फैक्ट फाइल
- अररिया, जहानाबाद में दिवंगत नेताओं के पुत्र हैं राजद उम्मीदवार
- जदयू प्रत्याशी अभिराम को पिछली बार नहीं मिला था टिकट
- तीसरे स्थान पर रहे प्रदीप सिंह हैं अररिया से भाजपा प्रत्याशी
- 2014 की मोदी लहर में भी तस्मीमुद्दीन से हार गए थे प्रदीप
- दिवंगत विधायक की विधवा हैं भभुआ से भाजपा उम्मीदवार
- सांसद बनने के लिए जदयू छोड़ राजद में आए विधायक सरफराज
- कुशवाहा को छोड़ रालोसपा के अरुण गुट को साध रही भाजपा
बिहार में उपचुनाव की सरगर्मी अब परवान चढ़ेगी. सूबे में अररिया संसदीय के साथ-साथ जहानाबाद व भभुआ विधान सभा निर्वाचन क्षेत्रों के लिए ग्यारह मार्च को मतदान होना है. इन उपचुनावों के लिए सूबे के दोनों राजनीतिक ध्रुवों के उम्मीदवारों के साथ-साथ अन्य दावेदार मैदान में ताल ठोक रहे हैं. सत्तारूढ़ गठबंधन में अररिया व भभुआ भारतीय जनता पार्टी के हिस्से हैं, तो जहानाबाद सीट जद(यू) के खाते में दी गई है. विपक्षी महागठबंधन में अररिया व जहानाबाद से राजद ने अपने प्रत्याशी दिए हैं और भभुआ में कांग्रेस अपनी किस्मत आजमा रही है. इनके अलावा वामदलों व अन्य पार्टियों के उम्मीदवार भी मैदान में हैं. हालांकि तीनों उपचुनाव में पक्ष- विपक्ष के गठबंधन ही आमने-सामने की टक्कर में हैं. सत्तारूढ़ गठबंधन में जहानाबाद सीट को लेकर रोचक राजनीतिक खेल चलता रहा था. सत्तारूढ़ गठबंधन में जहानाबाद का मसला आप लें…, नहीं आप लें’ जैसा बन गया. उपचुनाव में भाग न लेने की सार्वजनिक घोषणा के बावजूद यह जद(यू) को थमा दिया गया. हालांकि भभुआ सीट को लेकर विपक्षी महागठबंधन में भी हल्का तनाव बना था. आखिरकार यह सीट कांग्रेस के हिस्से में दे दी गई.
चुनावी अखाड़े में दिवंगतों के सम्बन्धी
अररिया संसदीय क्षेत्र से राजद ने दिवंगत सांसद मोहम्मद तस्लीमुद्दीन के विधायक पुत्र सरफऱाज आलम को प्रत्याशी बनाया है. यहां उनका मुकाबला भाजपा के पूर्व सांसद प्रदीप सिंह से है, जो पिछले संसदीय चुनाव (2014 की मोदी लहर) में तीसरे स्थान पर रहे थे. जहानाबाद विधानसभा क्षेत्र से राजद ने दिवंगत मुन्द्रिका सिंह यादव के पुत्र सुदय यादव को टिकट दिया है. मुन्द्रिका सिंह यादव के निधन के कारण ही यहां उपचुनाव हो रहा है. यहां जद(यू) ने पूर्व विधायक अभिराम शर्मा को अपना उम्मीदवार बनाया है. पिछले चुनाव में अभिराम शर्मा से यह सीट लेकर नीतीश कुमार ने राजद को दे दी थी.
भभुआ में भाजपा ने दिवंगत विधायक की विधवा रिंकी रानी पांडे को उम्मीदवारी दी है. श्रीमती पांडे का मुकाबला कांग्रेस के शंभू सिंह पटेल से है. उम्मीदवारी देने में राजद हो या भाजपा, दोनों दलों ने सहानुभूति फैक्टर को ध्यान में रखा है. तस्लीमउद्दीन सीमांचल क्षेत्र के कद्दावर नेता रहे हैं. इसे भुनाने के लिए ही राजद ने सरफराज पर डोरे डाले और उन्हें जद(यू) से अपने पाले में झटक लिया. जहानाबाद में भी सुदय यादव की उम्मीदवारी का यही कारण था. भभुआ में भी भाजपा ने सहानुभूति फैक्टर का लाभ हासिल करने की रणनीति के तहत एक गृहिणी को मैदान में उतार दिया.
इस उपचुनाव को लेकर सत्तारूढ़ जद(यू)-भाजपा (एनडीए) के कई अंतर्द्वंद्व सामने आए. जद(यू) ने उपचुनाव की तारीख घोषित होने के साथ ही घोषणा कर दी कि इसमें वह अपने उम्मीदवार नहीं उतारेगा. औपचारिक तौर पर यह कहा गया कि इन तीनों में से कोई सीट जद(यू) की नहीं है, लिहाजा ये सारी सीटें वह अपने एनडीए सहयोगियों के लिए छोड़ रहा है. इस तर्क को उपचुनावों से किनारा करने की रणनीति के तौर पर लिया गया. आखिरकार दल के गले जहानाबाद की सीट डाल दी गई और उसने सहर्ष (भाजपा के एक आग्रह में ही) स्वीकार भी कर लिया. इस पूरे प्रकरण का एक पक्ष और है. जहानाबाद के जद(यू) उम्मीदवार अभिराम शर्मा बिहार की राजनीति के किस धनबली से जुड़े रहे हैं, यह लगभग सभी जानते हैं. यह धनबली जद(यू) के शीर्ष नेतृत्व के खास माने जाते हैं.
जहानाबाद विधानसभा सीट जद(यू) को इसलिए मिली कि एनडीए में भाजपा की हैसियत ‘बड़े भाई’ की है. एनडीए में यह सीट सामान्यतः राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) की बनती थी, पिछले विधानसभा चुनावों में उसके खाते में ही यह आई थी, लेकिन उसके साथ दो परेशानी थी. पहली परेशानी उसकी अपनी रही, तो दूसरी भाजपा की अघोषित रणनीति. रालोसपा गत विधानसभा चुनावों के कुछ महीनों बाद अहम की लड़ाई में दो धड़े में बंट गई है- एक धड़ा केन्द्रीय राज्यमंत्री उपेन्द्र कुशवाहा के साथ है, तो दूसरा धड़ा जहानाबाद सांसद अरुण कुमार के साथ. ऐसे में भाजपा ने दोनों को छोड़ पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) को अनौपचारिक तौर पर चुनाव लड़ने के लिए हवा दे दी.
मांझी तैयार भी हो गए, पर उनके साथ नया संकट पैदा हो गया. रालोसपा के जहानाबाद सांसद अरुण कुमार ने पहले तो अपने धड़े के लिए सीट पर दावा ठोक दिया, पर भाजपा के रुख को भांप कर बाद में हम के लिए दावा वापस ले लिया. पर उनकी अघोषित शर्त थी कि हम से यदि उनके भाई अनिल कुमार को प्रत्याशी बनाया जाए तो वे समर्थन करेंगे. अरुण कुमार जिस सामाजिक समूह से आते हैं उसकी वक़त बड़ी है. इस राजनीतिक माहौल में जीतनराम मांझी ने अपने दावे को स्थगित करना ही बेहतर समझा. सो, उन्होंने भाजपा को साफ मना कर दिया. हालांकि भाजपा ने मांझी को मनाने की कोशिश की, प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष नित्यानंद राय उनके घर तक गए, पर मांझी नहीं पिघले. जहानाबाद के सामाजिक समीकरण में उस दबंग सामाजिक समूह के असंतोष को झेल पाने में वे खुद को असमर्थ पा रहे थे, जिसका प्रतिनिधित्व सांसद अरुण कुमार करते हैं.
उपेंद्र जाएंगे अरुण आएंगे!
यह बात किसी से छुपी नहीं है कि केन्द्रीय राज्यमंत्री उपेन्द्र कुशवाहा की राजनीतिक गतिविधि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही नहीं, भाजपा सहित एनडीए के अनेक नेताओं को भी रास नहीं आ रही है. कुशवाहा के बनिस्बत वे जीतनराम मांझी ही नहीं, रालोसपा के दूसरे धड़े अर्थात् सांसद अरुण कुमार के नेतृत्व-को अधिक तरज़ीह देते दिखते हैं. किसी दौर में नीतीश कुमार के ‘अति प्रिय’ उपेन्द्र कुशवाहा को जद(यू) से बड़े बेआबरू होकर निकलना पड़ा था. लगभग यही गति रालोसपा के सांसद अरुण कुमार की भी हुई थी. दोनों ने मिलकर रालोसपा का गठन किया था और गत ससंदीय चुनावों से पहले भाजपा के उन्हीं प्रांतीय नेताओं की पहल पर रालोसपा को एनडीए में शामिल किया गया था.
विधानसभा चुनावों में कुशवाहा की पार्टी कोई जलवा नहीं दिखा सकी, एनडीए का प्रांतीय नेतृत्व इससे निराश हुआ. उसके बाद से भाजपा ही नहीं, एनडीए के अन्य घटक दलों के नेताओं ने भी उपेन्द्र कुशवाहा से किनारा करना शुरू कर दिया. नीतीश कुमार के साथ जुड़ने के बाद तो हालात अधिक ही बिगड़ गए. बिहार के सत्तारूढ़ गठबंधन का नेतृत्व उपेन्द्र कुशवाहा के राजनीतिक आचरण को सतर्कता से देख और परख रहा है. जहानाबाद को लेकर हालात ऐसे बन गए थे कि भाजपा या खुद उम्मीदवार देती या जद(यू) के पाले में गेंद डाल देती. उसने दूसरा विकल्प ही चुनना बेहतर समझा. भाजपा इस तोहमत से भी बच गई कि उसने सारी सीटें हथ़िया लीं और नीतीश कुमार को उनकी घोषणा से भी पीछे हटा लिया- एक तीर से दो शिकार.
बिहार के इन तीनों उपचुनाव के राजनीतिक निहितार्थ गहरे हैं. जद(यू) सुप्रीमो नीतीश कुमार ने कोई दो हफ्ते पहले ही कह दिया कि उपचुनावों के परिणाम से अगले चुनावों के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है. उनकी यह टिप्पणी राजस्थान उपचुनावों में भाजपा की करारी हार को लेकर थी, पर बिहार में ये उपचुनाव कुछ अधिक ही राजनीतिक मायने रखते हैं. बिहार में ऐतिहासिक राजनीतिक उथल-पुथल और सत्ता के स्थानान्तरण के बाद बिहार की सत्ता राजनीति की यह पहली बड़ी परिघटना होगी. इसमें सूबे के मतदाता- सीमित दायरे में ही सही- अपनी राय का इजहार करेंगे.
इस लिहाज से यह उपचुनाव नीतीश कुमार- भाजपा (व्यापक तौर पर एनडीए) के साथ-साथ राजद- कांग्रेस के महागठबंधन के लिए भी अग्निपरीक्षा है. यह इसलिए भी कि ये तीनों उपचुनाव सूबे के तीन हिस्से में है. अररिया सूबे के उत्तर-पूर्व हिस्से में है, तो भभुआ पश्चिम बिहार में और जहानाबाद मध्य बिहार में. यह सही है कि एक क्षेत्र के वोटर का रुख व्यापक रायशुमारी का आम पैमाना नहीं होता, पर यह कोई संकेत तो जरूर देता है. महागठबंधन के बिखराव और पराजित एनडीए के राजनीतिक लाभ-लोभ के माहौल में सत्ताधारी बन जाने को लेकर इन उपचुनावों में कोई राय तो जरूर सामने आएगी. हमें इसकी प्रतीक्षा रहेगी, शायद आपको भी.