अश्लीलता पर बहस करेंगे तो भटक जाएंगे। आजकल एक फैशन हो गया है कि पहले बताइए अश्लीलता क्या है। फिर अनाप शनाप बहस और बातें। कल एक बहस देखी। विषय था – ‘क्या अश्लीलता फैला रहा है ओटीटी’ । अमिताभ श्रीवास्तव ने अच्छे मकसद से बहस आयोजित की । लेकिन पूरी बहस का कोई सिर पैर समझ ही नहीं आया। मुझे लगता है विषय होना चाहिए था – ‘ओटीटी में सैक्स, हिंसा और गाली गलौज कितना सही या कितना वाजिब’। बहस का मकसद यही था लेकिन अश्लीलता शब्द को लाकर सब ढेर हो गया, ऐसा लगा । अमिताभ की चिंता और बहस में शामिल अभिनेता रवि झांकल की चिंता जितनी वाजिब थी उसे देख कर यही कह सकते हैं कि केवल इन्हीं दोनों ने विषय को सही तरह से समझा। जाहिर है अमिताभ तो आयोजक ही थे । अभिनेता रवि झांकल की चिंता हमारी चिंता थी। समझ नहीं आता कि ओटीटी पर भरपूर समय लेकर दिखाया जा रहा सेक्स क्यों और किसलिए है। वीभत्स गालियां और हिंसा। समाज को एकदम नंगे तरीके से आईने में प्रस्तुत करेंगे तो उस नयी और अबोध पीढ़ी को हमारी देन क्या होगी ये न तो निर्माता निर्देशक समझ रहे हैं और न उसमें काम करने वाले कलाकार। ऐसा लगता है। या समझ कर भी चुप हैं क्योंकि समाज बदल रहा है। हमने शुरु में कहा ‘फूहड़ समाज’ । एक बार अजय ब्रह्मात्मज ने ही इसी शो में कहा था कि कॉरपोरेट दुनिया सब कुछ बरबाद कर रही है। लेकिन कल अजय ब्रह्मात्मज ने काफी निराश किया। पहले तो कोई उनसे पूछे ‘बेफिजूल’ शब्द क्या होता है। फिर सबसे बेहूदा तर्क है ‘सेल्फ रेगुलेशन’ का । जहां पैसा, लालच और शोहरत हो वहां सेल्फ रेगुलेशन का मतलब क्या होता है। वह भी भारत जैसे देश में ? पैनल में जितने लोग थे उसमें रवि झांकल और सुनील को छोड़ सभी बेतुके तर्क देते लगे । इस कार्यक्रम में हमेशा आने वाले धनंजय तो शायद विषय को ही नहीं समझे । समझे भी तो क्या तकरीर करें कुछ समझ नहीं आया। इसलिए वे बाल विवाह और अंधविश्वास पर केवल अटक ही नहीं गये, उसी पर बहस करने की जिद चाहते थे। विनोद पांडेय, जहां तक मुझे याद है ये उसी दौर के हैं जब चेतना, दस्तक और एक ही रास्ता जैसी फिल्में बनीं थीं। अगर ये वही हैं तो उस समय इनकी फिल्म देख कर हमारी बहुत घृणित धारणा बनी थी। बार बार बीच बीच में टोका टाकी जैसे लगता है इन्हें बोलने के लिए कोई प्लेटफार्म मिला ही नहीं कभी। बहरहाल, रवि झांकल ने बड़ी सादगी से स्वीकार किया कि वे ‘कंजरवेटिव फैमिली’ से आते हैं। जब वे एनएसडी में थे तब नीना गुप्ता को स्लीवलेस ब्लाउज में देख कर चौंके थे । स्वाभाविक है वह ग्लोबलाइजेशन से पहले का दौर था। हमारा समाज आज भी कहीं न कहीं कंजरवेटिव है। हम विकसित देश नहीं हैं। उसके होने में शायद सदियां लगेंगी । क्योंकि एकमात्र यही देश है जो दुनिया में सबसे बड़ा , फैला हुआ और भिन्न भिन्न दिमागों से घिरा हुआ है। उत्तर भारत, दक्षिण भारत, पूर्वोत्तर, मध्य भारत। लेकिन हमारा धूर्त राजा जबरन ठोक बजा कर हमें विकसित करना चाहता है। बेशक खाईयां बनें। पर इतिहास में राजा को अपना नाम नेहरू से कहीं आगे दर्ज करना है।
कंजरवेटिव समाज इस तरह और एकदम से विकसित नहीं हो सकता। अपनी नींव और चेतना में हम सब कहीं न कहीं आज भी कंजरवेटिव हैं। ‘टट्टी’ शब्द से पखाना और संडास की यात्रा करते हुए हम ‘वाशरूम’ तक पहुंचे हैं। आधा भारत नहीं जानता ‘वाशरूम’ क्या है। छोटे शहर और ग्रामीण भारत। अजय ब्रह्मात्मज ने बताया कि मुंबई के एक पार्क में मॉर्निंग वॉक के समय दो बुजुर्ग दो कन्याओं को घूर घूर कर देख रहे थे। उन्होंने कम वस्त्र पहने थे। इस बात से मुंबई शहर पर सवाल उठाना कितना जायज़ है। सम्भव है वे दोनों छोटे शहर से आए हुए किसी के मेहमान हों।
‘सहारा समय’ ने कुछ वर्ष पूर्व महात्मा गांधी के ब्रह्मचर्य प्रयोगों पर एक बहस चलाई थी। शायद वहां कुछ प्रगतिशील लोग बैठे रहे होंगे। उस बहस पर मैंने एक पत्र लिखा था कि अभी हमारा समाज इतना प्रौढ़ नहीं हुआ कि इस बहस को ठीक दिशा और सोच में ले सके । मेरा पत्र छापा दिया गया लेकिन बहस जारी रही। तब मैंने एक विस्तृत लेख लिखा और भेजा। खुशी, हैरानी और आश्चर्य इस बात पर नहीं हुआ कि लेख हू ब हू पूरे पृष्ठ पर बिना एक शब्द काटपीट के छाप दिया गया, बल्कि संतोष इस बात पर हुआ कि उस लेख के बाद वह बहस वहीं समाप्त हो गई। किसी ने तो समझा ही होगा। सोचना यही होता है कि हम किस चीज को किस तरह परोसें।
आज ओटीटी पर जो परोसा जा रहा है उसे गम्भीरता से देखिए। सेक्स क्रियाओं का प्रदर्शन कितना अनिवार्य है। क्या प्रतीकों में बात नहीं कही जा सकती। पंचायत जैसी वेबसीरीज कितनी बनी हैं। सस्पेंस, थ्रिल, ड्रामा भी जरूरी है पर क्या मर्यादाएं भूल कर। और स्वयं यह मान कर कि समाज मैच्योर हो चुका है। किसी को इस बात की सुध नहीं है कि अठ्ठारह साल से कम की पीढ़ी को क्या दिखाना है क्या नहीं। केवल ‘ए’ सर्टिफिकेट तो फिल्मों में बरसों से लिए जा रहे हैं। यह कहना कि मां बाप बच्चों पर अंकुश लगाएं, बेहद हास्यास्पद है। और अब जबकि पैदा होते ही बच्चे को मोबाइल के दर्शन कराए जाते हैं।
खैर साहब, कल की बहस अच्छे मकसद से की गई थी लेकिन भटक गई या अज्ञानता अथवा जानबूझ कर भटका दी गई। अश्लीलता पर जब भी आप बहस करेंगे भटका दिए जाएंगे। विषय शायद वही होना चाहिए था जो हमने ऊपर लिखा । रवि झांकल इस बहस में पहली बार आए । उन्होंने कहा भी कि इस विषय पर फिर बहस रखिए। अमिताभ को बहुत समझ बूझ कर विषय तय करना होगा। और विनोद पांडेय जैसे लोगों को पहले से आगाह कर दें तो अच्छा है वरना मूड बिगाड़ने को एक मच्छर काफी होता है।
कल अभय दुबे शो में दो बातें अच्छी लगीं। एक तो संतोष भारतीय का अलग अलग सवाल करना और तीनों सवाल अलग विषयों के । दूसरा, पानी के आसन्न संकट पर शुरुआती चर्चा। कोई इस तरह के विषयों को नहीं उठा रहा । पानी का संकट आज से तो उत्पन्न नहीं हुआ है। अभय जी ने अच्छा याद दिलाया दिल्ली की सड़कों पर मिलता मशीन से पानी। वह सत्तर का दशक था। चवन्नी में एक गिलास पानी मिलता था। शुरु शुरु में शायद दस पैसे में। हमारी एक परिचित जो गांव से आईं थीं देख कर अवाक हो गईं कि यहां पानी पैसे से मिलता है ? संतोष जी ने इस विषय को उठा कर कम से कम मेरे जैसे लोगों को तो संतुष्ट किया ही । उन्हें धन्यवाद। आशा है भविष्य में इस पर विस्तार से चर्चा करेंगे जैसे कि अभय जी ने कहा। जाहिर है उस चर्चा को देखने सुनने वालों की संख्या कम होगी। इसे इस देश की विडम्बना मानिए या दुर्भाग्य ही कहिए। फिर भी चर्चा होनी चाहिए। उसमें रोचकता हो इसका संतोष जी खयाल रखेंगे तो लोग आकर्षित होंगे ही होंगे। पानी की बरबादी और उसकी उदासीनता पर जरूर फोकस करें।
कल देर रात ‘ताना बाना’ में अत्यंत जरूरी बहस देखने को मिली – ‘प्रेमचंद विरोधी अभियान का एजेंडा क्या है’ । दुख यह हुआ कि न तो अजय नवारियो (?) और न ही मैत्रेयी पुष्पा को ठीक से सुन सके । आवाज कटती रही । दो वाक्यों के बाद ही लग रहा था कि आवाज कट रही है पर मुकेश जी ने बहुत देर बाद टोका । ऐसा उनके शो में अक्सर होता है। लेकिन कोफ्त सुनने वाले को होती है।
आज लिखने का विषय कुछ और था। बहुत बड़ा सवाल आज भी है कि हम मोदी से ‘हिप्नोटाइज़’ किस वर्ग को मानते हैं। मैंने देखा है कि अच्छे अच्छे जिन्हें हम प्रबुद्ध मान रहे हैं उनकी नजर में हिप्नोटाइज वर्ग कोई और है। इस विषय पर एक प्रबुद्ध से मेरी चर्चा हुई इसलिए लिखना जरूरी था। अगले अंक में ही सही ।
अश्लीलता फूहड़ समाज में प्याज के छिलकों जैसी है …..
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