जिन दिनों राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, उन दिनों अखबारों में ओट्टावियो क्वात्रोची का नाम अक्सर आता था. जो लोग प्रधानमंत्री निवास में जाते थे उन्हें भी क्वात्रोची वहां गाह-बगाहे दिखाई दे जाता था. राजीव गांधी की ससुराल भी इटली थी तथा क्वात्रोची भी इटली का था, अतः यह संभावना पैदा होती है कि उसने इटली का कोई संपर्क तलाश लिया हो, जिसके कारण राजीव गांधी ने उसे प्रधानमंत्री निवास में आने की छूट दे रखी हो. क्वात्रोची जिस फर्म स्नैम प्रोगेत्ती का रीजनल डायरेक्टर था, उस फर्म को देश की सबसे बड़ी पाइप लाइन, जगदीशपुर हजीरा पाइप लाइन बिछाने का ठेका भी मिल गया था.
सी.बी.आई. की फाइलों में जो जांच रिपोर्ट है, वह बताती है कि उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी के परिवार तथा ओट्टावियो क्वात्रोची के बीच बहुत ही घरेलू, नजदीकी और आत्मीय संबंध थे. वे आपस में जल्दी-जल्दी मिलते थे, ओट्टावियो क्वात्रोची तथा उनके परिवार का दखल प्रधानमंत्री निवास में था. बेतकल्लुफी और नजदीकी उन तस्वीरों में साफ झलकती है जो इस समय सी.बी.आई के पास हैं. ओट्टावियो क्वात्रोची अपने को बहुत असरदार व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करता था. जब तक क्वात्रोची भारत में रहा, लगातार फोन से महत्वपूर्ण राजनीतिज्ञों व नौकरशाहों से संपर्क करता रहता था.
ध्यान देने की बात है कि बोफोर्स कंपनी ने कमीशन के नाम पर सेक 50,463,966,00 ए.ई. सर्विसेज को 3.9.1986 को दिए थे. इस सारी रकम को ए.ई. सर्विसेज ने ओट्टावियो क्वात्रोची की कोलबर इन्वैस्टमेंट लिमि. इंक के अकाउंट में, जो जेनेवा स्थित यू.बी.एस.बैंक में था, 16.9.1986 तथा 29.9.1986 को ट्रांसफर कर दिया. ए.बी. बोफोर्स और भारत सरकार के बीच हुए करार की शर्त के अनुसार भारत सरकार ने सौदे की 20 प्रतिशत अग्रिम राशि सेक 1,682,132,196.80 तारीख 2.5.1986 को बोफोर्स कंपनी को दे दी. ए.ई. सर्विसेज ने कमीशन के तौर पर जो रकम सेक 50,463,966.00 बोफोर्स कंपनी से प्राप्त की वह उस रकम का 3 प्रतिशत बनती है जो भारत सरकार ने बोफोर्स कंपनी को अग्रिम राशि के नाते अदा की थी. यह रकम उस अनुबंध की शर्त के अनुसार थी, जो बोफोर्स और ए.ई. सर्विसेज के बीच 15 नवंबर 1985 को हुआ था.
भारत सरकार और भारत को तोप बेचने की इच्छुक कंपनियों के बीच इस सौदे के बारे में 1984 में बातचीत हुई. नेगोशिएटिंग कमेटी की पहली बैठक 7.6.1984 को हुई. इसके बाद विभिन्न अवसरों पर यह कमेटी 17 बार मिली. सेना की पहली प्राथमिकता उस समय सोफमा तोप थी. पर 17.2.1986 को सेना मुख्यालय ने पहली बार अपनी रुचि बोफोर्स तोप में दिखाई तथा इसे सोफमा पर प्राथमिकता दी. इसके बाद तो बोफोर्स तोप में अनावश्यक रुचि दिखाई जाने लगी. अचानक नेगोशिएशन की प्रक्रिया तेज हो गई.
17.2.1986 को सेना मुख्यालय ने अपनी रिपोर्ट में बोफोर्स तोप को बाकी सब पर पहला स्थान दिया. इस कमेटी ने रहस्यमय जल्दबाजी की. इसने एक ही दिन 12.3.1986 को मीटिंग कर लैटर ऑफ इंटैंट (आशय पत्र) बोफोर्स कंपनी के पक्ष में जारी करने की सिफारिश करने का फैसला ले लिया. इसी दिन, यानी 12.3.1986 को संयुक्त सचिव (ओ) ने एक नोट बनाया ताकि रक्षा राज्य मंत्री अर्जुन सिंह, रक्षा राज्य मंत्री सुखराम, वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह तथा प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भेजा जा सके. यह नोट उसी दिन संबंधित अफसरों और मंत्रियों को भेजा गया और उन्होंने उसी दिन उस पर सहमति भी दे दी. इस नोट पर किसने कब हस्ताक्षर किए, वह स तालिका से स्पष्ट हो जाएगा-
1. सेक्रेटरी डिफेंस (श्री एस.के.भटनागर) 12.3.1986, 2. सेक्रेटरी, डिफेंस प्रोडक्शन और सप्लाई (श्री पी.सी.जैन) 13.3.1986, 3. रक्षा राज्य मंत्री (श्री सुखराम) 13.3.1986, 4. रक्षा राज्य मंत्री ( अर्जुन सिंह) 13.3.1986, 5. फाइनेंशियल एडवाइजर (श्री सी.एल.चौधरी) 13.3.1986, 6. सेक्रेटरी एक्सपेंडिचर (श्री गनपथी) 13.3.1986, 7. फाइनेंस सेक्रेटरी (श्री वी.वेंकटरमन) 13.3.1986, 8. वित्त मंत्री (श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह) 13.3.1986, 9. प्रधानमंत्री, जिन्होंने रक्षा मंत्री के नाते हस्ताक्षर किए (श्री राजीव गांधी) 14.3.1986.
यह तालिका बताती है कि संयुक्त सचिव (ओ) ने 12.3.1986 को नोट तैयार किया तथा इसके बाद बहुत ही ज़्यादा रुचि लेकर जल्दबाजी दिखाई गई. यह फाइल छह विभिन्न विभागों के अफसरों के पास भेजी गई. केवल 48 घंटों के भीतर 11 अफसरों व मंत्रियों के संक्षिप्त हस्ताक्षर करवाए गए. सवाल उठता है कि इतनी जल्दबाजी की जरूरत क्यों थी?
इस जल्दबाजी का जवाब तलाशना चाहें तो वह हमें बोफोर्स कंपनी तथा ए.ई. सर्विसेज के बीच हुए अनुबंध में लिखी शर्त से मिल जाता है. यह अनुबंध 15.11.1985 को हुआ था. अनुबंध की इस महत्वपूर्ण धारा में लिखा है कि ए.ई. सर्विसेज को कमीशन तभी मिलेगा जब बोफोर्स कंपनी को यह सौदा मार्च 1986 से पहले मिल जाएगा. इस अनुबंध की रोशनी में फाइल की तेजी तथा कमीशन का संबंध स्पष्ट हो जाता है, जिसे ओट्टावियो क्वात्रोची तथा अन्यों ने प्राप्त किया. इससे यह भी पता चलता है कि ओट्टावियो क्वात्रोची का संबंध उन लोगों से भी था, जो इस डिसीजन प्रोसेस में शामिल रहे हैं. आगे की घटनाएं भी, कहानी अपने आप बनाती है. 12 मार्च 1986 के बाद के 48 घंटों में 11 अफसरों और मंत्रियों के हस्ताक्षर फाइल पर कराकर प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने स्वयं अपने हस्ताक्षर 14.3.1986 को किए. 14.3.1986 को ही उन्हें स्वीडन की यात्रा पर जाना था. वे गए भी. उसी दिन स्वीडन पहुंचते ही उन्होंने स्वीडिश प्रधानमंत्री ओलेफ पाल्मे को सूचित किया कि भारत सरकार ने तोपों की खरीद का सौदा बोफोर्स कंपनी को देने का निर्णय लिया है.
अदालत ने उठाई उंगली
ओट्टावियो क्वात्रोची के मामले में सीबीआई सवालों के घेरे में है. दिल्ली के ची़फ मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने जब सीबीआई से क्वात्रोची के ख़िला़फ रेड कार्नर नोटिस हटने के बाबत सवाल पूछा तो सीबीआई ने उन स्थितिओं का ब्योरा दिया जिनमें किसी व्यक्ति पर से रेड कार्नर नोटिस वापस लिया जाता है. उसने यह साफ नहीं किया कि आख़िर ओट्टावियो क्वात्रोची का मामला किस वर्ग में आता है. जितनी भी दलीलें दी गई हैं उनमें से किसी में क्वात्रोची का मामला फिट नहीं बैठता. रेड कार्नर नोटिस आरोपित व्यक्ति की गिरफ्तारी, आत्मसमर्पण, प्रत्यर्पण, मृत्यु की स्थिति में ही वापस लिया जा सकता है. क्वाात्रोची के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है. वैसे वारंट अवैध होने की स्थिति में भी नोटिस हट जाता है. अब वारंट क्यों अवैध हुआ, इस सवाल का जवाब सीबीआई नहीं दे रही. सबसे अजीब बात यह है कि जब 25 नवंबर 2008 को यह नोटिस हटाया गया तो उससे पांच दिन पहले ही सीबीआई ने नोटिस की मौज़ूदगी की सूचना न्यायालय को दी थी. ऐसे में पांच दिनों में यह बदलाव क्यों आ गया.
जब न्यायालय ने क्वात्रोची को भारत लाने के दूसरे रास्तों के बारे में पूछा, तो सीबीआई ने दो महीने का समय मांग लिया. सीबीआई ने कहा कि दो बार-मलेशिया और अर्जेंटीना में-पूरा ज़ोर लगाने के बावजूद क्वात्रोची के प्रत्यर्पण की कोशिश नाकाम हो गई थी. सीबीआई का यह भी कहना था कि क्वात्रोची ने नोटिस वापस न लेने पर भारतीय सरकार पर मुकदमा करने की धमकी भी दी थी. इसके अलावा उसने मुकदमे के पूरे खर्चे के भुगतान की भी मांग रखी थी. इसके बाद सीबीआई ने अटार्नी जनरल से इस पर राय मांगी थी और इसके बाद ही रेड कार्नर नोटिस को ख़त्म करने के लिए इंटरपोल से बात की गई.
इस फैसले को लेने के लिए जो कार्रवाई चली, उनके कागजात यह बताते हैं कि फैसला सिर्फ बोफोर्स को लैटर ऑफ इंटैंट (आशय पत्र) जारी करने का था. यह फैसला अपने आप में अस्वाभाविक था क्योंकि तब तक दो प्रतिद्वंद्वी कंपनियां बोफोर्स और सोफमा बहुत ही कम रियायतें देने की बात कर रही थी . जल्दी में यह फैसला लिया गया अन्यथा प्रतिद्वंद्वी कंपनियां कंपटीटिव रेट देतीं. लैटर ऑफ इंटैंट जारी करने के इस फैसले ने सौदा करने की प्रक्रिया का उल्लंघन किया. शायद इसके पीछे नीयत थी कि स्वीडन को यह बताना था कि सौदे का फैसला उनके पक्ष में लिया जा चुका है.
इस केस में ओट्टावियो क्वात्रोची के नाम का खुलासा पहली बार 23.3.1993 को हुआ, जब इंटरपोल स्विट्जरलैंड ने भारत सरकार के सूचित किया कि जिन सात लोगों ने स्विस सुप्रीम कोर्ट में जांच कार्रवाई रोकने की अपील की थी, वह सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी है. इन सात लोगों में एक नाम ओट्टावियो क्वात्रोची का भी है.
इस सूचना के खुलासे के छह दिन के बाद ओट्टावियो क्वात्रोची ने 29.7.1994 को जल्दबाजी में अपनी पत्नी के साथ भारत छोड़ दिया तथा वह आज तक भारत वापस नहीं आया. सी.बी.आई. ने क्वात्रोची के इस तरह भारत छोड़ने को जो कि उसके नाम की जानकारी आने के बाद जल्दबाजी में उसने किया तथा उसके द्वारा स्विस सुप्रीम कोर्ट में भारत सरकार द्वारा जारी लैटर रोगेटरी पर अमल रुकवाने की कोशिश को प्रथम दृष्ट्या या इस अपराध में उसका लिप्त होना माना है.
भारत सरकार की जांच एजेंसी सी.बी.आई., जो इस सारे मामले की जांच कर रही है, स्विस अधिकारियों से जनवरी 1997 में सारे कागजात प्राप्त कर पाई तथा तभी वह जान पाई कि ए.ई. सर्विसेज के अकाउंट में जमा हुई रकम का लाभार्थी ओट्टावियो क्वात्रोची है. प्राप्त हुई रकम की पहली किस्त भी 7.34 मिलियन डॉलर थी. क्वात्रोची को बोफोर्स ने अपना एजेंट ही इसीलिए बनाया था ताकि वह न केवल सरकार पर दबाव डाल सके बल्कि रिश्वत देकर उसे 1437.72 करोड़ का तोप सौदा दिला सके . पहले चरण में फ्रांस की सोफमा को पसंद किया गया, पर बाद में अचानक नाटकीय परिवर्तन आ गया.
ए.ई. सर्विसेज को कमीशन तभी मिलता जब सौदा 31.3.1986 से पहले हो जाता. भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 15.3.1986 को स्वीडन की यात्रा कर वहां घोषणा की कि तोप खरीद का सौदा बोफोर्स के साथ हो गया है. क्वात्रोची ने सौदे को बोफोर्स कंपनी द्वारा निश्चित की गई समय सीमा 31.3.1986 के भीतर पूरा करा दिया. भारत सरकार ने 25.5.1986 को अग्रिम धनराशि की पहली किस्त बोफोर्स कंपनी को दी. अगस्त 1986 में ए.ई. सर्विसेज का अकाउंट मायल्स स्टाट ने खोला. सी.बी.आई. का मानना है कि यह सब संयोग नहीं है.
आखिर ओट्टावियो क्वात्रोची को बोफोर्स कंपनी ने अपना एजेंट क्यों बनाया, जब कि क्वात्रोची को हथियारों व रक्षा संबंधी मामलों का कोई ज्ञान नहीं है. क्वात्रोची एक चार्टर्ड अकाउंटेंट है तथा 1968 से 1993 के बीच वह सनैम प्रोगेत्ती का चीफ एग्जीक्यूटिव अफसर था. उसका ज्ञान केवल पाइप लाइन बिछाने तथा तेल ट्रांसपोर्टेशन तक ही सीमित था. क्वात्रोची के साथ यह तथाकथित कंसलटैंसी एग्रीमेंट दरअसल बोफोर्स कंपनी द्वारा किया गया ऐसा एग्रीमेंट था, ताकि वह तोप सौदे की दौड़ में जीत सके तथा इसे प्राप्त करने के लिए क्वात्रोची का दबाव जो कि नौकरशाहों व राजनीतिज्ञों पर था, इस्तेमाल किया जा सके. यह नतीजा निकाला जा सकता है कि बिना इस तरह के दबाव को बनाए, बोफोर्स कंपनी यह तोप सौदा हासिल नहीं कर सकती थी.
भारत सरकार द्वारा दी गई पहली इंस्टालमेंट की रकम का 3 प्रतिशत कमीशन के रूप में दिया जाना यह साबित करता है कि ओट्टावियो क्वात्रोची ने सौदे को नेगोशिएट किया तथा ए.बी. बोफोर्स के पक्ष में पलड़ा झुका दिया. इसका यह भी मतलब निकलता है कि यह प्रक्रिया आगे भी जारी रहने वाली थी तथा क्वात्रोची इस हैसियत में था कि वह आगे भी भारत के उस समय के प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री तथा दूसरे पब्लिक सर्वेंट्स के साथ सफलतापूर्वक सौदे करा सकता था, जिसके बदले में उसे काफी लाभ तथा कमीशन मिलता. यह सारी बातें प्रिवैंशन ऑफ करप्शन एक्ट तथा इंडियन पैनल कोड के खिलाफ है.
इन दिनों ओट्टावियो क्वात्रोची मलेशिया की राजधानी कुआलालंपुर में रह रहा है. प्राप्त सबूतों के आधार पर केंद्रीय जांच ब्यूरो ने दिल्ली की विशेष अदालत के विशेष जज से ओट्टावियो क्वात्रोची के विरुद्ध ग़ैर जमानती वारंट जारी करने का अनुरोध किया. विशेष जज ने कोड ऑफ क्रिमीनल प्रोसीजर के तहत यह आदेश जारी कर दिया कि उनके सामने लाए गए मामले में क्वात्रोची ने अपराध किया है और वह गिरफ्तारी से बचने की कोशिश कर रहा है.
अब केंद्रीय जांच ब्यूरो को तय करना था कि क्वात्रोची को भारत कैसे लाया जाए, इसके दो तरीके थे या तो मलेशियन अधिकारियों से संपर्क करते और उनकी मदद से क्वात्रोची को भारत लाने की कोशिश होती या फिर इंटरपोल पुलिस उसे गिरफ्तार करने की कोशिश करती. भारत और मलेशिया के बीच प्रत्यर्पण संधि भी नहीं है. भारत में ऑपरेट करने वाले कई माफिया अब भी इन दिनों मलेशिया में रह रहे हैं और अंतरराष्ट्रीय कानूनों की खामियों का फायदा उठा रहे हैं.
केंद्रीय जांच ब्यूरो को आशंका थी कि अदालत की कार्रवाई की जानकारी मिलते ही क्वात्रोची मलेशिया से किसी अज्ञात देश में जा सकता है. इसलिए उसने इंटरपोल का रास्ता चुना. केंद्रीय जांच ब्यूरो ने इंटरपोल से अनुरोध किया कि वह भारतीय अदालत द्वारा जारी ग़ैर जमानती वारंट की तामील कराए. इंटरपोल ने 17.2.1997 को ओट्टावियो क्वात्रोची को खिलाफ रेड कार्नर नोटिस जारी कर दिया.
रेड कार्नर नोटिस जारी होने के दूसरे ही दिन इंटरपोल अधिकारियों का एक दल 18.2.1997 को मलेशिया रवाना हो गया और वहां उसने मलेशिया के अटार्नी जनरल से सलाह-मशविरा कर उन कदमों का निर्धारण किया जो उसे ओट्टावियो क्वात्रोची की उपस्थिति निश्चित करने के लिए उठाने थे.
ओट्टावियो क्वात्रोची को जैसे ही भारतीय अधिकारियों और इंटरपोल की कार्रवाइयों की जानकारी मिली, उसने इंटरपोल के कदम को चुनौती दी. उसने अपने वकीलों के जरिए 7.4.1997 को इंटरपोल द्वारा जारी रेड कार्नर नोटिस के आधार पर चुनौती देने वाली पिटीशन दायर की. इस पिटीशन को चार महीने बाद इंटरपोल के सुपरवाइजरी बोर्ड फॉर द इंटरनेशनल कंट्रोल ऑफ इंटरपोल आरकाइव्ज ने सुना. यह सुनवाई 29 और 30 सितंबर, 1997 को ल्योंस, फ्रांस में हुई. दो दिनों की सुनवाई के बाद ओट्टावियो क्वात्रोची के तर्कों को सुपरवाइजरी बोर्ड फॉर द इंटरनेशनल कंट्रोल ऑफ इंटरपोल आरकाइव्ज ने खारिज कर दिया और इंटरपोल द्वारा जारी रेड कार्नर नोटिस को जायज करार दिया. यह नोटिस कुछ दिनों पहले तक जारी था.
लेकिन क्वात्रोची ने हार नहीं मानी और वह इस सारी कार्रवाई को ही रुकवाना चाहा. जब वह इंटरपोल के सुपरवाइजरी बोर्ड में हार गया तब उसने भारत की अदालत का दरवाजा खटखटाया. उसने दिल्ली हाईकोर्ट में 24.3.1998 को एक पिटीशन फाइल की. इसमें उसने कहा कि भारतीय संविधान की धारा 226 व 227 के सैक्शन 482 क्रिमीनल प्रोसीजर कोड के तहत उसके खिलाफ तीस हजारी कोर्ट के विशेष जज श्री अजीत भरिहोक द्वारा 6.2.97 को जारी ग़ैर जमानती वारंट को रद्द कर दिया जाए, जिसका संबंध केस नं. आर.सी. 1(ए)/90 ए.सी.यू. आई. वी.एस.पी. सी.सी.बी.आई., न्यू दिल्ली से है.
क्वात्रोची की ओर से श्री दिनेश माथुर ने बहस की और सी.बी.आई. की ओर से श्री वेणु गोपाल ने. दोनों पक्षों ने विभिन्न केसों का हवाला दिया, लेकिन सारी बहस सुनने के बाद दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति देविन्दर गुप्ता ने ओट्टावियो क्वात्रोची की पिटीशन खारिज कर दी. अब सी.बी.आई को इस बात की आजादी मिल गई है कि वह क्वात्रोची को भारत ले आए. लेकिन सीबीआई सफल न हो सकी.