20140404-IK--Shahi-Imam--02उत्तर प्रदेश में तमाम राजनीतिक दलों के सूरमा विरोधियों से अधिक अपनों को चोट और ठेस पहुंचा रहे हैं. कोई पार्टी में रहकर बगावती तेवर अपनाए हुए है, तो कई ने पाला बदल कर मुश्किलें खड़ी कर रखी हैं. कांग्रेस हलकान है कि जब उसे अपने दिग्गजों की सबसे अधिक ज़रूरत है, तब वे भाजपा एवं सपा की गोद में बैठने को आतुर हैंैं. सपा प्रमुख को जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी, पश्‍चिमी उत्तर प्रदेश के बड़े नेता सोमपाल शास्त्री, सांसद बृजभूषण शरण सिंह, दरोगा प्रसाद सरोज एवं सांसद जयाप्रदा जैसे नेताओं की बेवफाई रह-रहकर सताती रहती है. बसपा और राष्ट्रीय लोकदल भी इससे अछूते नहीं हैं. बसपा नेता एवं पूर्व मंत्री अशोक दोहरे, पूर्व मंत्री ओमवती, यशवंत सिंह, रालोद के गजेंद्र सिंह मुन्ना, बाबू लाल एवं मुंशीराम पाल जैसे नेताओं ने ऐन वक्त पर पाला बदल कर अपने पुराने दलों की पीठ में छूरा भोंकने का काम किया. आम आदमी पार्टी के कई नेताओं ने चुनावी संध्या में पार्टी से नाता तोड़ लिया, तो कई आप प्रत्याशी ऐन मौ़के पर चुनाव मैदान से ही भाग खड़े हुए. मोदी लहर के कारण भारतीय जनता पार्टी ज़रूर इससे काफी हद तक अछूती रही. भाजपा से उन्हीं नेताओं ने दूरी बनाई, जिनकी मोदी की हवा में दाल नहीं गल पा रही थी. यह संख्या भी नहीं के बराबर है, परंतु इसका मतलब यह कतई नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी में मोदी लहर के सामने सब ठीक चल रहा है. उत्तर प्रदेश भाजपा में कई ऐसे नेता हैं, जिन्होंने पार्टी से नाता भले ही नहीं तोड़ा है, लेकिन पार्टी के भीतर रहकर वे बगावत का झंडा बुलंद किए हुए हैं और विरोध का कोई भी मौक़ा नहीं छोड़ते. लाल जी टंडन, सूर्य प्रताप शाही, केसरी नाथ त्रिपाठी एवं मुरली मनोहर जोशी इसकी ताजा मिसाल हैं. भाजपा के बड़े नेता कहलाने वाले मुरली मनोहर जोशी द्वारा मोदी और गुजरात मॉडल को लेकर हाल में की गई बेबाक टिप्पणी से भाजपा आलाकमान बैकफुट पर आ गया है, वहीं विरोधियों की बल्ले-बल्ले हो रही है.
मुरली मनोहर जोशी की नाराज़गी की वजह सब जानते हैं. जोशी को वाराणसी की सीट छिनने का मलाल है, लेकिन वह यह ग़ौर नहीं करना चाहते कि किस तरह उन्हें 2009 में इलाहाबाद से वाराणसी लाकर जिताया गया था. 2004 का लोकसभा चुनाव जोशी इलाहाबाद से जीते थे, लेकिन चुनाव जीतने के बाद पांच वर्षों तक उन्होंने क्षेत्रीय जनता की सुध नहीं ली. 2009 के चुनाव आए, तो जोशी को हार का डर सताने लगा, वह इलाहाबाद छोड़कर वाराणसी आने के लिए आतुर हो गए. उन्हें वाराणसी में जीत की संभावनाएं प्रबल नज़र आ रही थीं. पार्टी के बड़े नेता थे, इसलिए किसी ने विरोध नहीं किया और वह चुनाव जीत गए, लेकिन एक बार फिर जोशी ने वही गलती वाराणसी में भी दोहराई, जो इलाहाबाद में करके आए थे. 2009 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद वह यहां से भी अदृश्य हो गए. वाराणसी की जनता ने जोशी को सबक सिखाने का मन बना लिया था, इस बात का एहसास जोशी को भी हो गया  था, लेकिन मोदी के राजनीति के राष्ट्रीय परिदृश्य में उभरने के बाद भाजपा के पक्ष में देश भर में माहौल बदला, तो जोशी को भी अपनी डूबती नैया पार लग जाने की उम्मीद जग गई, लेकिन उनके ऊपर वही मोदी वज्रपात की तरह टूट पड़े, जिनका नाम जपकर जोशी चुनावी बेड़ा पार करना चाहते थे. नरेंद्र मोदी को वाराणसी से चुनाव लड़ाने की चर्चा हुई, तो जोशी के पैरों तले जमीन खिसक गई. भाजपा आलाकमान की तरफ़ से जो संकेत मिल रहे थे, उससे यही एहसास हो रहा था कि जोशी अगर चुपचाप बैठ जाएंगे, तो उन्हें राज्यसभा भेज दिया जाएगा, लेकिन जोशी को टिकट न दिए जाने से ब्राह्मण मतदाता इसे अपना अपमान समझ कर भाजपा को सबक सिखा सकते थे. फिर भी जोशी को वाराणसी तो नहीं मिला, लेकिन भारी दबाव के बाद उन्हें कानपुर ज़रूर भेज दिया गया. जोशी ने भी थोड़ी-बहुत हीलाहवाली के बाद आलाकमान का ़फैसला स्वीकार कर लिया, क्योंकि वह लालकृष्ण आडवाणी, जसवंत सिंह एवं लाल जी टंडन का हश्र देख चुके थे.
कानपुर से चुनाव लड़ने को नियति का खेल मानकर जोशी शांत हो गए और उन्होंने मोदी का वर्चस्व भी स्वीकार कर लिया था, परंतु दिल को जो टीस लगी थी, वह समय-समय पर जोशी को बेचैन करती रहती थी. यह बेचैनी समय के साथ कम हो जाती, अगर मुरली मनोहर जोशी द्वारा तैयार किए गए भाजपा के घोषणा-पत्र में मोदी नुक्ताचीनी न करते. एक तरह से मोदी ने जोशी के घोषणा-पत्र को री-राइट ही कर दिया था. यह बात जोशी को काफी खराब लगी, लेकिन मा़ैके की नजाकत को भांपकर उन्होंने चुप रहना ही बेहतर समझा, पर वह अपने दिल को ज़्यादा समय तक नहीं समझा पाए. एक चैनल के एंकर ने मोदी को लेकर उनके जख्मों को कुरेदा, तो वह फट पड़े. पार्टी से निकाले गए जसवंत सिंह, विकास का गुजरात मॉडल, मोदी लहर, राजनाथ सिंह, भाजपा नेत्री एवं राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया और विवादास्पद नेताओं को पार्टी में शामिल किए जाने जैसे कई मसले उनके निशाने पर आ गए. जोशी ने सबसे अधिक विवाद यह कहकर पैदा किया कि देश में मोदी की नहीं, भाजपा की लहर चल रही है. साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ दिया कि विकास का गुजरात मॉडल राजग का आदर्श मॉडल नहीं है. जसवंत सिंह को टिकट न मिलने के लिए उन्होंने सीधे तौर पर राजनाथ सिंह एवं वसुंधरा को कठघरे में खड़ा किया.
जोशी का यह बयान आनन-फानन में कांगे्रस, सपा एवं अन्य विरोधी दलों के नेताओं ने लपक लिया. समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने निशाना साधते हुए कहा कि सपा तो लगातार कह रही है कि देश को न तो मोदी विजन की ज़रूरत है और न उनके विकास मॉडल की. मोदी आत्ममुग्ध इंसान हैं, जिनसे किसी का भला नहीं होता दिख रहा है. वहीं कांग्रेस नेता एवं पूर्व प्रवक्ता सुबोध श्रीवास्तव का कहना है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और मोदी की सोच सांप्रदायिक है. मोदी के गुजरात मॉडल में 2002 के दंगे शामिल हैं, जो देश को बांटते हैं. उधर राजनाथ ने जोशी के बयान पर डैमेज कंट्रोल करते हुए कहा कि भाजपा और मोदी लहर एक ही बात है. रही बात गुजरात मॉडल को देश में लागू करने की, तो यह बात मोदी सहित कोई भी नेता नहीं कह रहा है. बहरहाल, इसे इत्तेफाक ही कहा जाएगा कि एक तरफ़ मोदी खेमे को डर सता रहा है कि जोशी जैसे नेताओं के बयान से पार्टी का विजय अभियान थोड़ा-बहुत प्रभावित हो सकता है, वहीं जोशी के क़रीबियों को लगता है कि जसवंत, आडवाणी, लाल जी टंडन जैसे विवाद अगर न होते, तो पार्टी की स्थिति और भी मजबूत होती. खैर, यह तो समय ही बताएगा बात किसकी दमदार है, लेकिन फिलहाल तो भाजपा बैकफुट पर ही नज़र आ रही है. भाजपा में विरोध के तमाम अध्याय भले ही बंद हो गए हों, लेकिन जोशी अध्याय जारी है.

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