चुनाव तो बिहार विधान परिषद की चार सीटों के लिए ही होने वाले हैं, लेकिन इससे पूरे सूबे की राजनीति में सरगर्मी आ गई है. सूबे के सत्तारूढ़ महागठबंधन का सबसे छोटा साझीदार कांग्रेस अपनी उपेक्षा से नाराज है और सबसे बड़े घटक राष्ट्रीय जनता दल को चुनौती देने के लिए ताल ठोक रहा है.
विपक्षी गठबंधन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के भी दो घटक राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) और लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) आमने सामने हैं. दोनों गठबंधनों की यह राजनीतिक तनातनी गौतम बुद्ध की ज्ञानभूमि गया में साफ देखने को मिल रही है. यह दिलचस्प है कि गया की ही दोनों सीटों को लेकर सूबे के दोनों गठबंधनों में उबाल है. गया स्नातक निर्वाचन क्षेत्र को लेकर एनडीए में कोई विवाद नहीं है, लेकिन गया शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र की उम्मीदवारी को लेकर लोजपा अड़ गई है.
महागठबंधन की ओर से इन दोनों सीटों पर राजद के प्रत्याशी हैं, जबकि स्नातक सीट पर कांग्रेस दावा करती रही है. लेकिन उसकी मांग को नजरअंदाज कर दिया गया. नतीजतन, उसने दोनों सीटों के लिए अपने प्रत्याशी घोषित कर दिए. महागठबंधन के सबसे इकबाली नेता और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व उनकी पार्टी जनता दल(यू) की तरफ से इस मामले में कुछ नहीं कहा जा रहा है. इधर एनडीए में भाजपा के सबसे बड़े नेता सुशील कुमार मोदी मामले को सुलझाने में लगे हैं.
परिषद के चार निर्वाचन क्षेत्रों, गया स्नातक, गया शिक्षक, कोशी शिक्षक और सारण स्नातक के लिए 9 मार्च को मतदान होना है. परिषद के सभापति अवधेश नारायण सिंह की उम्मीदवारी से यह चुनाव राजनीतिक तौर पर काफी महत्वपूर्ण हो गया है. वे कई बार से भाजपा प्रत्याशी के तौर पर गया स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव जीतते रहे हैं.
इस बार भी वे अपनी पार्टी के उम्मीदवार हैं और उनके साथ एनडीए के सभी दल हैं. लेकिन गया की दोनों सीटों के साथ-साथ कोशी शिक्षक और सारण स्नातक क्षेत्र के अन्य किसी भी प्रत्याशी का ऐसा सौभाग्य नहीं है. गया स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से अवधेश नारायण सिंह का मुकाबला पहले तो राजद के डॉ. पुनीत सिंह से होना था, लेकिन अब कांग्रेस के अजय कुमार सिंह की चुनौती भी उन्हें मिलेगी. गया शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र की बात करें, तो निवर्तमान पार्षद संजीव श्याम सिंह ने पिछला चुनाव निर्दलीय जीता था, लेकिन कुछ महीने पहले वे रालोसपा में शामिल हो गए.
इस लिहाज से यह सीट रालोसपा के खाते में गई. वहीं, लोजपा पिछले चुनाव में यहां दूसरे नंबर पर रही थी, इसलिए वह चाहती है कि उसे यहां से उम्मीदवारी मिले. रालोसपा की दावेदारी के बाद लोजपा ने एनडीए के शीर्ष नेताओं से आपत्ति दर्ज करवा दी. मामले ने तूल पकड़ा, तो रालोसपा सुप्रीमो उपेन्द्र कुशवाहा ने लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान से दिल्ली में बातचीत भी की. शुरू में तो सकारात्मक परिणाम की खबर आई.
लेकिन फिर क्या हुआ, किसी को पता नहीं चला. इसके बाद लोजपा के प्रदेश अध्यक्ष पशुपति कुमार पारस ने पार्टी के हितों की अनदेखी की बात करते हुए गया शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र से अपने प्रत्याशी की घोषणा कर दी. प्रो. डीएन सिन्हा ने नामजदगी का पर्चा दाखिल भी कर दिया. लोजपा की तरफ से उम्मीदवार उतारे जाने के बाद दोनों दलों रालोसपा और लोजपा के बीच किसी बातचीत की कोई खबर नहीं है.
इधर सुशील कुमार मोदी ने दावा किया है कि एनडीए में सीटों को लेकर कोई विवाद नहीं है और वे दोनों दलों के नेताओं के निरंतर संपर्क में हैं. खबर है कि इस समस्या के समाधान के लिए एनडीए के चौथे घटक हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के सुप्रीमो जीतन राम मांझी भी पहल कर रहे हैं. यह देखने वाली बात होगी कि लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान व उनके अनुज पशुपति कुमार पारस पर जीतन राम मांझी कितना असर डाल पाते हैं. इधर सारण स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से मांझी की पार्टी के नेता महाचंद्र प्रसाद सिंह अपना भाग्य आजमा रहे हैं.
महाचंद्र प्रसाद सिंह हालांकि परिषद चुनाव के चतुर पहलवान हैं, लेकिन चुनाव तो आखिर चुनाव ही है! दोनों गठबंधनों के बड़े भाइयों ने भी यह कहना आरंभ कर दिया है कि परिषद चुनाव से सत्ता की राजनीतिक सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता. इसमें दो राय नहीं कि विधान परिषद के चुनाव आम निर्वाचन के राजनीतिक तत्वों के वाहक नहीं होते, लेकिन सीमित दायरे में ही सही, ये उम्मीदवारों और घोषित दलों की तात्कालिक सामाजिक स्वीकृति को तो अभिव्यक्त करते ही हैं.
कांग्रेस को लगता है कि महागठबंधन के दोनों भाइयों, बड़े भाई लालू प्रसाद और छोटे भाई नीतीश कुमार ने उसकी अनदेखी की है. कांग्रेस पार्टी महागठबंधन के नेताओं को बताना चाहती है कि इस चुनाव से उसके भी हित जुड़े हुए हैं. गया स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस के अजय कुमार सिंह बराबर चुनाव लड़ते रहे हैं, जीते भी हैं. अवधेश नारायण सिंह को अजय कुमार सिंह कड़ी टक्कर देते रहे हैं. इसके बावजूद कांग्रेस के दावे को दरकिनार करते हुए इस सीट को राजद के खाते में डाल दिया गया.
लालू प्रसाद और उनकी पत्नी व पुत्रों के रुख ने कांग्रेस को और उत्तेजित कर दिया. कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार ने जब अवधेश नारायण सिंह के खिलाफ उम्मीदवार देने में अनिच्छा जाहिर की, तो राजद ने झटपट अपनी पार्टी के दिग्गज नेता जगदानंद सिंह के पुत्र डॉ. पुनीत सिंह को गठबंधन प्रत्याशी घोषित कर दिया. कांग्रेस ने जब इस सीट पर अपना दावा किया, तो राजद ने रुख कड़ा कर लिया. इसके बाद प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष और सूबे के शिक्षा मंत्री अशोक चौधरी ने कांग्रेस आलाकमान से बातचीत की और फिर दोनों सीटों से अपना उम्मीदवार उतारने की घोषणा कर दी.
गया स्नातक क्षेत्र से अजय कुमार सिंह और शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र से हृदय नारायण सिंह को कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार बनाया है. अब देखना है कि कांग्रेस का ये कदम किस हद तक राजद को परेशान करता है. इन सबसे नीतीश कुमार के लिए धर्मसंकट की स्थिति बन गई है. अब देखना यह है कि वे और उनका जद(यू) राजद को समर्थन देता है या कांग्रेस को. यह भी हो सकता है कि जद(यू) मौन साध ले.
देखा जाय तो सूबे में दोनों गठबंधनों, सत्तारूढ़ महागठबंधन और विपक्षी एनडीए के नेतृत्व ने गठबंधन धर्म को तरजीह नहीं दी. लगता है कि दोनों गठबंधनों के बड़े दलों ने अपने-अपने जूनियरों पर फैसले थोप दिए हैं. महागठबंधन में कांग्रेस और एनडीए में लोजपा की शिकायत रही है कि गठबंधन के दलों में सीट बंटवारे को लेकर कभी कोई बैठक नहीं हुई और उनकी राय नहीं ली गई.
हालांकि एनडीए की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा इसे स्वीकार नहीं करती. इधर महागठबंधन में भी सबसे बड़ी पार्टी राजद ने कह दिया कि मुख्यमंत्री की राय से ही सब कुछ तय किया गया है. अर्थात, महागठबंधन में कांग्रेस से पूछने की कोई जरूरत नहीं समझी गई.
जद(यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार या उनका दल कांग्रेस के प्रश्नों का जवाब देने के बदले खामोश रहना बेहतर समझता है. राजद के सुप्रीमो लालू प्रसाद ने साफ कर दिया है कि आगे गुंजाइश होने पर कांग्रेस के बारे में विचार किया जाएगा. अभी तो चार सीटें थी और हमने फिफ्टी-फिफ्टी बांट लिया. इतना ही नहीं, राबड़ी देवी ने तो यहां तक कह दिया कि कांग्रेस चुनाव लड़ने चिंता छोड़े और राजद के दोनों प्रत्याशियों की जीत के लिए मेहनत करे.
ऐसे तो गठबंधन के छोटे दलों के प्रति नेतृत्वकारी दलों के राजनीतिक आचरण विधानसभा चुनावों के बाद से ही सवालों के घेरे में हैं, लेकिन विधान परिषद चुनावों ने तल्खी को और उजागर कर दिया है. दोनों गठबंधनों में से किसी ने भी आंतरिक मुद्दों को सुलझाने के लिए किसी समिति के गठन की जरूरत नहीं समझी. पूछने पर उनका जवाब होता है कि इसकी क्या जरूरत है. हालांकि यह भी तय है कि संवादहीनता से किसी का लाभ नहीं होगा ना लालू का, ना नीतीश का और ना ही भाजपा का.