कश्मीर में बाढ एक विशेष स्थिती थी लेकिन इसे विशेष सहायता नहीं मिली. हां, स्वैच्छिक सहायता मुस्तैदी से पहुंच रही थी. राज्य सरकार को यह पता नहीँ कि सितम्बर 7 और 8 को असल में ऐसा क्या हुआ जिससे श्रीनगर, जो सत्ता, व्यापार, उद्योग और पर्यटन का केन्द्र है, 40 फुट पानी के नीचे आ गया. राज्य के मुख्य सचिव, श्री इकबाल खांडे और उनके वरिष्ठ अधिकारियों ने सीपीए को बताया कि इस आपदा के असली कारण को जानने के लिए एक तकनीकी मूल्यांकन किया जाएगा. झेलम नदी श्रीनगर से हो कर बहती है. वरिष्ठ अधिकारियों ने बताया कि श्रीनगर में बहती हुई झेलम के किनारे-किनारे ही बाढ़ रिफिल चैनल है. यह 1902 में बना था.
सेंटर फार पॉलिसी एनालिसिस (सीपीए) की तीन सदस्यीय टीम ने 27 से 29 सितम्बर को कश्मीर घाटी के बचढ़ प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया. टीम में तुषार गांधी, आनंद सहाय और सीमा मुस्तफा शामिल थे. टीम ने यहां के निवासियों, दुकानदारों, बचाव कार्य में जुटे युवाओं व पत्रकारों से बातचीत की. कश्मीर में बाढ़ की ऐसी स्थित थी जिसमें उसे केंद्र से विशेष सहायता मिलनी चाहिए थी जो कि नहीं मिली. हालांकि स्वैच्छिक सहायता पूरी मुस्तैदी के साथ पहुंच रही थी. राज्य सरकार को अब तक यह नहीं मालूम चला है कि आखिर 7 और 8 सितंबर को आखिर क्या हुआ जिस वजह से राजधानी श्रीनगर 40 फुट पानी के नीचे आ गई. राज्य के मुख्य सचिव इकबाल खांडे और उनके वरिष्ठ अधिकारियों ने सीपीए को बताया कि इस आपदा के असली कारणों को जानने के लिए एक तकनीकी मूल्यांकन किया जाएगा. श्रीनगर झैलम नदी के किनारे बसा हुआ है. श्रीनगर में झेलम के किनारे-किनारे ही बाढ़ रिफिल चैनल है. इसे सन 1902 में बनाया गया था. इसके पीछे यह अवधारण थी कि झेलम नदी श्रीनगर से गुजरते हुए अधिकतम 80000 क्यूसेक पानी ले जा सकती है और 35000 क्यूसेक पानी स्थापित बाढ़ रिफिल चैनल के माध्यम से डिस्चार्ज किया जा सकता है. यह अवधारणा 112 साल तक चली. इन सौ से ज्यादा वर्षों में इस फ्लड चैनल का परीक्षण नहीं किया गया. दरअसल, इसके आस-पास बहुत से आवास बन गए हैं जो आपात स्थिति में पानी के सामान्य प्रवाह को बाधित करते हैं. सितंबर के पहले सप्ताह में यही आपात स्थिति आई और जिसका नतीजा झेलना पड़ा. अधिकारियों के अनुसार अनुमान था कि 7 और 8 सितंबर को 1.20 लाख क्यूसेक पानी श्रीनगर से हो कर जा रहा था. पानी की यह मात्रा झेलम में सामान्य तौर पर बहने वाले पानी की लगभग तीन गुनी के बराबर है. अब इतना पानी कांडीजल तक कैसे पहुंचा? यह अभी तक स्पष्ट नहीं है. इसे समझाने के लिए शीर्ष अधिकारी यह कहते हैं कि नदी के इस शहर में प्रवेश करने से पहले श्रीनगर के आसपास 6 सितंबर की दरमियानी रात को बादल फट गया होगा. यह एक बिन जांची-परखी परिकल्पना है. इस परिकल्पना का सृजन शासन-प्रशासन ने अपनी सुविधा के लिए किया है. इसलिए इसकी जांच की जानी चाहिए.
बाढ़
राज्य सरकार और उसके अधिकारी इस आकस्मिक समस्या से निपटने के लिए तैयार नहीं थे बावजूद इसके संबंधित अधिकारियों ने बताया कि हर घंटे नदियों के जलस्तर पर नज़र रखी जा रही है. हालांकि दक्षिणी कश्मीर के हिस्सों में लोगों को अग्रिम रुप से सचेत करने और गांवों को खाली कराने के लिए कोई प्रयास नहीं किए गए. ऐसा लगता है कि अधिकारियों को यह समझ में ही नहीं आया कि दक्षिणी कश्मीर की बाढ़ प्रदेश के दूसरे हिस्सों को अपनी चपेट में ले लेगी. हमारी नजर में सरकार ने कुछ या कहें न के बराबर प्रयास लोगों के घर और गावों को खाली कराने में किए. राज्य सरकार रेडियो और मस्जिदों में लगे लाउडस्पीकर्स का उपयोग ने लोगों के बीच खबर पहुंचाने के लिए किया गया. लेकिन लोगों को तो छोड़िए सरकारी अमले और अधिकारियों ने भी इन चेतावनियों को गंभीरता से नहीं लिया.
जो भी समय राज्य सरकार को मिला उस समय का उपयोग सरकार ने राहत सामग्री बोट, लाइफ जैकेट आदि की व्यवस्था करने में नहीं किया. सरकार के तैयारी न होने की बात इस बात से संकेत मिलता है कि जो सरकार हर साल ठंड के समय राजधानी को जम्मू स्थानांतरिक करने में दक्ष है उसने खुद को ऐसे सुरक्षित इलाके में पहुंचाने की रत्ती भर भी कोशिश नहीं की जहां वो लोगों से आपात स्थिति में संपर्क साध सकती. राज्य में पहले भी बाढ़ आती रही है लेकिन इतनी भयावह स्थिति कभी नहीं थी. इससे यह जाहिर होता है राज्य में आपदा प्रबंधन की कोई व्यवस्था ही नहीं है. एक युवा ने बताया कि वह सड़क पर बेतहाशा दौड़ा जा रहा था उससे भी तेज गति से पानी शहर की ओर बढ़ रहा था. कुछ ही घंटों में पूरा श्रीनगर भीषण बाढ़ की चपेट में आ गया. सेना की छावनी में भी पानी भर गया जहां सारे अधिकारी रह रहे थे. इसके बाद वो भी यहां से गायब हो गए. संचार के सारे साधन ठप्प पड़ गए.
बचाव कार्य
जब श्रीनगर में 20 फिट से ज्यादा पानी भरा सारी प्रशासन व्यवस्था, पुलिस, सेना सब कुछ डूब गया था सारे तंत्र को लकवा मार गया था. ऐसे में पीड़ितों को न तो बचाया जा सकता था न ही उन्हें राहत पहुंचाई जा सकती थी. पहले चरण में तो सेना अपने ही संसाधनों को बचाने में लगी रही. ऐसे में युवाओं ने अपने परिवार, पड़ोसियों को बचाया. पानी लगातार बढ़ रहा था और उनके सामने कई इमारतें पानी में डूबकर धराशाई हो गईं. जिन कश्मीरी नौजवानों को पत्थरबाजी करने वाले और दंगाई करने वालों की छवि रही है वो बाढ़ के समय सही मायनों में हीरो बनकर उभरे. यदि इन नौजवानों ने समय रहते प्रयास नहीं किए होते तो आज स्थिति और भी ज्यादा भयावह होती. जल्दी ही उन्हें सेना का साथ मिला जिसने बेहतरीन काम किया, लेकिन सेना अतिविशिष्ट लोगों, पर्यटकों और स्थानीय नागरिकों को वरीयता के आधार पर बचाने के प्रोटोकॉल से बंधी हुई थी. प्रोटोकॉल से बंधे होने के बावजूद सेना की प्रत्येक नाव में पांच से छह जवान थे. उन नावों में जान बचाने की गुहार कर रहे लोगों के लिए कम जगह थी. हालांकि जवानों श्रीनगर और अन्य बाढ़ प्रभावित इलाकों में लोगों को बचाने के लिए दिन रात एक कर दिया. अधिकांश कश्मीरी उनके प्रयासों की सराहना कर रहे हैं. लेकिन इस पूरे बचाव अभियान के हीरो वो कश्मीरी युवा हैं जिनके पास इस तरह की आपदा में लोगों को बचाने का न कोई अनुभव था न ही किसी तरह प्रशिक्षण मिला था.
राहत
राहत कार्य के शुरू होने से पहले बाढ़ में फंसे लाखों कश्मीरी पीने के पानी और खाने की किल्लत से जूझ रहे थे. राहत नौकाओं में सबसे पहले लोगों तक पानी और खाना पहुंचाया गया. हैलिकॉप्टर की मदद से भी फंसे लोगों के पास पानी और खाने के पैकेट गिराए गए लेकिन वो पैकेट लोगों के हाथ में पहुंचने की बजाए पानी में गिर गए. राष्ट्रीय औसत की तुलना में कश्मीर में डायबिटीज के मरीजों की संख्या 6 प्रतिशत ज्यादा है. ऐसे में बाढ़ के समय दवाओं और इंसुलिन की कमी एक बड़ी समस्या बन गई थी.
बाढ़ की स्थिति में राज्य सरकार पंगु दिखाई दी. ऐसे में कश्मीरी नौजवान आगे आए. नौजवानों और सेना के जवानों के गुट बना दिए गए जो लोगों तक राहत सामग्री पहुंचा रहे थे. राहत कार्य में सेना की मदद के लिए स्थानीय प्रशासन का आभाव दिखाई दिया. जम्मू और कश्मीर के बाहर की संस्थाओं और लोगों ने व्यक्तिगत रुप से बहुत सहयोग किया, इन्होंने डॉक्टरों की टीम बनाकर वहां भेजी, साथ ही राहत सामग्री और दवाईयां भी भेंजीं. बहुत जल्दी स्थानीय लोगों और सिविल सोसायटी के सहयोग से इंसुलिन जैसी दवाओं की कमी को दूर कर दिया गया. अधिकांश कश्मीरियों का कहना है कि राहत सामग्री की कहीं कोई कमी नहीं थी, कमी थी तो बस काम कर रही संस्थाओं के बीच समन्वय की. राज्य की नौकरशाही इसमें राहत कार्य में सबसे बड़ी बाधा थी. नेशनल कॉन्फ्रेंस और उनकी सरकार राजनीतिक लाभ लेने के लिए अपने बैनर तले राहत सामग्री बांट रही थी. इस वजह से भी राहत सामग्री लोगों तक पहुंचने में देरी हुई. फिलहाल सबसे बड़ी समस्या आ रही ठंड के मौसम की है ऐसे में गर्म कपड़ों कंबल और आश्रयों की जरुरत होगी. इस दिशा में अभी तेजी नहीं देखी गई है. लाखों लोग अभी भी आश्रयविहीन है. कुछ लोगों के घर बच भी गए हैं तो भी वह इस स्थिति में नहीं हैं कि वो उन में रह सकें. वहां उनके लिए रहना खतरे से खाली नहीं है क्योंकि बाढ़ की वजह से मकान जर्जर स्थिति में पहुंच गए हैं.
पुनर्वास
बाढ़ के कारण सरकारी प्रतिष्ठानों, सरकारी आवासों, सरकारी संपति जैसे कि सड़क, पुल, स्कूल, अस्पताल, संचार के माध्यम के साथ-साथ चावल और सेव की फसल को बहुत नुक्सान हुआ है. सरकार ने 30000 करोड़ रुपये की संपत्ति का नुक्सान होने का आकलन किया है. अनाधिकारिक तौर पर राजनितिक दल इस क्षति को 1 लाख, करोड़ रुपये मान रहे हैं. इसलिए यह समय की ज़रुरत है कि इस आपदा में हुई क्षति के वास्तविक अनुमान लगाने के लिए पेशेवर और अनुभवी लोगों की सेवाएं ली जाएं. राज्य में सेव उत्पादन की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण बारामुला जिले के वागूरा तहसील के सेब उत्पादक एसोसिएशन के अध्यक्ष बशीर मीर ने सीपीए को बताया कि बारामुला जिले के 25000 सेब उत्पादक किसान बैंकों से हर साल दो से तीन लाख रुपये का कर्ज़ लेते हैं, लेकिन बाढ़ की वजह से वे इस साल बैंक का क़र्ज़ नहीं लौटा पाएंगे. बाढ़ से पहले भी सेब की फसल एक घातक कीट की वजह से प्रभावित हुई थी. दक्षिणी कश्मीर के पुलवामा और शोपियन जिलों में भी सेब के बागानों को इन्हीं कारणों से क्षति पहुंची है. इसलिए अगर इस साल सेब के किसानों का क़र्ज़ माफ़ नहीं किया गया तो वे तबाह हो जाएंगे. कश्मीर में पुनर्वास का कार्य बड़े पैमाने पर होने जा रहा है, इसके पूरा होने मेंे कम से कम पांच साल का वक्त लगेगा.
मीडिया
नेशनल टेलीविज़न मीडिया के कवरेज ने सैलाब की वजह से फैली अफरातफरी को और बढ़ा दिया. ज्यादातर टीवी एंकरों और संपादकों ने सेना के हेलीकाप्टरों के द्वारा बाढ़ प्रभावित क्षत्रों का दौरा किया और बाढ़ में सेना के प्रयास की खूब तारीफ की. उनके कवरेज में स्थानीय नौजवानों के प्रयासों को बहुत कम जगह मिली या नहीं के बराबर मिली. कश्मीर के एक वरिष्ठ राजनेता ने बताया कि अगर मीडिया ने स्थानीय लोगों के कार्यों को नज़रअंदाज करके सेना की भूमिका को बढ़ा-चढ़ा कर पेश नहीं किया होता तो, बाढ़ राहत कार्य ने सेना और कश्मीरियों को एक दूसरे के करीब ला दिया होता लेकिन हुआ इसका उल्टा. बाढ़ का पानी जब बढ़ रहा था तो लोगों से इस तरह के असंवेदनशील सवाल पूछे जा रहे थे कि काबिज़ फ़ौज के हाथों बचाए जाने पर कैसा लग रहा है. हुर्रियत नेता मीरवायज़ उमर फारूक़ ने कहा कि वह सेना के कार्यों की प्रशंसा करते हैं लेकिन हमारे नौजवान जो कि वास्तव में इस त्रासदी के हीरो हैं, उनके प्रयास को किसी ने रिपोर्ट करने के बारे में सोचा तक नहीं. महबूबा मुफ़्ती ने हालत को और उलझाने के लिए मीडिया की आलोचन की. कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने वरिष्ठ पत्रकारों की आलोचना करते हुए कहा कि किसी भी वरिष्ठ पत्रकार ने यह देखने की कोशिश नहीं की हकीक़त में ज़मीन पर क्या हो रहा है.
सेना के हेलीकॉप्टर पर पत्थराव की दो घटनाएं हुईं, जिसे मीडिया ने दिखाया. इस वजह से लोगों का गुस्सा और भी बढ़ गया. दरअसल ऐसी केवल दो ही घटनाएं घटीं थीं. पहली घटना इस वजह से हुई थी क्योंकि एक नाव में बैठे लोगों को लगा कि हेलीकॉप्टर की हवा की वजह से उनकी नाव डूब जाएगी इसलिए लोगों ने उसपर पत्थर फेंके. पथराव की दूसरी घटना भी इसलिए घटी थी क्योंकि बाढ़ के दौरान सरकारी अमले की अनुपस्थिति के कारण लोग नाराज़ थे. सेना के अधिकारी इस स्थिति को समझते थे. मीडिया का आपदा की आड़ में अलगाववादियों को निशाना बनाने को भी लोगों ने पसंद नहीं किया. कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट के लीडर यासीन मालिक ने कोई नौका हाईजैक नहीं की थी और न ही हुर्रियत नेता अली शाह गिलानी को आर्मी ने बाढ़ से बचाया था. दरअसल उनका घर जिस इलाके में था वहां बाढ़ आई ही नहीं थी.
प्राकृतिक आपदा के लिए इन्सान जिम्मेदार
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