आदर्श रूप से मंत्रालयों को संतुलित या तर्कसंगत होना चाहिए. मंत्रिमंडल का आकार छोटा होना चाहिए. कुछ बड़े (सुपर) मंत्रालयों को छोड़कर शेष राज्य मंत्रालय होने चाहिए. कई विभाग बिल्कुल गैर ज़रूरी हैं, लेकिन उन्हें ख़त्म करने का मतलब होगा कि बहुत सारे सांसदों को नाराज़ करना. इसलिए राजनीतिक मजबूरियों के कारण अयोग्यता को अभी भी झेलना पड़ेगा.
आजकल भारत और पाकिस्तान की राजनीति में एक अजीबोग़रीब समानता नज़र आ रही है. अगस्त महीने में इमरान खान ने अपने हज़ारों समर्थकों के साथ प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को अपदस्थ करने की कोशिश की. नवाज़ शरीफ संवैधानिक रूप से चुनकर नेशनल असेंबली में पहुंचे हैं. दरअसल, चुनाव के नतीजे आने के बाद से ही इमरान खान नवाज़ शरीफ पर पद छोड़ने के लिए दबाव बनाते आ रहे हैं. इसके लिए उन्होंने कई बार समय सीमा भी निर्धारित की, लेकिन नवाज़ शरीफ उसे लगातार नज़रअंदाज़ करते रहे हैं. इमरान इतने स्वाभिमानी हैं कि वह अपनी पराजय स्वीकार नहीं कर सकते और शरीफ इतने चतुर हैं कि वह यह स्वीकार नहीं कर सकते कि उन्होंने ग़लत तरीके से चुनाव जीतकर सत्ता हासिल की. अब यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि इस रस्साकशी का अंजाम क्या होता है. महाराष्ट्र की राजनीति में भी यही खेल दोहराया जा रहा है. उद्धव ठाकरे हठ कर रहे हैं कि भाजपा शिवसेना से बातचीत करे और उसकी मांगें मान ले. नरेंद्र मोदी शिष्ट तरीके से यह कह सकते थे कि शिवसेना को जानना चाहिए कि भिखारी अपनी शर्तों पर अपनी मांग पूरी नहीं करा सकता. लेकिन, यह कहने की बजाय उन्होंने अपनी मंत्रि परिषद के विस्तार जैसे महत्वपूर्ण विषय पर विचार-विमर्श करने को तरजीह दी. महाराष्ट्र में नई सरकार का गठन हो गया. विपक्षी विधायकों ने सदन के वेल में पहुंच कर हंगामा किया और राज्यपाल का घेराव कर राज्य में लोकतंत्र की हत्या का आरोप लगाया. यह राजनीति में सामान्य बात है.
मोदी के काम करने का अलग अंदाज़ अब उभर कर सामने आने लगा है. पहले उन्होंने एक अंतरिम कैबिनेट गठित कर हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों तक इंतज़ार किया. इन चुनावों में पार्टी की जीत के बाद एक चुनाव जिताऊ नेता के रूप में अपनी छवि को मज़बूत करके उन्होंने भाजपा पर अपनी पकड़ और मज़बूत कर ली है. अब पार्टी में उनका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है और न कोई ऐसा विपक्षी गुट है, जो उन्हें गंभीर चुनौती दे सके. अब उन्हें अपना ध्यान देश के विकास की स्व-निर्धारित नीति पर केंद्रित करना चाहिए. मोदी एक सतर्क राजनेता हैं. वह साहसी ज़रूर हैं, लेकिन जल्दबाज़ नहीं. वह चाहते हैं कि उनका कार्यकाल यूपीए से अलग हो, लेकिन वह अर्थव्यवस्था को नुक़सान पहुंचा कर ऐसा कतई नहीं करना चाहते. वह केवल बदलाव के लिए बदलाव नहीं करेंगे. उनके कार्यकाल में सुधार की रफ्तार एक तय सीमा के अंदर रहेगी. इसका सीधा-सा मतलब यह है कि इसके लिए अचानक से किसी तरह का बड़ा आर्थिक सुधार नहीं किया जाएगा. ये सुधार यूपीए-1 के कार्यकाल के दौरान हासिल की गई 8.5 प्रतिशत की विकास दर बनाए रखने तक सीमित रहेंगे. यानी नीतियों में निरंतरता बनी रहेगी. वे लोग, जो भारत में एक मार्गरेट थैचर (ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री, जिन्होंने देश में क्रांतिकारी आर्थिक सुधार किए थे) को सत्ता में देखना चाहते थे, उन्हें फ़िलहाल इंतज़ार करना पड़ेगा.
यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि भारत में सरकारी विभागों का आकार ज़रूरत के मुताबिक क्यों नहीं तय किया जाता. कैबिनेट के बड़े आकार का मकसद देश में शासन व्यवस्था स्थापित करना नहीं होता, बल्कि मंत्रियों के लिए लालबत्ती की व्यवस्था करना या उनकी जेबें भरना होता है (ज़ाहिर है, इसमें सभी राजनीतिक दल शामिल हैं).
दरअसल, हमें यह याद रखना चाहिए कि थैचर ने साहसिक आर्थिक सुधार अपने दूसरे एवं तीसरे कार्यकाल में किए थे. अगर मोदी को अपनी नीतियां लागू करनी हैं, तो उन्हें दोबारा चुनकर आना होगा. यानी पहले राजनीति होगी, सुधार बाद में होगा. इसके अतिरिक्त, जो चुनौतियां सामने हैं, पहले उन्हेंे हल करना होगा. मोदी का मंत्रिमंडल पिछले सभी मंत्रिमंडलों जैसा ही बड़ा है. यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि भारत में सरकारी विभागों का आकार ज़रूरत के मुताबिक क्यों नहीं तय किया जाता. कैबिनेट के बड़े आकार का मकसद देश में शासन व्यवस्था स्थापित करना नहीं होता, बल्कि मंत्रियों के लिए लालबत्ती की व्यवस्था करना या उनकी जेबें भरना होता है (ज़ाहिर है, इसमें सभी राजनीतिक दल शामिल हैं). अगर अभी तक देखा जाए, तो मोदी सरकार का कामकाज पूर्ववर्ती सरकारों की तरह ही चल रहा है. मनोहर पार्रिकर को रक्षा मंत्री और शिवसेना से निष्कासित किए गए सुरेश प्रभु को रेल मंत्री बनाना स्वागत योग्य है. इससे अरुण जेटली का बोझ कम होगा, जो अब तक दो बड़े मंत्रालयों का कार्यभार संभाल रहे थे. हालांकि, उन्हें इस बार भी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार सौंपा गया है. हर्षवर्धन की स्वास्थ्य मंत्रालय से छुट्टी यह ज़ाहिर करती है कि इंडियन मेडिकल काउंसिल में व्याप्त भ्रष्टाचार का विरोध करने वालों को सज़ा ज़रूर मिलेगी. इस तरह बहुत दिनों बाद मिले एक अच्छे स्वास्थ्य मंत्री की सेवाओं से भारत वंचित रह गया.
आदर्श रूप से मंत्रालयों को संतुलित या तर्कसंगत होना चाहिए. मंत्रिमंडल का आकार छोटा होना चाहिए. कुछ बड़े (सुपर) मंत्रालयों को छोड़कर शेष राज्य मंत्रालय होने चाहिए. कई विभाग बिल्कुल गैर ज़रूरी हैं, लेकिन उन्हें ख़त्म करने का मतलब होगा कि बहुत सारे सांसदों को नाराज़ करना. इसलिए राजनीतिक मजबूरियों के कारण अयोग्यता को अभी भी झेलना पड़ेगा. फिलहाल सरकार की सबसे बड़ी चिंता अर्थव्यवस्था की है. इसकी संभावना बहुत कम है कि जुलाई के बजट में घाटे को पूरा करने का जो लक्ष्य रखा गया था, उससे प्राप्त कर लिया जाएगा. यह चुनौती उसी समय से बनी हुई है, जब नई सरकार ने अंतरिम बजट को काम का आधार बनाया था. वह बजट नौकरशाहों द्वारा बनाया गया था, जिसमें पहले से ही बहुत सारी त्रुटियां थीं. अगर सरकार को अर्थव्यवस्था को नियंत्रण में रखना है, तो उसे फरवरी में एक असाधारण बजट पेश करना होगा. इसके लिए सरकार के पास बहुत कम समय बचा है.