झारखंड की आदिवासी राजनीति में उहापोह का दौर चल रहा है. आदिवासियों के सबसे बड़े नेता शिबू सोरेन उम्र के ढलान पर होने के कारण पहले की तरह सक्रिय नहीं रह पाए हैं. उन्होंने हेमंत सोरेन को अपना उत्तराधिकार लगभग सौंप दिया है. झामुमो के सारे फैसले हेमंत ही ले रहे हैं. लेकिन आदिवासी समुदाय में जो स्वीकार्यता शिबू सोरेन की रही है वह हेमंत को हासिल हो सकी है या नहीं इसकी परीक्षा बाकी है.
पिछले चुनाव में तो शिबू सोरेन अपेक्षाकृत सक्रिय थे, लेकिन इस बार पार्टी का पूरा भार हेमंत के कंधे पर होगा. शिबू सोरेन स्वयं दुमका लोकसभा क्षेत्र के मतदाताओं से अपील कर रहे हैं कि अंतिम बार उन्हें जीत का सेहरा पहनाकर विदा करें. जाहिर है कि वे थक चुके हैं और राजनीति से संन्यास लेने की प्रक्रिया में हैं. वे चाहते हैं कि आदिवासी समाज में हेमंत की पैठ उतनी ही गहरी हो जितनी उनकी रही है. लेकिन झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी आदिवासी समाज में शिबू सोरेन का विकल्प बनने के प्रयास में हैं. उनकी छवि साफ सुथरी है और हेमंत की तुलना में वे ज्यादा अनुभवी हैं.
कदकाठी भी बड़ा है. कांग्रेस भी उन्हें ज्यादा तरजीह दे रही है. विपक्षी दलों के गठबंधन और सीटों के बंटवारे का मामला यहीं फंसा हुआ है. हेमंत सोरेन भी सशंकित हैं. कांग्रेस ने काफी पहले घोषणा की थी कि झारखंड में लोकसभा चुनाव कांग्रेस के नेतृत्व में और विधानसभा चुनाव झामुमो के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. लेकिन अब बाबूलाल ने सुझाव दिया है कि विधानसभा मुख्यमंत्री के साझा उम्मीदवार की घोषणा के बगैर लड़ा जाए और इसका फैसला चुनाव के बाद हो.
कांग्रेस उनके सुझाव पर कहीं न कहीं सहमत भी है. कांग्रेस के अपने वादे से विचलित होने के संदेह के कारण हेमंत ने लोकसभा के पहले विधानसभा के सीटों के बंटवारे की शर्त लगा दी है. कांग्रेस को आदिवासी राजनीति के दो दावेदारों के बीच रास्ता निकालना है. हाल में राहुल गांधी के साथ बैठक में 2019 के लोकसभा चुनाव में तालमेल संबंधी फार्मूले पर लगभग सहमति बन चुकी थी, लेकिन विधानसभा सीटों के बंटवारे की शर्त ने महागठबंधन की संभावनाओं पर ब्रेक लगा दिया है.
झामुमो का इतिहास राजनीतिक सौदेबाजी और पदलोलुपता का रहा है. उसपर बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता. इसीलिए कांग्रेस अब झारखंड में ऐसे मित्रों की तलाश में है जो भरोसेमंद हो और जिनके साथ लंबी पारी खेली जा सके. राजनीतिक हलकों की चर्चा के मुताबिक, कांग्रेस आदिवासी वोटरों को साधने के लिए झामुमो से ज्यादा झाविमो को तरजीह दे रही है. दूसरी तरफ, कांग्रेस कुर्मी वोटरों के लिए आजसू के सुदेश महतो को अपने खेमे में लाना चाह रही है.
कांग्रेस का मानना है कि आदिवासी और कुर्मी वोटों को साध लेने पर झारखंड में सत्ता की चाबी आराम से हासिल की जा सकती है. निःसंदेह आज की तारीख में झामुमो राज्य में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है. शिबू सोरेन का अलग राज्य के आंदोलन में बड़ा योगदान रहा है. लेकिन वे कब क्या करेंगे, क्या बोलेंगे उन्हें खुद पता नहीं रहता. अभी एक जनसभा में शिबू सोरेन ने यह कहकर भ्रम की स्थिति पैदा कर दी कि झामुमो किसी से तालमेल नहीं करेगा और सभी सीटों पर चुनाव लड़ेगा. हालांकि अगले ही दिन वे अपने बयान से पीछे हट गए और फैसला हेमंत सोरेन पर छोड़ दिया.
हेमंत को भाजपा विरोधी मोर्चा के प्रति अपने संकल्प को दुहराना पड़ा. बाबूलाल झारखंड के पहले मुख्यमंत्री रहे हैं और अब भी महत्वाकांक्षी हैं, लेकिन वे ज़मीनी सच्चाई से भी वाकिफ हैं. कांग्रेस को पता है कि शिबू सोरेन अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव पर हैं. उनकी राजनीतिक सक्रियता भी कम हो चुकी है. हेमत सोरेन पार्टी की बागडोर संभाल चुके हैं. लेकिन हेमंत, बाबूलाल की कद-काठी के आगे कितना ठहर सकेंगे, कहना कठिन है. इसीलिए कांग्रेस बाबूलाल को ज्यादा महत्व भी दे रही है. जहां तक आजसू का सवाल है इसके सुप्रीमो सुदेश महतो फिलहाल एनडीए के साथ हैं, लेकिन कई मुद्दों पर वे झारखंड की रघुवर सरकार से नाराज चल रहे हैं. उन्होंने एकला चलने का खुला एलान भी कर दिया है.
भाजपा भी उनकी नाराजगी को ज्यादा महत्व नहीं दे रही है. हालांकि यह भी सच है कि सुदेश झारखंड में कुर्मी जाति के इकलौते नेता नहीं हैं. लालचंद महतो भी कुर्मी जाति के बीच गहरी पैठ रखते हैं, लेकिन फिलहाल उनकी सक्रियता घटी हुई है. जबकि सुदेश महतो स्वाभिमान स्वराज यात्रा के जरिए पूरे झारखंड में जन संपर्क अभियान चला रहे हैं. इससे उनका जनाधार और लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही है. अगर वे कांग्रेस के खेमे में आ गए, तो विपक्षी दलों की स्थिति बेहतर हो जाएगी. हालांकि इसकी पहल अभी प्रारंभिक अवस्था में है. पिछले विधानसभा चुनाव में झाविमो को मात्र आठ सीटों पर जीत हासिल हुई थी, जिसमें छह विधायक भाजपा में शामिल हो गए थे. अब दो विधायक ही बचे हैं. जबकि झामुमो के पास 18 विधायक हैं. झाविमो पांच सीटों पर दूसरे स्थान पर रहा था.
भाजपानीत एनडीए चाहे जो भी दावा करे, लेकिन उसे महागठबंधन से खतरे का अहसास है. चुनावों के दौरान वह आमने-सामने के संघर्ष से बचना चाहेगी और लड़ाई को त्रिकोणात्मक बनाने का प्रयास करेगी. एक और विकल्प यह हो सकता कि महागठबंधन बनने में ज्यादा से ज्यादा विलंब हो ताकि विपक्षी दलों को चुनावी तैयारी का ज्यादा समय न मिल सके और इस बीच बूथ स्तर पर इसकी तैयारी ठोस हो जाए. नेताओं की महत्वाकांक्षा को जागृत कर इसे आसानी से अंजाम दिया जा सकता है. संभव है महागठबंधन में अवरोध के मूल में यह फैक्टर भी काम कर रहा हो.