भाजपा अपने घोषणा-पत्र में राम मंदिर, यूनिफॉर्म सिविल कोड और अनुच्छेद 370 को लगातार शामिल करती रही है. वाजपेयी जी के समय सहयोगी दलों के सहमत न होने के कारण ये मुद्दे पीछे छूट गए और इन्हें कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में जगह नहीं मिल सकी. तब जो हुआ, अच्छा हुआ. अभी भाजपा ने अपने बल पर सरकार बनाई है. एनडीए को मिला दें, तो सरकार के पास प्रचंड बहुमत है. स्वाभाविक रूप से ये मुद्दे एक बार फिर उभर कर सामने आएंगे. हालांकि, राम मंदिर मुद्दा देश के दो बड़े धर्मों के बीच विवाद का विषय है, यूनिफॉर्म सिविल कोड भी ऐसा विषय नहीं है, जिसे हर धर्म-संप्रदाय के लोग सहर्ष स्वीकार कर रहे हों.
जो मुद्दा मुझे सबसे ज़्यादा परेशान कर रहा है, वह अनुच्छेद 370 है. यह कहना ठीक है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है. यही लंबे समय से भारत का पक्ष है. हालांकि, यह बात ऐतिहासिक सत्य है कि कश्मीर भारत के अन्य राज्यों जैसा नहीं है. कश्मीर कुछ शर्तों के साथ भारत में शामिल हुआ था, वह भी 15 अगस्त, 1947 को नहीं, 26 अक्टूबर, 1947 को. अवैध रूप से कश्मीर के अधिकांश भाग पर पाकिस्तान ने क़ब्ज़ा कर लिया था. जब आधे से भी कम कश्मीर भारत के साथ आया, तब कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने कुछ विशिष्ट शर्तों के साथ भारत में शामिल होने के अनुबंध पर हस्ताक्षर किए. इन शर्तों को अनुच्छेद 370 में शामिल किया गया है.
अनुच्छेद 370 ख़त्म करने की बात का क्या तार्किक आधार है? क्या हम इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्शेसन (अनुबंध पत्र) की वैधता समाप्त करना चाहते हैैं? यदि आप कश्मीर पर अपना अधिकार ख़त्म करना चाहते हैं, तो यह ठीक क़दम है, लेकिन यह कहना कि अनुच्छेद 370 हटा कर कश्मीर को भारत के साथ एकीकृत किया जा सकता है, यह तर्क बेहद बचकाना है. क़ानूनन कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, परेशानी केवल भावनात्मक जुड़ाव की है. 1990 के बाद कश्मीर में कई तरह की परेशानियां उठ खड़ी हुईं. भाजपा इसके लिए कांग्रेस को ज़िम्मेदार मानती है, लेकिन जो समाधान भाजपा देना चाहती है, वह उससे भी ख़तरनाक है. कश्मीरियों को लगता है कि उनसे किया गया वादा पूरा नहीं किया जा रहा है.
अगर आप सचमुच कश्मीर को अखंड बनाए रखना चाहते हैं, तो आपको अनुच्छेद 370 और मजबूत करना होगा, बजाय इसे ख़त्म करने के. 1953 में शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार करके स्थिति और भी ख़राब कर दी गई थी. आज कश्मीर में नई पीढ़ी है, लेकिन इतिहास सब पढ़ते हैं. उन्हें पता है कि केंद्र की सरकार ने 370 को कैसे कमज़ोर बनाने की कोशिश की. 1957 में अब्दुल्ला फिर से सत्ता में आए. ख़राब स्वास्थ्य की वजह से शेख अब्दुल्ला ज़्यादा दिनों तक सरकार नहीं चला पाए. 1982 में उनकी मौत हो गई. फिर उनके बेटे फ़ारुख़ अब्दुल्ला ने सत्ता संभाली और 1983 में चुनाव जीतकर सत्ता में वापस लौटे.
कांग्रेस हार बर्दाश्त नहीं कर सकी और उसने तोड़-फोड़ करके अब्दुल्ला के बहनोई जी एम शाह को कठपुतली मुख्यमंत्री बनवा दिया. इसके बाद पहली बार यहां हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए. कश्मीर न तो हिंदू राज्य था, न मुस्लिम राज्य. यह सच्चे मायने में एक सेकुलर राज्य था. सूफीवाद यहां के रग-रग में बसता है. अनुच्छेद 370 को हटाने से सैयद अली शाह गिलानी जैसे नेता और ज़्यादा मजबूत अवस्था में आ जाएंगे. जो स़िर्फ एक मौक़ा चाहते हैं, यह कहने का कि कश्मीर का भारत में विलय किया जाना ग़लत था और भारत ने अपने वादे कभी पूरे नहीं किए. हमें कश्मीर के लोगों, पाकिस्तानियों और पूरी दुनिया को बताना होगा कि यह एक ऐसा देश है, जो नियम-क़ायदों के साथ ही चलता है.
अगर आपने कोई वादा कर दिया, तो समझ लीजिए, कर दिया. और, संवैधानिक दायरे मेंे रहकर किया गया कोई भी वादा तो पवित्र होता है. अब इस मामले पर पीछे जाने का कोई मतलब ही नहीं है, जबकि कश्मीर की जनता ही इसे कराना चाहे. निश्चित रूप से 370 ख़त्म होना चाहिए, यह एक तात्कालिक व्यवस्था ही थी, लेकिन इसके लिए जम्मू- कश्मीर विधानसभा को एक रिजोल्यूशन पास करके दिल्ली भेजना चाहिए कि हां, हम चाहते हैं कि अनुच्छेद 370 को ख़त्म किया जाए, किंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है. यहां तक कि सरकार का बर्ताव देखकर भी ऐसा महसूस नहीं हो रहा है. ऐसी अवस्था में उधमपुर के भाजपा सांसद द्वारा अनुच्छेद 370 के बारे में बयान दिया जाना भड़काऊ है. हालांकि, सरकार के एक दूसरे मंत्री ने इसे तुरंत सुधार दिया.
जो भी हो, देश के नए प्रधानमंत्री को इस समस्या के और भीतर जाने की ज़रूरत है. इस मामले पर भाजपा के अपने तर्क हो सकते हैं, लेकिन इतिहास को भी बारीकी से देखे जाने की ज़रूरत है. अगर आप वास्तव में यह चाहते हैं कि कश्मीर आपके साथ रहे, तो वाकई यह उतना कठिन काम नहीं है. इसके लिए ज़रूरी यह है कि आप जनता के बीच में सच्चे दिखाई दें. दरअसल, यह भाजपा के लिए स्वर्णिम अवसर है, जब वह दिखा सकती है कि वह संविधान में कितना विश्वास करती है. देश में जिन अन्य राजशाही राज्यों को मिलाया गया था, उन्हें भी प्रीवी पर्स जैसे कुछ विशेष अधिकार दिए गए थे. इंदिरा गांधी ने इन सबको 1969 में एक बार में समाप्त कर दिया था. उस समय भाजपा के पूर्व अवतार जनसंघ ने कड़ा विरोध दर्ज़ कराया था. यही नहीं, वल्लभ भाई पटेल के वादों की याद दिलाई गई थी. आख़िर आप किस रास्ते पर जा रहे हैं? इंदिरा गांधी के पास दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत था, तो उन्होंने ऐसा कर दिया.
भाजपा वही ग़लती दोहराना चाहती है. ज़ाहिर है, आपके पास दो तिहाई बहुमत दोनों सदनों में नहीं है, इसलिए अनुच्छेद 370 हटाना मुश्किल है, लेकिन भाषा में संयम ज़रूरी है. उन्हें कहना चाहिए कि संवैधानिक गारंटी बरकरार रखी जाएगी. कोई उसे तब तक नहीं हटा सकता, जब तक कि कश्मीर के लोग न चाहें. यही रास्ता है कश्मीर को अखंड रखने का. इसके साथ ही वहां से सेना हटाने या संख्या कम करने जैसे उपाय भी करने होंगे. वहां के हर गली-मोहल्ले में बंदूक लिए सेना के जवान मिल जाएंगे. यहां तक कि पर्यटकों को भी इस सबसे डर लगता है. यह भय ख़त्म करना होगा.
आप यह सब उपाय करके देखिए कि कितनी तेज़ी से कश्मीर के लोग भारत को भरोसेमंद मानने लगते हैं. उन्हें यह एहसास कराना होगा कि स्वतंत्र होना कोई विकल्प नहीं है और पाकिस्तान पर वे भरोसा नहीं कर सकते हैं. लेकिन, दुर्भाग्य से हमारे बीच के ही लोग अपनी बातों से यह ज़ाहिर कर रहे हैं कि कैसे हम उनसे किए गए वादे तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं. अगर एक बार भी हम कश्मीर के लोगों से किए गए वादे तोड़ना शुरू कर देते हैं, तो हमें जो एक सभ्य, मुक्त एवं निष्पक्ष न्यायपालिका और क़ानून का पालन करने वाले लोकतंत्र का दर्ज़ा मिला हुआ है, वह ख़तरे में पड़ जाएगा.
अनुच्छेद 370 को ख़त्म नहीं, मज़बूत करना होगा
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