औद्योगिक क्रांति इंग्लैंड में ही क्यों हुई? भारत, चीन एवं जापान जैसे प्राकृतिक संपदा संपन्न राष्ट्रों में क्यों नहीं हुई? यह महत्वपूर्ण मुद्दा बीते दिनों दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय थिंक टैंक क्लब ऑफ रोम एवं डेवलपमेंट अल्टरनेटिव्स द्वारा ग्रहों की सीमाओं से परे और राष्ट्रीय क्षमता(इशूेपव श्रिरपशींरीू र्लेीपवरीळशी पश्रळाळींशव परींळेपरश्र शपींळरश्र) विषय पर आयोजित दो दिवसीय सेमिनार के दौरान चर्चा का केंद्र बन गया.
देश-विदेश से आए क़रीब एक सौ विशेषज्ञों ने इंडिया-2047 एवं वर्ल्ड-2052 डॉक्यूमेंट्स पर खुलकर विचार व्यक्त किए. ग़ौरतलब है कि इन डॉक्यूमेंट्स के लेखक जारगेन रेंडर्स ही ने चालीस वर्ष पूर्व आगे बढ़ने की सीमाएं (ङळाळी ॠीेुींह) नामक चर्चित पुस्तिका लिखकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सभी को चौंका दिया था. दरअसल, प्रथम पुस्तिका से पृथ्वी एवं संसार के अस्तित्व के बारे में अनेक प्रश्न खड़े हो गए थे. अब वर्ल्ड-2052 एवं इंडिया-2047 में लेखक ने उन्हीं प्रश्नों के जवाब देते हुए हल सुझाए हैं और कहा है कि अगर इन पर उचित ध्यान दिया जाए, तो विश्व पर मंडराता ख़तरा टल सकता है. जारगेन रेंडर्स ने अपनी प्रथम पुस्तिका में आठ प्रकार की चुनौतियों का वर्णन किया था, जिनमें एक चुनौती यह थी कि कई दशकों से अत्यधिक उपभोग में बढ़ोत्तरी
(र्जींशीलेर्पीीािळेप डर्श्रिीीसश) हो रही है. दूसरी चुनौती यह कि पृथ्वी अपनी क्षमता एवं ऊर्जा के लिहाज से अपने अंत की ओर बढ़ रही है, क्योंकि मानव समाज को बायोस्फेयर की जितनी आवश्यकता है, वह पृथ्वी पर इस समय मात्र साठ प्रतिशत ही उपलब्ध है. तीसरी चुनौती यह है कि 2040 में विश्व की आबादी 8 बिलियन से भी ऊपर पहुंच जाएगी. चौथी चुनौती यह है कि विश्व में जीडीपी तो बढ़ेगी, परंतु 186 निर्धन देशों में स्थिति बेहतर न होने के कारण बहुत ही दयनीय हो जाएगी. इन्हीं चुनौतियों में एक यह भी है कि अमेरिका एवं अन्य ओईसीडी (आर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट) राष्ट्र आर्थिक मंदी के शिकार हो जाएंगे.
2052 के इस अवलोकन में सबसे अच्छी बात तो यह है कि जिन राष्ट्रों के आर्थिक तौर पर विश्व शक्ति के रूप में उभरने की भविष्यवाणी की गई है, उन 16 राष्ट्रों में भारत भी शामिल है, लेकिन साथ ही साथ इस ओर भी इशारा किया गया है कि उस समय विश्व में 3 बिलियन लोग अति निर्धन की श्रेणी में होंगे. रेंडर्स की व्याख्या से यह अंदाजा होता है कि विश्व किधर जा रहा है? हमें जिंदा रहने के लिए किस प्रकार की दुनिया की आवश्यकता है? क्या हमारी मुख्य सामाजिक व्यवस्थाएं पूंजीवाद और लोकतंत्र अपनी वर्तमान अवस्था में हमें समानता एवं सुदृढ़ विश्व की ओर ले जा पाएंगे? क्या ये इन चुनौतियों से निपटने में सक्षम हैं? इस व्याख्या में भारत का मात्र उल्लेख ही नहीं है, बल्कि उसे आर्थिक रूप से विश्व शक्तियों में गिना जा रहा है. यही कारण है कि 1947 में देश को आज़ादी मिलने के बाद से अब तक 66 वर्षों में विभिन्न क्षेत्रों की स्थितियों का पूर्ण रूप से जायजा लेते हुए आज़ादी के सौ वर्ष पूरे होने पर उस समय की स्थिति का अनुमान लगाया गया है. भारत निस्संदेह अपनी प्राकृतिक संपदा के लिहाज से बहुत ही धनी राष्ट्र है, लिहाजा यह प्रश्न स्वाभाविक है कि आख़िर यहां औद्योगिक क्रांति क्यों नहीं हुई?
इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत ने आज़ादी के बाद से छह दशकों में विभिन्न क्षेत्रों में असाधारण विकास किया है. फूड प्रोडक्शन में चार गुना बढ़ोत्तरी हुई है, औद्योगिक विकास दस गुना ज़्यादा हुआ है और बिजली के उत्पादन में 16 गुना वृद्धि हुई है. हमारे देश में करोड़ों लोग आज पूर्व की किसी भी पीढ़ी से बहुत ही अच्छी हालत में हैं और शायद इनमें से कुछ लोग विकसित राष्ट्रों के नागरिकों की तरह जीवन भी बिता रहे हैं और ऐशो-आराम की ज़िंदगी गुजार रहे हैं. यही कारण है कि भारत की गिनती आज विश्व के दस आर्थिक शक्तिशाली राष्ट्रों में होती है. लेकिन, इन तमाम सकारात्मक नतीजों के साथ-साथ नकारात्मक पहलू भी अनगिनत हैं. सच तो यह है कि एक मोर की भांति भारत जब अपने पैरों को देखता है, तो उसे शर्म आती है कि वे उस बदतर स्थिति में आज क्यों हैं, जिसमें उन्हें नहीं होना चाहिए. यह बात भी किसी से ढकी-छिपी नहीं है कि विभिन्न राजनीतिक विचारों एवं आर्थिक नीतियों को आजमाने के बावजूद यह राष्ट्र विभिन्न क्षेत्रों में बहुत पीछे है. सबसे खराब बात तो यह है कि यहां नागरिकों के बीच घोर असमानता है, जो आर्थिक (संपत्ति/आय) एवं सामाजिक (पारदर्शिता/न्याय), दोनों ही रूप में है. यही नहीं, उस बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा की जबरदस्त बर्बादी हो रही है, जिस पर वर्तमान अर्थव्यवस्था एवं राष्ट्र का भविष्य निर्भर करता है. उपरोक्त डॉक्यूमेंट्स के अनुसार, भारत में 70 खरबपति एवं 150 हज़ार करोड़पति हैं, जो देश की कुल संपत्ति के 85 प्रतिशत हिस्से के स्वामी हैं. जबकि यहां 45 करोड़ भूखे एवं अस्वस्थ लोग रहते हैं. इस बात पर निर्भर करते हुए कि एक व्यक्ति कौन सी ग़रीबी रेखा का चयन करता है, भारत में 250 से लेकर 750 मिलियन निर्धन मौजूद हैं. निर्धनता के ये आंकड़े ऐसे हैं, जिन पर किसी विशेषज्ञ का चौंकना लाजिमी है. हमारे देश में सामाजिक अन्याय को राजनीतिक पार्टियां रेडिमेड वोट बैंक के तौर पर कैश कराने की सोच रखती हैं. भ्रष्टाचार ने हमारे समाज में जबरदस्त विभाजन पैदा कर दिया है, जिससे हमारी संस्थाओं में गहरी व्यवस्थागत खराबी आ गई है. यही कारण है कि आज देश के बड़े हिस्से अलग-थलग पड़े हैं और वे राष्ट्र निर्माण में कोई भूमिका नहीं निभा पा रहे हैं. हमारे जंगलों की बर्बादी, नदियों एवं झरनों के सूखने और मिट्टी के क्षरण के साथ-साथ पर्यावरणीय गिरावट से जबरदस्त ख़तरा पैदा हो चला है. आज संसार में बुनियादी ढांचे में परिवर्तन हो रहा है. वर्ष 2000 से प्राकृतिक संपदा की दुनिया में रुकावटें पैदा हो रही हैं. इसलिए आज ज़रूरत है चिंतन-मनन की, गुड गवर्नेंस की और अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए विशेष उपाय करने की. यह बहुत बड़ा सवाल है कि प्राकृतिक संपदा का अंबार होने के बावजूद भारत में निर्धनता इतनी अधिक क्यों है?
जारगेन रेंडर्स ने चौथी दुनिया द्वारा पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में बताया कि भारत पर अलग से डाक्यूमेंट इंडिया-2047 तैयार करने का मकसद यह है कि वर्तमान शताब्दी में इसकी सुपर पॉवर की भूमिका होगी. अतएव यह आवश्यक है कि इसकी आज़ादी के एक सौ वर्षों का अवलोकन किया जाए. यही राय कमोबेश अशोक खोसला एवं दीपक नैय्यर की थी. इन सब बातों से अंदाजा होता है कि विश्व की नज़र भारत पर विशेष रूप से है और विश्व हरित क्रांति के बाद 21वीं शताब्दी में यहां औद्योगिक क्रांति का सपना देखता है. सवाल है कि क्या विश्व का यह सपना कभी साकार होगा?
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