Santosh-Sirमुझसे एक अजीब सवाल पूछा गया कि क्या अन्ना का आंदोलन समाप्त हो गया? क्या अन्ना शांत होकर बैठ गए? क्या इतने शांत हो गए हैं कि देश में जो भी हो रहा है या जो भी होने वाला है, उसके ऊपर उनकी कोई राय नहीं है? यह सवाल सुनकर मैं इसलिए चौंका, क्योंकि सवाल पूछने वाला व्यक्ति अन्ना जी का समर्थक है और उन्हें दिलो-जान से चाहता है. ऐसे व्यक्ति के मन में भी जब यह सवाल खड़ा हो, तब यह जानने की ज़रूरत है कि आख़िर अन्ना कर क्या रहे हैं.
अन्ना इस समय अपने आश्रम रालेगण सिद्धि में हैं, जो पूना से 80 किलोमीटर दूर है. पिछले अक्टूबर माह से अन्ना की तबियत ठीक नहीं चल रही है. अन्ना ने 30 मार्च, 2013 से देशव्यापी जनतंत्र यात्रा की शुरुआत की थी. अमृतसर का जलियावालां बाग यात्रा का प्रारंभ बिंदु था. आख़िरी बिंदु का तो पता नहीं, लेकिन पांच महीने अन्ना देश के छह राज्यों में घूमे. इन छह राज्यों में उन्हें अपार जनसमर्थन मिला. लोगों ने उनका साथ देने का वायदा किया. अन्ना उस उत्साह को देखकर गदगद थे और यात्रा जारी रखना चाहते थे, लेकिन अचानक अन्ना की कुछ बीमारियां उभर आईं. अन्ना की उम्र इस समय 76 वर्ष है और कुछ बीमारियां उम्र से भी जुड़ी होती हैं. अन्ना को जब पेशाब करने में थोड़ी दिक्कत आने लगी, तब उनका एक साधारण-सा ऑपरेशन प्रोस्टेट का हुआ, लेकिन प्रोस्टेट में डॉक्टरों को एक गांठ नज़र आई, तो वह साधारण-सा ऑपरेशन अचानक बड़ा हो गया. डॉक्टरों को वह गांठ निकालने में लगभग सात घंटे तक मेहनत करनी पड़ी. इस प्रक्रिया में अन्ना का इतना खून बह गया कि उनकी शारीरिक क्षमता निम्नतम स्तर पर आ गई थी. अन्ना ने ब्लड ट्रांसफ्यूजन लेने से मना किया और वह प्राकृतिक आहार से अपने शरीर में रक्त की मात्रा बढ़ाने का प्रयास करने लगे. अचानक एक दूसरी बीमारी सामने आई. अन्ना ने छह प्रदेशों की अपनी यात्रा सड़क मार्ग से की थी. लगभग 750 सभाएं हुईं और इन सभाओं के लिए गड्ढे भरी सड़कों, पहाड़ी सड़कों पर यात्रा के चलते अन्ना की रीढ़ की हड्डी में समस्या पैदा हो गई. उनकी रीढ़ की हड्डी के दो मनके घिस गए हैं, जिसकी वजह से उन्हें पीठ में बहुत दर्द हो रहा है, जिसकी दवाएं चल रही हैं. अन्ना की आवाज़ में भी कमजोरी दिखाई दे रही है. ऐसी स्थिति में भी अन्ना अपने आश्रम में प्रतिदिन उन सबसे मिलते हैं, जो मिलने आते हैं. रालेगण में उनसे मिलने के लिए देश भर से आने वालों का मेला लगा रहता है. अन्ना के पास स़िर्फ दोपहर में सोने के लिए एक घंटा है, जो संभवत: साढ़े तीन से साढ़े चार बजे का है, जब वह किसी ने नहीं मिलते. अन्यथा वह सुबह साढ़े आठ से लेकर रात साढ़े नौ-दस बजे तक लोगों से मिलते रहते हैं, उन्हें समझाते रहते हैं और देश के हालात पर बातचीत करते रहते हैं.
अन्ना राजनेता नहीं है कि प्रतिदिन प्रेस को बुलाएं और अपने वक्तव्य दें. और, चूंकि अन्ना राजनेता नहीं हैं, इसलिए राजनीतिज्ञ भी उनके पास नहीं जाते. अन्ना के समर्थक, खासकर उत्तर भारत के समर्थक उनसे मिलना चाहते हैं, लेकिन उनके पास इतने साधन नहीं होते कि वे यात्रा कर रालेगण सिद्धि पहुंच सकें. दूसरी तरफ़ मीडिया अन्ना के पास तभी जाता है, जब देश में कोई क्राइसिस हो या अरविंद केजरीवाल को लेकर उसे अन्ना से ऐसी कोई बाइट या वक्तव्य चाहिए, जो देश में कुछ अंतर्विरोध पैदा कर सके. यहां एक बात और देखने में आई है कि मीडिया अन्ना से कभी देश के बारे में, प्रधानमंत्री के बारे में, विरोधी दलों के बारे में या विकास के बारे में सवाल नहीं पूछता. ज़्यादातर सवाल अरविंद केजरीवाल को लेकर पूछे जाते हैं. अन्ना ऐसे सवालों का जवाब देने से हिचकते हैं, क्योंकि उनके लिए व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं है, मुद्दा महत्वपूर्ण है. इसीलिए अन्ना मीडिया को बहुत प्रोत्साहित भी नहीं करते. पिछले दिनों मीडिया के कुछ लोग रालेगढ़ गए और उन्होंने अन्ना का लंबा इंटरव्यू किया. इसी क्रम में जी न्यूज पर सुमित अवस्थी का लिया इंटरव्यू लोगों ने काफी दिलचस्पी से देखा.
इन दिनों अन्ना रालेगण में अपनी तबियत सुधारने के साथ-साथ देश में जनतंत्र कैसे आए और देश का जनतंत्र आख़िर कहां गायब हो गया, इसके ऊपर एक लंबा लेख लिख रहे हैं. अन्ना ने एक आर्थिक कार्यक्रम तैयार किया है. पहले अन्ना ने एक 24 सूत्रीय कार्यक्रम बनाया था और अब उसे वह 17 बिंदुओं पर ले आए हैं. उन्होंने उस आर्थिक कार्यक्रम को देश के सभी राजनेताओं को भेजा है और उनसे कहा है कि यह देश के लिए आवश्यक है. आप देश की जनता को यह आश्‍वासन दीजिए कि अगर आप लोकसभा चुनाव जीतते हैं, तो इस आर्थिक कार्यक्रम पर अमल करेंगे. आर्थिक कार्यक्रम में गांव हैं,
जल-जंगल-जमीन हैं, बेरोज़गारी है, किसान हैं, उनकी जमीनों से जुड़े मसले हैं, विदेशी कंपनियां हैं और भ्रष्टाचार से जुड़ी मुश्किलें हैं. दरअसल, यह दस्तावेज भारत के बदलाव का दस्तावेज है, भारत को अराजकता से बचाने का दस्तावेज है और भारत में नई राजनीति शुरू करने का दस्तावेज है.
यहां सबसे आश्‍चर्य की बात यह है कि दो राजनीतिक दलों को छोड़कर किसी ने भी इस आर्थिक कार्यक्रम पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दी. उनमें पहला नाम पश्‍चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का है. उनकी पार्टी के महासचिव श्री मुकुल राय ने अन्ना को एक पत्र भेजा है कि हम इस कार्यक्रम को संपूर्ण रूप से स्वीकार करते हैं और इसके लिए हम लड़ाई लड़ने को वचनबद्ध हैं. दूसरा, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इन कार्यक्रमों का मौखिक समर्थन किया है और उन्होंने कहा कि अन्ना के संघर्ष का, अन्ना की नीतियों का, अन्ना के कार्यक्रम का मैं पूरी तरह समर्थन करता हूं. इसके अलावा कोई राजनीतिक दल अभी तक आगे नहीं आया है. उत्तर प्रदेश की पीस पार्टी के डॉ. मोहम्मद अयूब ने इस दस्तावेज का सौ प्रतिशत समर्थन किया है और दूसरी तरफ़ राजस्थान के नेशनल पीपुल्स पार्टी के नेता डॉ. किरोड़ी लाल मीणा ने इस दस्तावेज का पूरी तरह समर्थन किया है. सवाल यह है कि चूंकि पीस पार्टी और नेशनल पीपुल्स पार्टी छोटी पार्टियां हैं, तो क्या उनके अन्ना के आर्थिक कार्यक्रम को स्वीकार करने के पीछे बड़ा बनने की आकांक्षा है या वे अपनी उतनी ही ज़िम्मेदारी महसूस करती हैं, जितनी गैर-ज़िम्मेदारी कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की दिखाई देती है. इन दोनों पार्टियों ने तो अन्ना के पत्र का अस्तित्व ही नहीं स्वीकार किया.
यद्यपि सारा देश जानता और मानता है कि श्री अन्ना हज़ारे की वजह से संसद में लोकपाल बिल पास हुआ. अगर अन्ना अनशन न करते, तो न यह लोकपाल बिल संसद में आता और न ही पारित होता. कुछ लोग चाहते थे कि अन्ना लोकपाल के इस रूप को न स्वीकार करें, क्योंकि यह उस रूप में नहीं है, जिस रूप में अन्ना ने अगस्त 2011 में देश के सामने रखा था. इस पर अन्ना ने जवाब दिया था कि मैं जहां तक ले आ सकता था, वहां तक ले आया हूं. अब इसके आगे का काम उन्हें करना चाहिए, जिन्हें लगता है कि यह काम अधूरा है या कमजोर है. उन्हें मजबूत लोकपाल लाने के लिए देश में प्रचार करना चाहिए और देश में घूमना चाहिए. देश में कोई तीसरा मोर्चा नहीं बना है. लोग भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस को वोट देने के लिए अभिशप्त हैं, क्योंकि इन दोनों के अलावा जो अन्य पार्टियां हैं, वे बातें ज़्यादा करती हैं और काम कुछ भी नहीं करतीं. धीरे-धीरे चुनाव सिर पर आ गया और अभी तक इन पार्टियों में औपचारिक बातचीत भी नहीं हुई.
पर एक हलचल दिखाई देती है, जिसे अन्ना के आर्थिक कार्यक्रम ने स्वीकार किया है. अन्ना का आर्थिक कार्यक्रम कई दलों के आपस में मिलने का एक केंद्र बिंदु बनता दिख रहा है. अगर यह केंद्र बिंदु काम कर गया और देश या बाहर के राजनीतिक कार्यकर्ता इसके इर्द-गिर्द इकट्ठा होने लगे, तो एक नए तरह का दबाव उन राजनीतिक दलों पर पड़ेगा, जो भाजपा और कांग्रेस से जुड़े हुए नहीं हैं और यही महत्वपूर्ण चीज इस समय देश की हवा में फैल गई है. भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बड़े नेता इसका जायजा ले रहे हैं कि कितने लोगों ने इस कार्यक्रम को माना और क्या जो लोग कार्यक्रम मानेंगे, अन्ना उनका समर्थन करने के लिए निकलेंगे. इस सवाल का जवाब अभी किसी के पास नहीं है. मेरा मानना है कि खुद अन्ना के पास भी अभी इस सवाल का जवाब नहीं है, लेकिन इस सवाल का जवाब मार्च में मिल जाएगा कि अन्ना का रुख-नज़रिया, जो उनका कार्यक्रम स्वीकार करते हैं राजनीतिक दल के तौर पर, उनकी तरफ़ क्या होगा और जो नहीं स्वीकार करते हैं, उनकी तरफ़ क्या होगा. आम आदमी पार्टी को लेकर भी अन्ना का रुख अप्रैल में साफ़ दिखाई देगा, जब वह प्रेस वालों के सामने उनके आर्थिक कार्यक्रम को मानने वाले लोगों के पक्ष या विपक्ष में राय देंगे.
यह दु:ख की बात कम और हर्ष की बात ज़्यादा है कि अन्ना हज़ारे देश को लेकर अभी भी खामोश नहीं बैठे हैं. वह एक ऐसा जमीनी दस्ता बनाना चाहते हैं, जो देश की समस्याओं के ऊपर किए गए वायदों पर निगरानी रखे या दबाव बनाए. अन्ना को लगता है कि देश की जनता जब तक संसद पर नियंत्रण रखने का सपना नहीं देखेगी, तब तक संसद उसके पक्ष में सोचने की स्थिति में नहीं आएगी और मेरा ख्याल है कि जयप्रकाश जी की संपूर्ण क्रांति की भावना और अन्ना के समाज परिवर्तन के क़दमों की भावना में अक्षरश: साम्य है. अब देखना यह है कि अन्ना का विश्‍वास कितने राजनीतिक दलों को हिला-डुला पाता है, कितने लोग तैयार करता है, जो अन्ना के सपने को लेकर लोकसभा में जाएं. और कितने लोगों, जिन्हें यह अपेक्षा है कि अन्ना चुनाव के गुण-दोष को लेकर राजनीतिक दलों के बारे में ज़रूर बोलेंगे, उन सबकी आशाएं कितनी फलीभूत होती हैं और शंकाएं कितनी निर्मूल साबित होती हैं या फिर शंकाएं फलीभूत होती हैं और आकांक्षाएं निर्मूल साबित होती हैं, यह देखने का वक्त है. और शायद अगले पंद्रह से बीस दिनों में स्थितियां साफ़ होनी शुरू हो जाएंगी.

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