लगता है पश्चिम बंगाल में राजनीतिक दलों की सत्ताकांक्षा की लड़ाई का खमियाजा हिंदू देवी- देवताओं को भुगतना पड़ रहा है। वहां विधानसभा चुनावों की तारीखों की घोषणा अभी नहीं हुई है, लेकिन चुनावी चालों का यह सिलसिला जय श्री राम से शुरू होकर जय हनुमान, जय मां दुर्गा से होता हुआ विद्या और कला की देवी सरस्वती की पूजा तक आ गया है। देवों के प्रति जनमानस की आस्था को दोनो मुख्य प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल भाजपा और तृणमूल कांग्रेस ( टीएमसी) अपने अपने ढंग से भुनाने की कोशिश में है।
अपने को भाजपा से ज्यादा हिंदू साबित करने की कोशिश में टीएमसी ने इस वसंत पंचमी पर राज्य में 125 स्थानों पर सार्वजनिक सरस्वती पूजन का आयोजन किया है। इसी बहाने टीएमसी सरकार की उपलब्धियों व योजनाअोंसे ‘भक्तों’ को अवगत कराया जाएगा। उधर भाजपा ने इसे ममता की ‘नौटंकी’ बताया है। दो दिन पहले पहले पश्चिम बंगाल प्रदेश भाजपाध्यक्ष दिलीप घोष ने एक टीवी बहस में कहा कि प्राचीन ग्रंथों में श्री राम का उल्लेख तो है, लेकिन दुर्गा का नहीं है। जवाब में तृणमूल सांसद व ममता बनर्जी के भांजे तथा संभावित राजनीतिक उत्तराधिकारी अभिषेक बनर्जी ने कहा कि खुद राम ने दुर्गा की पूजा की थी।
सरस्वती पूजा और वसंत पंचमी का त्यौहार बंगाल में पहले से मनाया जाता रहा है। इस शुभ दिन शिक्षण संस्थाअों में देवी सरस्वती की पूजा व सांस्कृतिक आयोजन होते रहे हैं। वसंत पंचमी माघ माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी को पड़ती है। इसी समय धरती भी अपना रूप रंग बदलती है। शीत ऋतु की विदाई और ग्रीष्म से पहले मौसम में एक तरह की मादकता का आरंभ होता है। वसंत पंचमी वसंतोत्सव के रूप में भी मनती है। लेकिन बंगाल में उसका भी राजनीतिकरण हो रहा है।
दो साल पहले पश्चिम बंगाल से भाजपा सांसद लाॅकेट चटर्जी ने मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी पर आरोप लगाया था कि वो राज्य में हिन्दुओं को सरस्वती पूजा नहीं करने देना चाहतीं। इस नहले पर दहला मारने के अंदाज में ममता ने प्रदेश में सरस्वती पूजा की पूर्व घोषित दो दिन की छुट्टी को बढ़ाकर तीन दिन की कर दिया था, जो दुर्गा पूजा की सरकारी छुट्टियों से एक दिन ही कम थी। और इस बार तो चुनावी वर्ष के मद्दे नजर टीएमसी ने राज्य में सरस्वती पूजा पंडाल बनाने और इस आयोजन के बहाने राजनीतिक संदेश देने का पूरा इंतजाम किया है।
टीएमसी नेता व कार्यकर्ता इसे सफल बनाने में लग गए हैं। वसंत पंचमी पर सरस्वती पूजा का जिम्मा मुख्य रूप से युवा तृणमूल कांग्रेस को सौंपा गया है। इस मौके पर तृणमूल नेता छात्रों और युवा मतदाताओं से संवाद करेंगे। इसी के साथ तृणमूल नेता यह सफाई भी देते हैं कि इस आयोजन का मकसद भाजपा की तरह लोगों की धार्मिक भावनाओं का राजनीतिक दोहन करना नहीं है।
उधर सरस्वती पूजा के साथ-साथ तृणमूल कांग्रेस ने राज्य में बीजेपी के ‘परिवर्तन यात्रा’ पर निकले प्रचार रथ की तर्ज पर कई जिलों में दो दर्जन ‘दीदीर दूत’ ( दीदी के दूत) नाम से बसें घुमाना शुरू किया है। इस अभियान का उद्धघाटन भी तृणमूल सांसद व ममता के भांजे व संभावित राजनीतिक उत्तराधिकारी अभिषेक बनर्जी ने किया। नीले रंग में रंगे दीदी के इन दूतों की टैग लाइन है ‘बांगलार गोर्बो मोमता’ ( बंगाल का गर्व ममता)। उधर भाजपा ने इसे टीएमसी द्वारा उसके प्रचार आइडिया की नकल बताया है।
बहरहाल पश्चिम बंगाल में राजनीति के मैदान में हर दिन ‘तुम डाल डाल तो हम पात पात’ का खेल खेला जा रहा है। रोज नए प्रतीक और शिगूफे चले जा रहे हैं। सरस्वती पूजा के पहले राजा राम और मां दुर्गा को लेकर सियासी घमासान मच चुका है। भाजपा नेता दिलीप घोष के उस बयान कि भगवान राजा राम थे…दुर्गा को पता नहीं कहां से ले आते हैं। इस पर तृणमूल कांग्रेस ने तुरंत पलटवार कर घोष के बयान को महिलाओं का अपमान बताकर उन्हें आड़े हाथों लिया।
पार्टी ने ममता को आज देश में ‘इकलौती महिला मुख्यमंत्री’ बताते हुए ममता की तुलना में मां दुर्गा से कर डाली। वैसे भगवान राम की महिमा का बखान करते हुए घोष यह भी कह गए कि बंगाल के हर तीसरे घर में राम की पूजा होती है। जबकि हकीकत यह है कि पश्चिम बंगाल सरकार की वर्ष 2021 की अधिकृत छुट्टियों की सूची में भी जन्माष्टमी तो है, लेकिन रामनवमी का कहीं उल्लेख नहीं है।
जाहिर है कि बंगाल में राम की वैसी मान्यता नहीं है, जैसी कि दुर्गा या फिर कृष्ण की है। वैसे देश में सर्वाधिक सरकारी छुट्टियों वाला राज्य सिक्किम है, जहां साल में 24 छुट्टियां दी जाती हैं। जहां तक वसंत पंचमी का सवाल है तो यह बंगाल ही नहीं पूरे देश में मनाया जाता रहा है। एक जमाने में स्कूलों में वसंत पंचमी पर मां सरस्वती की पूजा और सांस्कृतिक आयोजनों की अच्छी परंपरा थी ( शायद अब भी होगी)।
लेकिन तब किसी ने इसे महज हिंदू धार्मिक त्यौहार या सेक्युलरवादी आलोचक दृष्टि शायद ही देखा हो। अब तो राजनीति देवी देवताअोंको भी आपस में लड़वाने पर आमादा है। वसंत पंचमी सरस्वती का प्रकटोत्सव भी है। पुराणों के अनुसार देवताअोंके आह्वान पर आदि शक्ति दुर्गा ने अपने तेज से एक चतुर्भुजी दिव्य नारी के रूप में सरस्वती को उत्पन्न किया। जिसने प्रकट होते ही वीणा का मधुरनाद किया, जिससे संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हुई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हुआ। पवन में सरसराहट होने लगी। शब्द और रस का संचार करने वाली इस देवी को देवताओं ने ही सरस्वती कहा।
इसमें शक नहीं कि पश्चिम बंगाल में सत्ता की लड़ाई मुख्यत: तृणमूल और भाजपा के बीच सिमटती दिख रही है। कभी राज्य में लंबे समय तक सत्ता में रहे वामदल और कांग्रेस इस लड़ाई में हाशिए पर ही नजर आ रहे हैं। हालांकि लेफ्टह का दावा है कि उसकी ताकत का पता चुनाव नतीजों से चलेगा। इतना तय है कि उनकी राजनीतिक लड़ाई के औजार वही पुराने हैं। खासकर तब कि जब चुनावी लड़ाई देवी देवताओं के प्रतीकों और आस्था के अखाड़े में लड़ी जा रही हो। दोनो दलों ने मिलकर पिछले दिनो ‘बंगाल बंद’ का आह्वान भी किया था, लेकिन उसका कोई खास असर नहीं दिखा।
इसमें शक नहीं कि भाजपा की आक्रामक रणनीति और चौतरफा हमलों का जवाब ममता और उनकी पार्टी पूरी ताकत से देने की कोशिश कर रही है। राज्य में टीएमसी की जमीन हिली जरूर है, लेकिन खोई नहीं है। कई राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि भाजपा का धुआंधार प्रचार और जबरदस्त सेंधमारी टीएमसी को पराजित कर ही देगी, ऐसा दावे के साथ कहना मुश्किल है। क्योंकि भाजपा बंगाली मन पर कितना कब्जा कर पा रही है या कर पाएगी, यह अभी देखने की बात है।
लेकिन इस राजनीतिक युद्ध में संस्कृति की देवी सरस्वती को खींचना कहीं से उचित नहीं लगता। कला और प्रज्ञा की इस देवी से राजनीति के रंगमहल में सियासी वीणा वादन करवाने की कोशिश की जा रही है। शक्ति रूपा दुर्गा का स्वरूप तो फिर भी संहारक है, लेकिन सरस्वती तो संस्कारों की देवी है। संवाद और लालित्य की देवी है। उसे चुनावी पंडाल में अधिष्ठित कर सत्ताकांक्षा का वृंदगान करने का क्या मतलब है?
वरिष्ठ संपादक
अजय बोकिल