प्राथमिक से लेकर उच्च माध्यमिक विद्यालयों तक के नियोजित शिक्षकों को बैंक द्वारा नियमित रूप से वेतन भुगतान करने की सरकारी योजना अब तक पूरी तरह कार्यान्वित नहीं हो सकी है, जबकि यह कवायद दो वर्षों से जारी है. नियोजित शिक्षकों को पंचायतीराज संस्थाओं के माध्यम से वेतन भुगतान करने की व्यवस्था लालफीताशाही का शिकार बन चुकी है. शिक्षकों को छह माह से वेतन का चांद नज़र नहीं आ रहा है. ऐसे में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात बेमानी हो चुकी है. शिक्षकों द्वारा सेवा स्थायी करने की मांग को लेकर राज्यव्यापी धरना-प्रदर्शन ने भी मांझी सरकार की कश्ती डुबोने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.
राज्य सरकार ने पिछले साल घोषणा की थी कि प्राथमिक से लेकर उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों तक के शिक्षकों को उनके पदस्थापन ज़िले के चिन्हित बैंक के माध्यम से वेतन दिया जाएगा, मगर यह योजना आंशिक रूप से ही क्रियान्वित हो सकी है. निर्णय के तहत तमाम नियोजन इकाइयों द्वारा अपने बैंक खाते संबंधित बैंक में खोले जाने थे और उन्हें शिक्षकों को वेतन भुगतान के लिए एक स्टैंडिंग एडवाइस भी संबंधित बैंक को देनी थी, लेकिन सब कुछ कछुवा गति से चल रहा है और शिक्षक हाल-बेहाल इधर से उधर दौड़ लगा रहे हैं. शिक्षा विभाग ने ज़िलास्तरीय अधिकारियों को इस संदर्भ में कई स्मरण पत्र भी भेजे, लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी. शिक्षा विभाग ने फरवरी माह तक सभी शिक्षकों का बैंक खाता खोलने का निर्देश दिया था, लेकिन यह काम आज तक पूरा नहीं हो सका.
उधर अस्थायी शिक्षक अपनी सेवा स्थायी करने और सरकारी वेतनमान देने के लिए दबाव डाल रहे हैं. उनका तर्क है कि समान कार्य के लिए समान वेतन मिलना चाहिए. मा़ैके की नजाकत देखते हुए विपक्षी दल भाजपा इस मुद्दे को भुनाने में जुट गई है. भाजपा के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी अस्थायी शिक्षकों की सेवा स्थायी करने की मांग कर रहे हैं. हैरानी की बात यह है कि मोदी जब खुद उप-मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने सरकारी वेतनमान देने और सेवा स्थायी करने की मांग मानने से साफ़ इंकार करते हुए कहा था कि सरकार के खजाने में पैसे नहीं हैं. अब जदयू से अलग होने के बाद विधानसभा चुनाव में शिक्षकों का समर्थन जुटाने की खातिर उन्होंने पैतरा बदल लिया है.
आधिकारिक सूत्रों के अनुसार, राज्य सरकार को तीन वर्ष के अंदर तीन लाख शिक्षक नियोजित करने थे, लेकिन अभी तक एक लाख शिक्षकों का भी नियोजन नहीं हो सका. विभाग के प्रवक्ता आर एस सिंह के अनुसार, अब सारी अड़चनें समाप्त हो गई हैं और नियोजन प्रक्रिया शीघ्र शुरू हो जाएगी. लेकिन कब तक? इसका जवाब विभाग के पास नहीं है. हालत यह है कि पूर्व में नियोजित सभी शिक्षकों के प्रमाण-पत्रों का अभी तक सत्यापन नहीं हो सका. खुद विभागीय अधिकारी मानते हैं कि बड़ी संख्या में शिक्षक फर्जी प्रमाण-पत्र के आधार पर नौकरी कर रहे हैं. विगत वर्षों में लाखों शिक्षकों के नियोजन के बावजूद छात्र-शिक्षक अनुपात 58:1 है, जबकि शिक्षा का अधिकार अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार यह अनुपात 30:1 होना चाहिए. ग़ौरतलब है कि संविधान की धारा 21 ए के तहत 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए शिक्षा एक मौलिक अधिकार है. नए स्कूल खुले हैं, प्राथमिक विद्यालयों का मध्य विद्यालयों में उत्क्रमण भी हुआ है, लेकिन छात्र-शिक्षक अनुपात में कोई सुधार नहीं हुआ.
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