फ्रांस और आस्ट्रेलिया के विदेश मंत्रियों के साथ ‘रायसीना डाॅयलाॅग’ में हमारे विदेश मंत्री ने कहा कि भारत किसी ‘एशियाई नाटो’ के पक्ष में नहीं है। वे रुस और चीन के विदेश मंत्रियों के बयानों पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे। उन्होंने अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया के चौगुटे को ‘एशियाई नाटो’ की शुरुआत कहा था। अमेरिका के साथ हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सामरिक सहकार के इस गठबंधन की यदि चीन और रुस यूरोप के सैन्य-गठबंधन से तुलना कर रहे हैं तो यह ज्यादती ही है लेकिन उनका डर एकदम निराधार भी नहीं है। अमेरिका ने भारत-चीन सीमांत-मुठभेड़ के वक्त जो भारतपरस्त रवैया अपनाया, उससे चीन का चिढ़ जाना स्वाभाविक है। इधर रुस और चीन की घनिष्टता भी बढ़ रही है। इसीलिए इन दोनों राष्ट्रों के नेता अपने अमेरिका-विरोध के खातिर भारत पर उंगली उठा रहे हैं। वे इस तथ्य से भी चिढ़े हुए है कि भारत के खुले सामुद्रिक क्षेत्र में यदि कोई चीनी जहाज घुस आए तो भारतीय थल-सेना उसे तत्काल खदेड़ देती है और पाकिस्तानी नावें भारत की जल-सीमा में आ जाती है तो उन्हें वह पकड़ लेती है लेकिन 7 अप्रैल को अमेरिकी जंगी जहाज भारतीय ‘अनन्य आर्थिक क्षेत्र’ में घुसा बैठा है लेकिन भारतीय विदेश मंत्रालय ने सिर्फ हकलाते हुए उसका औपचारिक विरोध भर किया है। अमेरिका के प्रति भारत की यह नरमी रुस और चीन को बहुत ज्यादा खल रही है। इन राष्ट्रों को यह भी लग रहा है कि भारत दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा और शक्तिशाली राष्ट्र है लेकिन अपने पड़ौसी अफगानिस्तान के मामले में वह अमेरिका का पिछलग्गू बना हुआ है। इस तथ्य के बावजूद रुसी विदेश मंत्री ने दावा किया है कि भारत के साथ रुस के संबंध अत्यंत घनिष्ट हैं और वह पाकिस्तान को सिर्फ वे ही हथियार बेच रहा है, जो आतंकियों से लड़ने के काम आएंगे। भारत को अमेरिका के साथ-साथ रुस से भी अपने संबंधों को सहज बनाकर रखना है। चीन के साथ भी वह कोई मुठभेड़ की मुद्रा बनाकर नहीं रख रहा है लेकिन आश्चर्य है कि उसके पास भारत की एशियाई भूमिका का कोई विराट नक्शा क्यों नहीं है ? भारत नाटो की तरह कोई एशियाई या दक्षिण एशियाई सैन्य-गठबंधन न बनाए लेकिन यूरोपीय संघ की तरह एशियाई या दक्षिण एशियाई संघ बनाने से उसे कौन रोक सकता है? यदि बड़े एशियाई महासंघ में चीन से प्रतिस्पर्धा की आशंका है तो भारत दक्षिण एशिया और मध्यएशिया का एक महासंघ तो खड़ा कर ही सकता है। इस महासंघ में साझा बाजार, साझी संसद, समान मुद्रा, मुक्त आवागमन आदि की व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती ? इसके फायदे इतने ज्यादा हैं कि वे पाकिस्तान की आपत्तियों को भी धो डालेंगे। अधमरा दक्षेस (सार्क) उठकर दौड़ने लगेगा।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)

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