एक उदारवादी कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का अहम पहलू यह भी है कि वह विकास का समान बंटवारा सुनिश्चित करता है. इसी में एक अहम उपाय रोज़गार गारंटी योजना है, जो वंचित तबके के लिए पूर्व निर्धारित दरों पर न्यूनतम कार्य दिवसों पर रोज़गार की उपलब्धता सुनिश्चित करती है. इसी उद्देश्य के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (नरेगा) देश के सभी जिलों में लांच की गई. समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम(आईआरडीपी), सामुदायिक विकास कार्यक्रम और स्वर्ण जयंती जवाहर रोज़गार योजना समेत ऐसी तमाम योजनाएं पूर्व में आ चुकी हैं, जिनमें रोज़गार या भोजन के एवज में काम का प्रावधान था. इन तमाम योजनाओं को लागू करने के दौरान जो कठिनाइयां आईं, या अनुभव हुए, उन्हीं से नरेगा पैदा हुआ.
       इसके बाद से तमाम विश्लेषक इस अग्रणी रोज़गार गारंटी कार्यक्रम को और ठोस बनाने के लिए तमाम सुझावों के साथ सामने आ चुके हैं. इस लेखक ने हाल ही में ऐसा एक आलेख पढ़ा, जिसमें सुझाव दिया गया था कि सरकार द्बारा रोज़गार योजनाओं के बजाय नियोक्ता को रोज़गार सब्सिडी देनी चाहिए. आलेख लिखने वाले का मानना था कि इससे ज़्यादा तेज़ी से रोज़गार के अवसर पैदा होंगे.
इस आलेख में नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर एडमंड फेल्पस का हवाला देते हुए कहा गया था कि यूरोप और अमेरिका में भी ऐसी योजनाएं चलती हैं, लेकिन असली ग़रीब हमेशा किनारे छूट जाता हैं. हक़ीक़त यह है कि सामाजिक ख़र्च समस्या को और गंभीर बना देता है, क्योंकि यह काम के भत्ते कम करता है और निर्भरता व मूल अर्थव्यवस्था से अलगाव की संस्कृति को जन्म देते है. साथ ही श्रम शक्ति की भागीदारी को कमतर करता है और रोज़गार व श्रमिक की वफादारी को भी घटाता है.
       प्रोफेसर फेल्पस इसका एक विकल्प सुझाते हुए कहते हैं कि कम मज़दूरी वाले रोज़गार के लिए सब्सिडी एक सबसे बेहतर उपाय है. यह रोज़गार उपलब्ध कराने वाले नियोक्ता को दी जाए, जिससे रोज़गार पर कंपनी के होने वाले ख़र्च में कटौती होगी. वेतन पर ख़र्च जितना ज़्यादा होगा, सब्सिडी उतनी ही कम होती जाएगी. यह तब तक जारी रहे, जब तक शून्य की दर पर न आ जाए. वेतन से जुड़ी ऐसी सब्सिडी नियोक्ताओं के बीच में अधिक से अधिक लोगों को काम पर लेने के लिए प्रतिस्पर्धा पैदा करेगी. इससे बेरोज़गारी में गिरावट आएगी.
      यह माना जाता है कि फेल्पस द्बारा सुझाई गई योजना से पैदा होने वाला रोज़गार अर्थव्यवस्था पर भार की जगह एक निधि होगी. आईआईएम के प्रोफेसर भरत झुनझुनवाला का विश्वास है कि ़िफलहाल रवैया यही है कि शहरी व्यावसायिक संस्थानों पर थोपा गया टैक्स ग्रामीण भारत पर ख़र्च किया जाता है. शहरी व्यवसायियों पर पड़ने वाले टैक्स के बोझ का फल सुदूर गांव में बैठे लोगों को मिलता है. बिज़नेस सेक्टर को ऊंचे वेतन-भत्तों का बोझ उठाना पड़ता है. गांव में रोज़गार की उपलब्धता असल में कामगारों को श्रम की अतिरिक्त उपलब्धता से श्रम की किल्लत वाले क्षेत्र में अंतर पैदा करने का काम करती है.
      असल में प्रोफेसर फेल्पस द्बारा प्रस्तावित विकल्प भारतीय संदर्भों में उतना प्रभावशाली सिद्ध नहीं हो सकता. अगर शुरू से बात करें तो विकसित देशों में इस तरह की रोज़गार गारंटी योजनाओं की विफलता के बावजूद वहां की सरकारें प्रोफसर फेल्पस द्बारा सुझाई गई रोज़गार सब्सिडी जैसी कोई चीज़ लागू नहीं कर सकी हैं. हक़ीक़त यह है कि पचास साल से भी ज़्यादा समय से विकसित दशों में इस तरह की रोज़गार गारंटी योजनाएं चल रही हैं. प्रोफेसर फेल्पस का प्रस्ताव असल में ख़ामियों का पुलिंदा है और किसी की सोच से भी ज़्यादा भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे सकता है. असल में यह रोज़गार के अवसरों में इजाफे का वादा नहीं करता. पहली और सबसे बड़ी द़ि़क्क़त यही है कि कोई भी फर्म ़फर्ज़ी तरीक़े से वेतन-भत्तों के नाम पर सब्सिडी हासिल कर सकती है. नियोक्ता बेईमानी पर उतर आए तो रोज़गार के नए अवसर पैदा करने की जगह धोखाधड़ी करके सब्सिडी हड़प जाएंगे. अगर हम प्राइवेट सेक्टर की कुल श्रम शक्ति का डाटाबेस तैयार भी कर लेते हैं, तब भी हमारे पुराने अनुभव बताते हैं कि इस तरह किसी भी डाटाबेस में सेंध लगाना संपन्न लोगों के लिए कितना आसान है.
       नियोक्ता को सब्सिडी देकर रोज़गार पैदा करने वाली कोई भी प्रणाली बहुत जटिल होगी और इसके दिशाहीन हो जाने की पूरी आशंका बनी रहेगी. निश्चित तौर पर बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों को ऊंची कर दरों में छूट देने की और कोई ज़रूरत नहीं है. क्योंकि अच्छा प्रदर्शन करने वाले संस्थानों के लिए कई योजनाएं और छूट पहले से लागू हैं. इतना कर देने के बावजूद ये संस्थान इतना मुना़फा कमा रहे हैं कि मंदी के दौर में भी दुनिया भर के नामी संस्थानों का अधिग्रहण कर रहे हैं. हमारा कर और छूट का ढांचा दुनिया के सबसे बेहतरीन ढांचों में से एक है. इस तरह की आशंका भी निरर्थक है कि ऐसी रोज़गार गारंटी योजनाओं से सरकार पर निर्भरता बढ़ेगी. मौजूदा प्रणाली असल में प्रोत्साहन आधारित पारदर्शी प्रणाली है, जिसमें कोई भी ज़्यादा काम का कामगार दूसरे के मुकाबले ज़्यादा कमा सकता है. दूसरे, यह बात भी गले नहीं उतरती कि शहरों की क़ीमत पर गांवों पर पैसा लुटाया जा रहा है. शहरों में आवश्यक सेवाओं का स्तर हमेशा से अच्छा रहा है. रोज़गार गारंटी योजना न स़िर्फ एक परिवार के एक वयस्क के लिए कम से कम सौ दिन रोज़गार उपलब्धता सुनिश्चित करती है, बल्कि ग्रामीण अंचल में आधारभूत ढांचे का निर्माण और विकास भी सुनिश्चित करती है.
         माना जाता है कि इस तरह के आधारभूत ढांचे का ग्रामीण इलाक़े में निर्माण लोगों का शहरों की ओर पलायन रोकेगा. इसके साथ ही ये शहरी और ग्रामीण इलाक़े के बीच बढ़ती सामाजिक और आर्थिक खाई को भी पाटेगा. यह माना जाता है कि शहरी इलाक़ों में वेतन बढ़ते रहना चाहिए, जिससे पलायन थमेगा और ग्रामीण इलाक़े के कामगारों की उपलब्धता कम होगी. जब कम लोग ज़्यादा काम के लिए प्रतिस्पर्धा करेंगे, तो शहरी इलाक़ों को ़फायदा होगा और मांग व आपूर्ति के बदलते ढांचे के कारण कम से कम ग्रामीण लोग शहर आएंगे.
         यह आशंका भी निराधार है कि कम मज़दूरी वाले कामगारों की घटती उपलब्धता के कारणा शहर में उद्योग बंद हो जाएंगे या उन्हें गांवों का रुख़ करना होगा. जब हम उदारीकरण और वैश्वीकरण की बात करते हैं तो इस बात का कोई कारण समझ नहीं आता कि अधिक वेतन के कारण कोई उद्योग बंद हो जाएगा.
          और अगर कोई उद्योग सस्ते श्रम वाले इलाक़ों का रुख़ करता है तो स्वाभाविक है कि वह कम विकसित इलाक़ा होगा. उद्योगों का यह पलायन उस इलाक़े के आधारभूत ढांचे और जीवन स्तर में सुधार में सहायक होगा. एक बार ऐसा हुआ, तो उस इलाक़ेमें भी वेतन में बढोतरी करना मजबूरी होगी. यह चक्र तब तक चल सकता है, जब तक देश में विकास का वितरण समान न हो जाए. सरकार को उद्योगों को ऐसे इलाक़ों में पलयान के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए.
         मौजूदा रोज़गार गारंटी योजना को लेकर यह डर भी ग़ैरवाजिब है कि श्रम शक्ति की भागदारी को घटाएगा. पूरे देश का अनुभव बताता है कि श्रम शक्ति की भागदारी बढ़ी है और प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ी है. यह देश के विकास के अन्य सूचकों के लिए सहायक साबित होगा. सबसे बड़ी बात यह कि रोज़गार गारंटी योजना मंदी के ख़तरों से अछूती है. अगर यह किसी नियोक्ता की बात होती तो वह मांग में कमी से उत्पादन घटाता और रोज़गार कम होता.
       रोज़गार सब्सिडी योजना के तहत ज़्यादा कुशल लोगों को रोज़गार देने की बात भी ख़ासी समस्या पैदा करने वाली है. असल में यह हक़ीकत की जगह हवाई कल्पना है. यह धारणा भी ठीक नहीं है कि रोज़गार सब्सिडी से सीधे-सादे, अनपढ़ और अकुशल लोगों को ज़्यादा बेहतर मौके मिलेंगे और वह एक उद्योग से दूसरे उद्योग का रुख़ कर सकेंगे. असल में इससे शोषण का ख़तरा पैदा हो जाएगा. बड़े उद्योग असहाय मज़दूरों का फायदा उठाएंगे. अकुशल होने के नाम पर कम मज़दूरी देंगे. साथ ही उन्हें ख़तरनाक परिस्थितियों में काम करने पर मजबूर किया जाएगा.
         अधिकतर कॉरपोरेट संस्थानों में कम से कम इतनी ज़िम्मेदारी का अहसास नहीं जागा है कि वे किसी ग़ैर अनुभवी और अकुशल श्रमिक को रोज़गार देंगे और फिर उसे पढ़ाएंगे, लिखाएंगे और ज़्यादा बेहतर मौके देंगे.  ज़रूरत इस बात की है कि रोज़गार गारंटी योजनाओं का दायरा बढाया जाए और इन्हें विविध क्षेत्रों में लागू किया जाए. इससे लोगों को बेहतर वेतन और मौके उपलब्ध होंगे.
संविधान के दिशा- निर्देशक तत्वों में काम के संवैधानिक अधिकार का भी प्रावधान किया गया है. लेकिन इसे हक़ीक़त बनाने में पांच दशक लग गए. यह हक़ीकत है कि चुनिंदा जिलों में रोज़गार की गारंटी देने वाला नरेगा कार्यक्रम अब देश के सभी जिलों में लागू कर दिया गया है. यह बहुत बड़ी उपलब्धि है. यह धारणा भी ग़लत है कि मौजूदा योजना के मुक़ाबले सुझाया गया रोज़गार सब्सिडी वाला विकल्प भ्रष्टाचार से मुक्त है. मौजूदा योजना में जॉब कार्ड के साथ ही प्रार्थनापत्र मिलने के पंद्रह दिन के अंदर रोज़गार उपलब्ध कराने के लिए ज़िम्मेदारी तय की गई है. अगर रोज़गार या बेरोज़गारी भत्ता नहीं दिया जाता, तो सोशल ऑडिट की व्यवस्था है. जॉब कार्ड, मस्टर रोल का सार्वजनिक प्रदर्शन और सोशल व फाइनेंशियल ऑडिट योजना को ज़्यादा पारदर्शी और जवाबदेह बनाता है. सूचना के अधिकार बाकी खामियों पर नज़र रखने के लिए काफी हैं. हां, यह सही है कि सुधार की काफी गुंजाइश है. फील्ड से मिलने वाली शिकायतों और सुझावों को ध्यान में रखकर योजना को और ज़्यादा प्रभावी बनाया जाना चाहिए. प्रोफेसर फेल्पस के सुझाव को भी पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर कुछ चुनिंदा क्षेत्रों में लागू करके देखा जा सकता है. ज़्यादा बेहतर होगा कि दोनों में से किसी एक विकल्प पर पूरी तरह निर्भर होने के बजाय हमें दोनों के मिश्रण से ज्यादा प्रभावी विकल्प का विकास करना चाहिए.
       पूंजीवादी व्यवस्था की विफलता के बाद यह बात मानी जा चुकी है कि सामाजिक ज़िम्मेदारियों को हम पूरी तरह बाज़ार की शक्तियों के हवाले नहीं कर सकते. सरकार को पूरी तरह से सामाजिक ज़िम्मेदारियों से अलग करना कोई विकल्प नहीं है. सरकार को एक नियामक के तौर पर बने रहना होगा. उसकी ज़िम्मेदारी क़ानून-व्यवस्था, न्याय और समतापूर्ण समाज के निर्माण की होनी चाहिए. रोज़गार सब्सिडी जहां प्राइवेट सेक्टर के हवाले होगी, स़िर्फ इस नाते उसे रोज़गार गारंटी पर तरजीह नहीं दी जा सकती है.

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