कश्मीर में अलग अलग हितधारकों के साथ बातचीत करने के लिए केन्द्र की तरफ से भेजे गए वार्ताकार दिनेश्वर शर्मा ने जम्मू-कश्मीर में अपना पहला दौरा पूरा कर लिया है. वे तीन दिन तक श्रीनगर में रहे और दो दिन तक जम्मू में. यहां उन्होंने अलग-अलग विचारधारा के 85 प्रतिनिधिमंडलों से मुलाकात की. अपना दौरा खत्म कर दिल्ली वापस लौटते हुए उन्होंने कहा कि लोगों के साथ उनकी बातचीत सार्थक रही. उन्होंने कहा कि वे लगातार राज्य का दौरा करेंगे और हुर्रियत के नेताओं से मिलने की कोशिश करेंगे. गौरतलब है कि हुर्रियत नेताओं, खासतौर से सैयद अली शाह गिलानी, मीरवाईज़ उमर फारूक और यासिन मलिक ने साफ तौर पर उनसे मिलने से इंकार कर दिया. इन हुर्रियत नेताओं ने बातचीत की इस प्रक्रिया को वक्त की बर्बादी करार दिया.
पूर्व के वार्ताकार और उनकी रिपोट्र्स
हकीकत यह है कि पिछले दो दशकों के दौरान केन्द्र ने जम्मू-कश्मीर में जितने भी वार्ताकार भेजे उनकी रिपोट्र्स हमेशा बेनतीजा साबित हुईं. कश्मीर में सरकार की तरफ से वार्ताकारों को नियुक्त करने का सिलसिला 2001 में अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में शुरू हुआ था. वाजपेयी ने योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष केसी पंत को वार्ताकार की हैसियत से कश्मीर भेजा था. पंत यहां कई महीनों तक अलग-अलग राजनीतिक दलों, स्वयंसेवी संगठनों, व्यपारियों और मजहबी नेताओं से मिलकर बातचीत करते रहे. उसके बाद सरकार को सौंपी गई रिपोर्ट में उन्होंने अन्य बातों के अलावा जम्मू-कश्मीर को व्यापक स्वायतता देने की भी बात कही थी. सुरक्षा बलों की कार्रवाई के दौरान मानवाधिकार पर खास ध्यान देने की भी सिफारिश उन्होंने की थी. लेकिन उनकी सिफारिशों पर कोई अमल नहीं हुआ.
इसके एक साल बाद वाजपेयी सरकार ने ही जम्मू-कश्मीर को विशेष अधिकार दिए जाने की संभावना पर विचार करने के लिए तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री अरुण जेटली की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी. उसी साल राम जेठमलानी की अध्यक्षता में भी कश्मीर कमेटी के नाम से एक समिति गठित की गई थी. उस आठ सदस्यीय समिति में मशहूर वकील अशोक भान, पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण, विदेश सेवा के पूर्व अधिकारी वी के ग्रोवर, पत्रकार एम जे अकबर और दिलीप पडगांवकर शामिल थे. इस समिति ने अलगाववादियों से कई दौर की बातचीत के बाद अपनी सिफारिशें केन्द्र सरकार को पेश की. उस समिति को बातचीत के दौरान शायद यह अहसास हुआ था कि अलगाववादी विधानसभा चुनाव में हिस्सा ले सकते हैं. लिहाजा उन्होंने केन्द्र को मशविरा दिया कि 2002 के विधानसभा चुनाव को कुछ समय के लिए टाल दिया जाए. लेकिन केन्द्र सरकार ने इस समिति की सिफारिश को रद्द कर दिया.
उसके एक साल बाद यानि 2003 में राज्य के मौजूदा गर्वनर एनएन वोहरा को वार्ताकार बनाकर कश्मीर भेजा गया. उन्होंने भी अलग-अलग वर्ग के लोगों से बातचीत के बाद तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को अपनी रिपोर्ट पेश की. उन्हीं की सिफारिश के बाद 2004 में नई दिल्ली में हुर्रियत नेताओं के साथ बातचीत की गई. हुर्रियत के उदारवादी पक्ष से कई नेता नई दिल्ली में आडवाणी से मिले. इन हुर्रियत नेताओं ने जनवरी 2004 और मार्च 2004 के दौरान कई एनडीए नेताओं से भी मुलाकात की. लेकिन उसी साल हुएआम चुनाव में एनडीए चुनाव हार गई और कांग्रेस वाली यूपीए सरकार सत्ता में आ गई. नए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हुर्रियत नेता मीरवाइज़ उमर फारूक की अध्यक्षता में एक हुर्रियत प्रतिनिधिमंडल से मिले.
इसी मुलाकात के बाद हुर्रियत ने कश्मीर में हड़ताल न बुलाने की बात मान ली थी. उन्होंने बातचीत की प्रक्रिया को सफलता पूर्वक आगे बढ़ाने के लिए हर तरह के बंदूकों को खामोश करने की अपील की थी. वर्ष 2006 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने श्रीनगर में एक राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस बुलाई. इस कॉन्फ्रेंस के बाद जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश सगीर अहमद की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई. उस समिति ने भी कश्मीर को स्वायतता देने की सिफारिश की थी, लेकिन केन्द्र सरकार ने उसपर ध्यान नहीं दिया. साल 2010 में दिलीप पडगांवकर, एमएम अंसारी और राधा कुमार जैसे वार्ताकारों की एक टीम जम्मू-कश्मीर भेजी गई. उस टीम ने जम्मू-कश्मीर में विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्ध रखने वाले 5 हजार प्रतिनिधिमंडलों से मुलाकात की और अक्टूबर 2011 में अपनी रिपोर्ट केन्द्र सरकार को सौंप दी. इस रिपोर्ट में भी जम्मू-कश्मीर को स्वायतता देने की सिफारिश की गई थी. लेकिन यूपीए सरकार ने उस रिपोर्ट को भी रद्दी की टोकरी में डाल दिया.
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पूर्व के वार्ताकारों की रिपोर्ट्स के साथ केन्द्र सरकार के रवैये के कारण नई दिल्ली के प्रति कश्मीरियों के अविश्वास की खाई गहरी हो गई है. पिछले तीन दशकों के दौरान कश्मीर में सिर्फ सरकारी वार्ताकार ही नहीं आए बल्कि निजी और सामूहिक स्तर पर भी बातचीत की कोशिशें हुई हैं. कुलदीप नैयर, जस्टीस तारकंडे, तपन बोस, वजाहत हबीबुल्लाह, यशवंत सिन्हा जैसे लोग यहां आ चुके हैं. लेकिन केन्द्र सरकार ने किसी भी बातचीत की प्रक्रिया को प्रभावी बनाने की कोशिश नहीं की. ऐसी स्थिति में दिनेश्वर शर्मा के लिए अपनी विश्वसनीयता बनाए रखना और जनता का भरोसा जीतना एक बहुत बड़ी चुनौती है. केवल पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के नेताओं एवं कुछ व्यापारिक संगठनों से बातचीत कर दिनेश्वर शर्मा कुछ भी हासिल नहीं कर सकते.