तीन दिसम्बर को शांतिनिकेतन की सुबह की शुरुआत ! बंगाल सांस्कृतिक मंच द्वारा शुरू की गई चलत पाठशालाओं के भेट से शुरू हुई !
दो साल पहले के लाॅकडाउन के बाद संपूर्ण विश्व का जनजीवन अस्त व्यस्त हो गया है ! उसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी क्लासरूम की शिक्षा की जगह आनलाईन की शुरुआत की गई है ! लेकिन हमारे देश की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को देखते हुए कम-से-कम आधी आबादी, जो गरीबी रेखा के नीचे रहने के कारण ! उस वर्ग के लोगों के बच्चे ढंग की कीताब कापी भी खरीद नही सकते है ! तो अड्रायड फोन और टॅब्लेट, इंटरनेट से कोसो दूर रहने के कारण इस आनलाईन शिक्षा में शामिल होने की संभावना कहा है ?
तो बंगाल सांस्कृतिक मंच जो कोरोना के कारण आरोग्य सेवा, जिसमें आक्सीजन, दवा, सेनेटाइझर से लेकर मास्क बाटने, और कुछ जीवनावश्यक वस्तूओ के बाटने से शुरू हुआ काम, करने वाले लोगों की पहल से, अब यह चलत पाठशालाओं की गतिविधि शुरू की गई है ! जिसे चलाने के लिए सिनिअर विद्यार्थियों से लेकर, कुछ सिनिअर नागरिक भी अपने व्यक्तिगत जीवन जीने के अलावा, इस तरह की गतिविधियों में शामिल होकर,इन पाठशालाओं को चलाने में अपना योगदान दे रहे हैं ! इस तरह के कार्यक्रम बीरभूम जिले से लेकर बगल के बर्धमान तथा अन्य पड़ोसी जीलो में भी चल रहे है ! यह सब देखकर लगता है कि रविंद्रनाथ टागौर की विरासत को जिंदा रखने का इतिहासदत्त कार्य, बंगाल सांस्कृतिक मंच कर रहा है !
काश हमारे देश के सभ्य समाज के लोग, अपने व्यक्तिगत जीवन जीने के अलावा, अपने जीवन का थोड़ा भी समय देने से, हमारे देश के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए काफी मददगार सिद्ध होगा ! हर बात के लिए सरकारों के उपर निर्भर रहना कहा तक ठीक है ? हमरी अपनी भी कुछ जिम्मेदारी है या नहीं ?
बंगाल सांस्कृतिक मंच अपने सांस्कृतिक शब्द को सही मायने में अर्थवत्ता प्रदान कर रहा है ! और इस तरह की गतिविधियों का आयोजन देश के अन्य हिस्सों में भी होने की आवश्यकता है !
यह साल हमारे देश की आजादी का पचहत्तरवा साल है ! अगर पचहत्तर साल के पस्चात भी देश की आधी आबादी के रोजमर्रा के साधारण सवाल हल नहीं हुए तो क्या वह आजादी पूरी आजादी मानी जायेगी ? शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, महिलाओं तथा दलित आदिवासी समुदाय के प्राथमिक सवाल अगर आजादी के पचहत्तर साल के पस्चात भी हल नहीं होते हैं तो फिर यह आजादी के मायने उनके लिए कोई नहीं है !
एक तरफ सबका साथ सबका विकास जैसे घोषणा करना, और उन्हें उनके जीवन जीने के लिए वही जद्दोजहद जो वह सदियों से करते आ रहे हैं ! आज भी रोज करने की जरूरत होती है तो फिर वह आजादी कहा अटक कर रह गई ?
135 करोड़ के आबादी वाले देश में आज भी रोज रात को आधा पेट भोजन या इस हड्डी तोड़ ठंड में ओढ़ना – बिछाने के लिए तो छोडिए अंग को ढकने के लिए भी कपड़े नहीं है ! ऐसे लोगों को आजादी के पचहत्तर साल के क्या मायने रखता है ? आखिर आजादी के मायने क्या है ?
हमारे एक मित्र थे, जिन्होंने सत्तर के दशक में महाराष्ट्र में दलित पैंथर नाम के संगठन की स्थापना की थी ! राजा ढाले नाम के 1972 के साने गुरुजी ने शुरुआत की हुई मराठी पत्रिका साधना में, आजादी के पच्चीस साल पूरे होने के उपलक्ष्य में, निकाले गए विशेषांक में, एक लेख लिखा था ! कि अगर आज हमारे देश की आजादी को पच्चीस साल होने के बावजूद हमारी (दलितों की) माँ – बहनों को नंगा कर के जुलूस निकाला जाता है ! और उनके उपर बलात्कार बदस्तूर जारी है ! तो ऐसी भारत माता की आजादी और ऐसे तिरंगा झंडा फहराने के क्या मायने हैं ? (हालांकि उन्होंने काफी कड़ी भाषा इस्तेमाल की है ! जिसका इस्तेमाल मै नही कर रहा हूँ!!) साथीयो यही स्थिति कमअधिक प्रमाण में आज भी रोज भारत के विभिन्न हिस्सों में बदस्तूर जारी है ! 75 साल आजादी के बाद भी ! शायद ही कोई ऐसा दिन गुजरता होगा कि उस दिन किसी महिला पर अत्याचार नही हुआ होगा !
बंगाल सांस्कृतिक मंच की कोशिश इस तरह की परिस्थितियों में सुधार लाने के लिए की जाने वाली कोशिश है ! यह सिर्फ रोटरी या लायन्स क्लब जैसे सतही कार्यक्रमों जैसा नहीं है ! इसमें सामाजिक संवेदनशीलता और समाज के कुछ सुविधा भोगी लोगों की संवेदनशीलता को झकझोर कर शामिल करने की कोशिश है ! जिसका वर्तमान समय में तथाकथित जागतिकीकरण की प्रक्रिया में आत्मकेंद्रित होने के जमाने में उनके सामाजिक सरोकारों को प्रज्वलित करने की भी कोशिश है ! इसलिए बंगाल सांस्कृतिक मंच के सभी साथियों को साधुवाद के साथ- साथ उन्हें हार्दिक शुभेच्छा !
डॉ सुरेश खैरनार, 24 जनवरी 2022, नागपुर