तीय वर्ष के बजट में सरकार किस मद पर कितना खर्च करेगी, इसकी जो जानकारी है, उसमें उद्योगों का कहीं उल्लेख नहीं है। और सरकारी नौकरी भी कितनो को दी जा सकती है? हालांकि राज्य के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने पिछले दिनो आर्थिक सर्वेक्षण का हवाला देते हुए कहा था कि बिहार की अर्थ व्यवस्था में पहले की तुलना में काफी सुधार आया है।
बिहार चुनाव में ‘नौकरियां बरसाने’ की इस नवाचारी घोषणा से भी कहीं ज्यादा हैरान करने वाला वादा ‘फ्री वैक्सीन’ का है। बीते दो दशकों में कई राज्यों में मतदाताओं को मुफ्तखोरी की लत लगाने वाली राजनीति का यह नया वैक्सीन एंगल है। ऊपरी तौर पर गलत इसे इसलिए नहीं कहा जा सकता कि जनता की स्वास्थ्य रक्षा की जिम्मेदारी सरकार की ही है। और फिर कोरोना जैसी महामारी का टीका सभी को मुफ्त में उपलब्ध कराना वैसे भी सरकार का काम है। लेकिन यहां महीन पेंच ये है कि वैक्सीन ‘मुफ्त’ में मिलेगा तो मगर ‘वोट’ देने के बाद। इसमें छिपी चेतावनी यह है कि अगर तुमने वोट नहीं दिया और हमे सत्ता नहीं मिली तो वैक्सीन-फैक्सीन गई चूल्हे में। फिर बाजार से लाओं और टीके लगवाओं। दरअसल इस ‘निष्पाप संकल्प’ की तुलना हमारे शहर में हर साल लगने वाली ‘जूते मुफ्त के भाव’ सेल से की जा सकती है। इस प्रचार में भोले ग्राहक की आंखें ‘मुफ्त’ शब्द तो उत्साह से पढ़ जाती हैं, लेकिन आखिरी लफ्ज ‘भाव’ को नजरअंदाज कर जाती हैं। जबकि पूरे वाक्य का भावार्थ यही होता है कि ‘मुफ्त’ के मायने ‘फ्री’ से नहीं, रियायती दर से है।
अब इसे बिहार की जनता को कोरोना से बचाने की सच्ची हमदर्दी कहें या फिर वोट मार्केटिंग की नई स्ट्रेटेजी कि जो मुफ्त में मिलना अपेक्षित है, उसे ही ‘फ्री’ में देने का वादा करके बीजेपी ने चुनावी संग्राम का रूख बदल दिया है। विरोधी दल भी बाकी मुद्दे छोड़ भाजपा को इसी पर घेरने में लग गए हैं। मतदाता को भी लगने लगा है कि रोटी, कपड़ा मकान मिले न मिले, वैक्सीन ही फ्री में मिल जाए तो किस बात का गम है। यूं बिहार में कोरोना से मौतें तुलनात्मक रूप से कम हैं और वहां कोरोना टेस्टिंग के आंकड़ों की प्रामाणिकता पर किसी को न तो विश्वास और न ही अविश्वास।
कोरोना की वैक्सीन कब आएगी,कैसे मिलेगी, इन सवालों का जवाब कुल इतना ही है कि भइया ठंड रखो। लेकिन वैक्सीन आने के पहले ही उसे पंजीरी की तरह ‘फ्री’ में बंटवाने का ऐलान भाजपा की नजर में चुनावी ‘गेम चेंजर’ है। क्योंकि इस अकेली घोषणा ने राज्य के बाकी पुराने मुददों को डस्टबिन में धकेल दिया है। यानी रोटी कपडा मकान मिले न मिले, एक ठो वैक्सीन ‘फ्री’ में मिल जाए तो किस्मत बदल जाए। और किस्मत का भरोसा तभी है, जब जान बची रहे।
जो लोग बिहार को करीब से जानते हैं,उन्हें पता है कि वहां चुनाव का असली और स्थायी मुद्दा तो जातिवाद ही है। बाकी सारे मुद्दे राजनीतिक सिंगार की माफिक होते हैं। जिसका जातियों का गणित फिट हो गया, वो चुनावी वैतरणी में तर गया। यह वास्तव में ‘बैक स्टेज अरेंजमेंट’ है, जिसका समुचित इंतजाम एनडीए ने कर लिया है। तिस पर ‘फ्री वैक्सीन’ वाला इंसेटिव भाजपा के पक्ष में काम कर गया तो हो सकता है कि इसकी पहली जरूरत नीतीश कुमार को ही पड़े। क्योंकि चुनाव नतीजे आने के बाद चौथी बार सीएम बनने के नीतीश के अरमानों को भाजपा का अपना सीएम बनाने का वायरस ‘संक्रमित’ कर सकता है। इसके लिए उसने चिराग पासवान के रूप में अपना इम्युनिटी बूस्टर पहले से तैयार रखा है। हालांकि यही खेल नीतीश भी महागठबंधन के साथ जाकर खेल सकते हैं, तब ‘फ्री वैक्सीन’ की जरूरत भाजपा को पड़ेगी।
अजय बोकिल
वरिष्ठ संपादक
‘‘सुबह सवेरे’