अरविंद केजरीवाल अकेले अन्ना के पास महाराष्ट्र सदन गए और वहां पर उन्होंने अन्ना से कहा कि अन्ना, आपको गलतफहमी हुई है, लोगों ने आपको बहका दिया है. अन्ना उनकी बात सुनते रहे. स़िर्फ दो लोग उस मीटिंग में थे, एक स्वयं अन्ना हजारे और दूसरे अरविंद केजरीवाल. अरविंद 20 मिनट बाद चले गए. अरविंद केजरीवाल फिर अगले दिन अन्ना से मिलने आए और इस बार उनके साथ उनकी टीम के सारे विद्वान सदस्य थे. बंद कमरे में अरविंद केजरीवाल की टीम और अन्ना हजारे के बीच बातचीत हुई.
1अन्ना हजारे ने ममता बनर्जी का समर्थन कर दिया. न स़िर्फ समर्थन किया, बल्कि उन्होंने यह भी कहा कि वह ममता बनर्जी के लिए प्रचार करेंगे और चाहेंगे कि देश की अगली प्रधानमंत्री ममता बनर्जी बनें. अन्ना हजारे सारी ज़िंदगी राजनीति से दूर रहे. उन्होंने कभी किसी राजनीतिक दल के लिए समर्थन नहीं किया, कभी राजनीतिक दलों के मंच पर नहीं गए और न ही किसी राजनीतिक दल को अपने पास फटकने दिया. सवाल यह है कि आख़िर अन्ना हजारे ने 2014 के लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी का समर्थन क्यों किया? और यह सवाल उन सब लोगों के मन में है, जो अन्ना हजारे को स़िर्फ देखते हैं, न उनकी बातें सुनते हैं और न उनकी बातों में छिपे गूढ़ार्थ को समझना चाहते हैं. अन्ना हजारे ने तीन महीने पहले तक यह कहा कि वह पक्ष और पार्टी को संविधान सम्मत नहीं मानते. उनका कहना है कि राजनीतिक दल शब्द भारत के संविधान में नहीं है और न दलीय व्यवस्था का जिक्र. भारत के संविधान में जनतंत्र गणराज्य शब्द है. तब ये राजनीतिक दल आख़िर आए कहां से?
तब आख़िर ऐसा क्या हुआ कि अचानक अन्ना हजारे ने 8 और 9 फरवरी को दिल्ली में संकेत दिया कि वह ममता बनर्जी को देश में सबसे ज़्यादा ईमानदार, सबसे ज़्यादा जनता के प्रति समर्पित और सबसे ज़्यादा जुझारू व्यक्तित्व मानते हैं. वह जब दिल्ली से लौटकर 10 फरवरी की सुबह पूना पहुंचे, तो इंडिया टीवी को दिए एक खास इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि मैं ममता बनर्जी को देश के प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहता हूं और जितना संभव होगा, मैं इसके लिए प्रयास करूंगा. इसके बावजूद लोगों को विश्‍वास नहीं हुआ और सबसे बड़ी चीज कि आख़िर यह असंभव घटना हुई कैसे? कैसे अन्ना हजारे ने अपने ग़ैर राजनीतिक संकल्प को त्यागते हुए अपनी भीष्म प्रतिज्ञा तोड़ दी और उन्होंने तृणमूल कांग्रेस के समर्थन की घोषणा कर दी.
पिछले वर्ष 30 जनवरी को अन्ना हजारे ने पटना के गांधी मैदान में एक बड़ी रैली की. लगभग पौने दो लाख लोग वहां आए थे. वहां अन्ना हजारे ने कहा कि मेरा उद्देश्य जनलोेेकपाल लाना है, राइट टू रिजेक्ट, राइट टू रिकॉल लाना है, लेकिन सबसे बड़ी चीज मैं व्यवस्था परिवर्तन चाहता हूं और व्यवस्था परिवर्तन का मतलब देश की नीतियों में संपूर्ण बदलाव से था. देश में बाज़ार आधारित आर्थिक नीति अन्ना के लिए जहर के समान है. अन्ना का मानना है कि देश में जब तक गांव मजबूत नहीं होंगे, गांव आधारित उद्योग नहीं खड़े होंगे, तब तक देश में बेरोज़गारी से लड़ा ही नहीं जा सकता. न भ्रष्टाचार से लड़ा जा सकता है और न महंगाई से लड़ा जा सकता है. अन्ना ने अपनी इस समझ का पटना के गांधी मैदान में विस्तार से वर्णन किया. उसके बाद अन्ना ने 30 मार्च से अपनी देशव्यापी यात्रा की शुरुआत की. अन्ना अमृतसर गए. जालियांवाला बाग, जिसे वह शहीद भूमि कहते हैं, उसकी मिट्टी अपने माथे से लगाई. शहीदों के स्मारक पर अपना सिर झुकाया और देशव्यापी यात्रा पर निकल गए.
अन्ना पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में घूमें. लगभग 28 हजार किलोमीटर उन्होंने यात्रा की. साढ़े सात सौ से ज़्यादा सभाएं उन्होंने संबोधित कीं. हर सभा में उन्होंने देश को बदलने का अपना संकल्प दोहराया और कहा, मैं इन राजनीतिक दलों की जगह पर देश के चरित्रवान, ऊर्जावान एवं ईमानदार लोगों को संसद में भेजने का पक्षधर हूं. अन्ना जनलोकपाल के लिए भी लोगों को जगाते रहे. दरअसल, उनकी यह यात्रा जहां एक तरफ़ लोगों को जगाने का सशक्त अभियान थी, वहीं दूसरी तरफ़ अन्ना के लिए भी समझ के पैमाने पर स्वयं को और उससे ज़्यादा देश को समझने का माध्यम भी थी. अन्ना ने इस पूरी यात्रा में लोगों का दु:ख-दर्द, तकलीफ, सरकारों एवं राजनीतिक दलों का रवैया देखा. वहीं अन्ना ने देखा कि जिन लोगों को उन्होंने 2011 के रामलीला मैदान में आमरण अनशन कर खड़े होने के लिए प्रेरित किया था, उन्हीं में से कुछ लोग उनका विरोध जगह-जगह कर रहे हैं, क्योंकि तब तक अरविंद केजरीवाल अपना राजनीतिक दल बना चुके थे या बनाने की घोषणा कर चुके थे और लोग चाहते थे कि अन्ना हजारे कुछ भी नया न करें, बल्कि वह अरविंद केजरीवाल के नए बनने वाले राजनीतिक दल का समर्थन करें.
अन्ना के लिए एक विश्‍वास टूटने जैसी स्थिति थी, लेकिन उन्होंने बिना धैर्य खोए हर जगह लोगों को समझाया कि क्यों वह राजनीतिक दल के ख़िलाफ़ हैं. उन्होंने यह भी लोगों को समझाया कि विधानसभाएं देश की नीतियां नहीं बदलतीं, देश की नीतियां लोकसभा से बदलती हैं और यहीं उनकी बातों से यह पता चला कि उन्होंने अरविंद केजरीवाल को विधानसभा का चुनाव लड़ने से मना किया, लेकिन अरविंद ने उनकी बात नहीं मानी और वह यह मानकर कि वह दिल्ली से जीत जाएंगे और दिल्ली को एक आदर्श राज्य बनाएंगे, जिसका देश में फायदा होगा और पूरा देश उनके इस प्रयोग को अपनाने के लिए तैयार हो जाएगा, विधानसभा चुनाव लड़ गए. अन्ना स़िर्फ एक चुनाव लड़ना चाहते थे और वह लोकसभा का चुनाव होता. ऐसा उस यात्रा में अन्ना के विभिन्न भाषणों से अर्थ झलकने लगा. अन्ना ने बनारस की मीटिंग में यह घोषणा कि वह संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दिन आमरण अनशन करेंगे, अगर संसद ने जनलोकपाल बिल नहीं बनाया तो.
इस सारे मंथन में अन्ना ने एक जगह यह भी कहा कि वह तीसरी ताकत की खोज में हैं, जो बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था के ख़िलाफ़ खड़ी हो और गांवों को शक्तिशाली वैधानिक केंद्र के रूप में विकसित करे. गांव आधारित उद्योग लगाए, कोई भी बेरोज़गार गांव-ब्लॉक या जिले से बाहर न जा सके, फसल का पूरा दाम किसान को मिले, किसान की कोई जमीन न छिने और जल, जंगल, जमीन पर ग्रामसभा का अधिकार हो. अन्ना ने अपनी इस सोच को अपने भाषणों में कहना शुरू किया और तब आई मई. अन्ना ने थोड़े दिनों के लिए अपनी यात्रा रोकी, क्योंकि उनकी आंख का ऑपरेशन होना था और जब अन्ना यात्रा का दूसरा चरण शुरू करने के लिए दिल्ली आए, तब तक उनके दिमाग में नक्शा बनने लगा था. अन्ना ने दिल्ली आकर राजनीतिक दलों को पत्र लिखा. अन्ना ने राजनीतिक दलों को पत्र लिखकर कहा कि अब तक जो हुआ, सो हुआ, अब सभी लोग देश के लिए एक साथ बैठिए और अब गांव एवं ग़रीब के लिए मिलकर विकास की योजना बनाइए. इसके लिए अन्ना ने शुरुआती 17 बिंदु सुझाए. ये 17 बिंदु देश के बदले हुए रास्ते के मील के पत्थर थे, नया इतिहास बनाने के निशान थे, लेकिन किसी राजनीतिक दल ने इन बिंदुओं का उत्तर नहीं दिया. अन्ना लगातार यह सोच रहे थे कि क्या राजनीतिक दल इतने संवेदनहीन हैं कि उन्हें जनता का कोई ख्याल नहीं. उस पत्र में अन्ना ने बहुत अपनत्व के साथ लिखा था कि अगर आप इन मुद्दों को अपने चुनाव घोषणापत्र में शामिल करेंगे, तो लोगों में 60 साल से चली आ रही दुर्व्यवस्था, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी एवं महंगाई से छुटकारा पाने का हौसला पैदा होगा, क्योंकि अन्ना सारे रास्ते देख रहे थे कि लोगों में गुस्सा इस कदर बढ़ा है कि वे अब सरकारों को अपने दु:ख की वजह मानने लगे हैं. अन्ना ने कई मीटिंगों में कहा कि नक्सलवाद इसलिए नहीं पनपा है कि लोगों को नक्सलवादी बनने का शौक है, बल्कि नक्सलवाद इसलिए पनपा है, क्योंकि व्यवस्था ने अपना काम नहीं किया, लोगों को उनके हिस्से का विकास नहीं दिया, लोगों की उनकी थाली से रोटी छिनी, पानी छिना, जंगल छिना, जमीन छिनी और इस बात को अन्ना ने कहीं छिपाया नहीं.
अचानक अन्ना हजारे के पास ममता बनर्जी का एक संदेश आया कि वह उनके इस पत्र को लेकर बहुत ही ज़्यादा रोमांचित हैं और संदेशवाहक ने अन्ना से यह कहा कि ममता बनर्जी ने बंगाल में इनमें से कई चीजों को लागू किया है और जानना चाहती हैं कि अगर वह इस पत्र का समर्थन करें, तो क्या अन्ना इस समर्थन को स्वीकार करेंगे. अचानक अन्ना को लगा कि इस व्यवस्था को बदलने का एक सिरा उनके पास है. दरअसल, अन्ना व्यवस्था को बदलने के दो तरीकों के बारे में सोच रहे थे. एक तरफ़ वह जनता को खड़ा करना चाहते थे, दूसरी तरफ़ वह राजनीतिक दलों में से ऐसे लोगों को तलाशने की कोशिश कर रहे थे, जो व्यवस्था को बदलने के लिए ईमानदारी से कोशिश करें. जैसे ही ममता बनर्जी का संदेश मिला, अन्ना ने बिना कोई उत्तर दिए उस पर विचार करना शुरू किया और अपने एक-दो साथियों से बहुत दूरी का घेरा बनाकर यह जानना चाहा कि अगर इस व्यवस्था में कुछ लोगों को भेजा जाए, संसद में जन उम्मीदवारों को भेजा जाए, तो क्या लोग इससे उत्साहित होंगे? अन्ना बिल्कुल एक नेता की तरह काम करते हैं. अन्ना लोगों की राय पर ़फैसला नहीं करते, बल्कि अन्ना के दिल में आम लोगों को लेकर जो उत्तर आते हैं, उन पर वह ़फैसले लेते हैं. इसमें बहुत सारे लोग अन्ना से दूर चले जाते हैं, क्योंकि अन्ना के पास ज़्यादातर ऐसे लोग अब तक आए, जिन्होंने अपना एजेंडा अन्ना के जरिये पूरा कराना चाहा. उनमें बहुत सारेे लोग राजनीतिक दलों से प्यार करने वाले थे. अन्ना को उस तरफ़ मोड़ना चाहते थे. अन्ना सबकी बात सुनते थे और किसी को भी मना नहीं करते थे, लेकिन फैसला अपने दिल से लेते थे.
अन्ना का विचार मंथन उनके अंदर ही अंदर शायद चल रहा था. इसीलिए जनवरी के मध्य में ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी की तरफ़ से अपने महासचिव को आदेश दिया कि वह फौरन अन्ना के खत का जवाब दें और उनसे कहें कि उनके विचार के हिसाब से 2009 और 2011 में कुछ क़दम उठाए गए हैं और वह देश के पैमाने पर अन्ना का आर्थिक कार्यक्रम न केवल स्वीकार करती हैं, बल्कि वह अन्ना से यह अपेक्षा करती हैं कि अन्ना इन कार्यक्रमों को लागू करने में उनका दिशा-निर्देशन भी करेंगे. यह पत्र अन्ना के पास पहुंचा. अन्ना ने चुपचाप इस पत्र को अपने पास रख लिया और उन्होंने इस पत्र के बारे में किसी को नहीं बताया. ममता बनर्जी चाहती थीं कि 30 जनवरी को कोलकाता के ब्रिगेड मैदान में होने वाली उनकी रैली में अन्ना आएं और अपने विचार रखें. वह तृणमूल का समर्थन न करें, लेकिन जनता की तकलीफों को लेकर उनके अंदर जो गुस्सा है या उनके अंदर जो उसे बदलने का नक्शा है, उसे लोगों को बताएं. लेकिन अन्ना हजारे ने इसे स्वीकार नहीं किया और वह 30 जनवरी, 2014 को कोलकाता की रैली में नहीं गए.
कोलकाता की रैली ऐतिहासिक रैली थी. लगभग 20 लाख लोग इस रैली में थे. आसपास की सड़कें भरी थीं. समूचा कोलकाता जैसे थम सा गया था. ग़रीब लोग, अपने खर्चे से आए लोग, नारे लगाते लोग बड़ी संख्या में आए और उन्होंने ममता बनर्जी का समर्थन किया. इसी रैली में ममता बनर्जी ने घोषणा की कि दंगा पार्टी नहीं चाहिए और राजवंश नहीं चाहिए. उनका इशारा भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की ओर था. ममता बनर्जी की इस घोषणा ने सारे देश में उनके प्रति चलाए जा रहे इस प्रचार को भी गलत साबित कर दिया कि उनका भारतीय जनता पार्टी के साथ कोई रिश्ता हो सकता है. दरअसल, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ममता बनर्जी की छवि धूमिल करने के लिए भाजपा का नाम ले रही थी और बुद्धदेब भट्टाचार्य ने एक मीटिंग में कहा कि ममता बनर्जी और नरेंद्र मोदी के बीच साठगांठ है. दरअसल, आज किसी को भी बदनाम करना हो, तो नरेंद्र मोदी का नाम उसके साथ जोड़ना फैशन बन गया है. कोलकाता समेत पूरे पश्‍चिम बंगाल में अपने घटते जनाधार को लेकर सीपीएम बहुत परेशान है. उसने ममता बनर्जी के ऊपर जब आरोप लगाए और ममता बनर्जी ने उनका जवाब दिया, तो स्थिति बिल्कुल साफ़ हो गई.

अन्ना ने खामोश होकर सबकी बातें सुनीं, पर कुछ नहीं बोले. लेकिन, जब सबने जोर डाला, तो अन्ना ने कहा कि मैं आप लोगों के विचार से सहमत नहीं हूं. गांधीवादियों की बैठक में सांप सूंघ गया और वहां अन्ना हजारे ने कहा कि मैंने देश के लिए एक आर्थिक कार्यक्रम बनाया है और उस आर्थिक कार्यक्रम का जवाब ममता बनर्जी ने दिया है और मुझे ममता बनर्जी ठीक लगती हैं. उन्होंने ममता बनर्जी की तारीफ़ में जो भाषण दिया, उससे वहां बैठे लोग इतने ज़्यादा चौंक गए कि अन्ना जब गए, तो उसके बाद उनमें से कोई अन्ना से मिलने भी नहीं गया.

अन्ना हजारे इस सारी स्थिति के ऊपर पैनी नज़र रख रहे थे. उन्हें बहुत आशा थी कि नीतीश कुमार एवं नवीन पटनायक जैसे लोग उनके पत्र का जवाब ज़रूर देंगे. अन्ना नीतीश कुमार के प्रति अपना स्नेह कभी छिपाते नहीं थे. उनका नीतीश कुमार से पहले से ही परिचय था और हिंदीभाषी होने के कारण वह नीतीश कुमार को समझने की कोशिश भी करते थे. लेकिन, जब नीतीश कुमार ने अन्ना हजारे के पत्र का जवाब नहीं दिया, तब अन्ना को लगा कि यह राजनीति अच्छे-अच्छे लोगों को भटका देती है. तब उन्होंने ममता बनर्जी के पत्र के ऊपर विचार मंथन शुरू कर दिया. उन्हें लगा कि यह ममता बनर्जी हो सकती हैं, जो देश के लोगों का उद्धार करें. यद्यपि अन्ना अब तक ममता बनर्जी से मिले नहीं थे, पर उन्होंने ममता बनर्जी के बारे में जानकारी ली, बंगाल के शासन के बारे में जानकारी ली, लोगों के प्यार को लेकर जानकारी ली और पंचायत चुनावों में जिस तरह ममता बनर्जी जीतीं, उसके बारे में जानकारी ली, तो उनके मन में शायद कोई संदेह नहीं रह गया और उन्होंने स्वयं को ममता बनर्जी के पक्ष में खड़ा करने का मन बना लिया.
अन्ना के मन में यह चल रहा था कि एक तरफ़ निर्दलीय खड़े हों, लेकिन दूसरी तरफ़ अगर ममता बनर्जी जनता को हलफनामा देती हैं कि वह इन 17 सूत्रीय कार्यक्रमों को देश में लागू करेंगी, तो ममता बनर्जी का समर्थन करना चाहिए, क्योंकि और कोई इन 17 सूत्रीय कार्यक्रमों पर अमल करना तो दूर, इसके ऊपर चर्चा भी नहीं करना चाहता. दूसरी तरफ़ जितने भी लोग अन्ना हजारे से मिल रहे थे या उनके भाषण सुन रहे थे, प्रतिक्रिया स्वरूप वे अन्ना से पूछते थे कि अन्ना, हम आपकी बात मानते हैं, पर आप हमें यह तो बताएं कि हम वोट किसे दें. अन्ना इस पर चुप रह
जाते थे, क्योंकि उनके पास कोई हथियार नहीं था, कोई संगठन नहीं था, जिसके बारे में वह कहते कि लोग लोकसभा को बदलने के लिए इस या उस पार्टी को वोट दें. ममता बनर्जी के बारे में अन्ना ने पूरे डेढ़ महीने तक विचार किया और तब उन्होंने आठ फरवरी को दिल्ली में पहली बार गांधीवादियों की मीटिंग में हिस्सा लिया. गांधी पीस फाउंडेशन में आठ फरवरी की शाम यह मीटिंग रखी गई थी और मीटिंग दरअसल, गांधीवादियों की कम, गांधीवादियों द्वारा अन्ना को आम आदमी पार्टी के पक्ष में खड़ा करने की एक बहुत होशियार कोशिश थी. वहां सारे लोगों ने भाषण दिए और सबके भाषणों का एक ही अर्थ था कि देश में आम आदमी पार्टी का सबको समर्थन करना चाहिए. उसमें ऐसे गांधीवादी भी थे, जो पिछले तीन-चार महीने से अपने-अपने शहरों में मीटिंग कर आम आदमी पार्टी का उम्मीदवार बन लोकसभा में जाना चाहते थे और ऐसे लोग भी थे, जो अपने परिवार के लोगों को लोकसभा में भेजने के लिए अरविंद केजरीवाल का समर्थन कर रहे थे.
अन्ना ने खामोश होकर सबकी बातें सुनीं, पर कुछ नहीं बोले. लेकिन, जब सबने जोर डाला, तो अन्ना ने कहा कि मैं आप लोगों के विचार से सहमत नहीं हूं. गांधीवादियों की बैठक में सांप सूंघ गया और वहां अन्ना हजारे ने कहा कि मैंने देश के लिए एक आर्थिक कार्यक्रम बनाया है और उस आर्थिक कार्यक्रम का जवाब ममता बनर्जी ने दिया है और मुझे ममता बनर्जी ठीक लगती हैं. उन्होंने ममता बनर्जी की तारीफ़ में जो भाषण दिया, उससे वहां बैठे लोग इतने ज़्यादा चौंक गए कि अन्ना जब गए, तो उसके बाद उनमें से कोई अन्ना से मिलने भी नहीं गया. दरअसल, वह अन्ना को गांधी के नाम पर आम आदमी पार्टी के पक्ष में खड़ा करने की निराशावादियों की एक असफल कोशिश थी. अन्ना इंडियन एक्सप्रेस के एक कार्यक्रम में गए और वहां उन्होंने साफ़ कहा कि दिल्ली की सरकार उनकी अपेक्षाओं के अनुसार ठीक नहीं चल रही है और उन्हें नाटक में बहुत ज़्यादा विश्‍वास नहीं है. वहां उन्होंने कहा कि ममता बनर्जी हैं, जो कोई नाटक नहीं करतीं और पिछले तीस-चालीस सालों से सादगी की ज़िंदगी जी रही हैं. गांधी पीस फाउंडेशन और इंडियन एक्सप्रेस में दिए हुए अन्ना के भाषण ने अरविंद केजरीवाल को चौंका दिया.
अरविंद केजरीवाल अकेले अन्ना के पास महाराष्ट्र सदन गए और वहां पर उन्होंने अन्ना से कहा कि अन्ना, आपको गलतफहमी हुई है, लोगों ने आपको बहका दिया है. अन्ना उनकी बात सुनते रहे. स़िर्फ दो लोग उस मीटिंग में थे, एक स्वयं अन्ना हजारे और दूसरे अरविंद केजरीवाल. अरविंद 20 मिनट बाद चले गए. अरविंद केजरीवाल फिर अगले दिन अन्ना से मिलने आए और इस बार उनके साथ उनकी टीम के सारे विद्वान सदस्य थे. बंद कमरे में अरविंद केजरीवाल की टीम और अन्ना हजारे के बीच बातचीत हुई. वहां से निकल कर अरविंद केजरीवाल एवं उनके साथियों ने यह इंप्रेशन दिया कि अब अन्ना खुद उनके पक्ष में बयान देंगे और उन्हें समर्थन देंगे. अन्ना ने दिल्ली में कुछ नहीं कहा, लेकिन दिल्ली से निकल कर वह पूना गए और पूना में उन्होंने अरविंद केजरीवाल के पक्ष में केवल इतना कहा कि जैसा अरविंद केजरीवाल ने उन्हें बताया है, अगर वैसा ही लोकपाल बिल वह ला रहे हैं, तो अच्छा है. वहां उन्होंने ममता बनर्जी के पक्ष में इंटरव्यू दिया, जिसका जिक्र मैं शुरू में कर चुका हूं.
ग्यारह तारीख को अन्ना ने सारी स्थिति का नए सिरे से अध्ययन किया और वह इस नतीजे पर पहुंचे कि अगर अरविंद केजरीवाल उनकी आर्थिक नीतियों का लिखित समर्थन करते हैं और जनता के नाम एक हलफनामा देते हैं, तो वह अरविंद केजरीवाल को एक और मौक़ा देंगे. हालांकि, अरविंद केजरीवाल के साथियों और उनकी सोशल मीडिया के ऊपर हमला करने वाली टीम ने अन्ना को जितने शब्दों के आभूषण दिए हैं, उन्हें देखकर अन्ना को अरविंद केजरीवाल के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए, लेकिन अन्ना और अरविंद केजरीवाल का यही फर्क है. अन्ना हजारे का मानना है कि देश के लिए कड़वा घूंट पीना या अपमान सह जाना बेहतर है. आज भी उनके मन में अरविंद केजरीवाल को लेकर आशा की किरण है, लेकिन अरविंद और उनके साथियों के मन में अन्ना को लेकर क्या भाव हैं या क्या रणनीति है, इस बारे में निश्‍चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता. ग्यारह तारीख को ही अन्ना के पास यह समाचार आया कि 13 तारीख को ममता बनर्जी अपने दो सांसद उनके पास भेजना चाहती हैं. 13 फरवरी को अन्ना के पास तृणमूल कांग्रेस के एकमात्र महासचिव एवं राज्यसभा सांसद के डी सिंह रालेगांव पहुंचे. उन्होंने अन्ना का ममता जी द्वारा दी गई शॉल से स्वागत किया और अन्ना से राजनीतिक स्थिति पर बातचीत शुरू की.
इसी बीच ममता बनर्जी का फोन अन्ना के लिए आया और उन्होंने अन्ना से 18 तारीख को दिल्ली में मिलने के लिए आग्रह किया. अन्ना ने उस आग्रह को मान लिया. मुकुल राय ने बंगाल के बारे में, ममता बनर्जी के जीवन के बारे में जितनी ज़्यादा जानकारी हो सकती थी, वह अन्ना को दी. अन्ना ने उनसे कहा कि मैं 18 तारीख को दिल्ली में ममता बनर्जी से मिलूंगा और 19 तारीख को प्रेस कांफ्रेंस भी करूंगा. बाहर निकल कर अन्ना ने इंतजार कर रहे मीडिया से कहा कि मैं ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री पद के योग्य मानता हूं और मैं उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए कैंपेन करूंगा. इतना ही नहीं, मैं तृणमूल के पक्ष में प्रचार करूंगा और लोगों से वोट देने के लिए कहूंगा. यह अन्ना का अपना ़फैसला था. अन्ना ने यह फैसला भारत के सारे राजनीतिक दलों के चरित्र को देखकर लिया था. उन्हें स़िर्फ ममता बनर्जी में वह आग दिखाई दी, जो भारत की आर्थिक नीति को बदलने के लिए ऊर्जा पैदा कर सकती है. उन्हें ममता बनर्जी में लाल बहादुर शास्त्री जैसी सादगी नज़र आई, जो देश में अमेरिका के ख़िलाफ़ पी एल 480 गेहूं की घटना जैसा जोश भर सकती है. अन्ना ने बिना किसी हिचक के कहा कि मैं इस चुनाव में ममता बनर्जी के पक्ष में प्रचार करूंगा और उन्हें प्रधानमंत्री भी बनाऊंगा. साथ ही उन्होंने यह भी कह दिया कि अरविंद केजरीवाल के पास अभी भी वक्त है, अगर वह चाहें, तो साथ आ सकते हैं. वर्ना मैं स़िर्फ और स़िर्फ ममता बनर्जी के लिए देश के लोगों से चुनाव में जिताने की अपील करूंगा.
यह सारा घटनाक्रम कम से कम एक बात बताता है कि अन्ना हजारे के मन में इस देश को बदलने की जिजीविषा उन्हें अंत में एक ऐसे राजनीतिज्ञ के पास लेकर आई, जिसके बारे में वह कुछ नहीं जानते थे. हमारे देश के लोग वैसे भी दिल्ली और आसपास के प्रदेशों के अलावा, कहीं के बारे में नहीं जानते, किसी के बारे में नहीं जानते. जैसे ही अन्ना को ममता बनर्जी के जीवन, उनके आदर्शों और उनके द्वारा उठाए गए क़दमों के बारे में पता चला, उन्होंने ़फैसला लेने में एक क्षण की देरी नहीं की. ममता बनर्जी का समर्थन अन्ना द्वारा होना, इस देश में कई राजनीतिक दलों के लिए परेशानी पैदा कर सकता है और राजनीतिक दल इसे लेकर बहुत चिंतित भी हैं, पर जनता इस चीज को लेकर खुश है. ममता बनर्जी ने अन्ना हजारे से कहा है कि बंगाल के बाहर आप जिन्हें कहेंगे, उन्हें वह टिकट देंगी. जिन्हें अन्ना उम्मीदवार बनाना चाहें, उन्हें ममता बनर्जी अन्ना का उम्मीदवार मानकर तृणमूल की जमीन दे देंगी. अन्ना हजारे निर्दलीय उम्मीदवार भी खड़े करना चाहते हैं और यह भी चाहते हैं कि जो ममता बनर्जी के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ना चाहें, उनका तो वह प्रचार करेंगे ही. हालांकि अन्ना के मन में एक शंका है कि निर्दलीय उम्मीदवार अपने चुनाव चिन्ह के बारे में लोगों को इतनी जल्दी कैसे बता पाएंगे. लेकिन, अन्ना इस चुनाव में लोकसभा को बदलने के सभी संभावित तरीकों को अपनाना चाहते हैं. हालांकि, अन्ना इस मसले में बिल्कुल साफ़ हैं कि उम्मीदवार को एक हलफनामा देना होगा, लोगों के लिए काम करने की शपथ लेनी होगी, इस्तीफा देने का हलफनामे में जिक्र करना होगा, अगर वह काम नहीं कर पाया और 17 मुद्दों के लिए उसे संसद में लड़ना होगा.
लोग यह विश्‍वास कर रहे हैं कि अगली प्रधानमंत्री के रूप में ममता बनर्जी सर्व-स्वीकार्य नाम हो सकता है. बंटवारे की रेखा साफ़ दिखाई दे रही है. एक तरफ़ कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी सहित वे सारे दल हैं, जो नव-उदारवादी आर्थिक व्यवस्था का समर्थन कर रहे हैं और जो किसान, गांव, जल, जंगल, जमीन के ख़िलाफ़ खड़े हैं और उन्हें हड़पना चाहते हैं. दूसरी तरफ़ वे लोग हैं, जो मौजूदा अर्थव्यवस्था के ख़िलाफ़ हैं, नई अर्थव्यवस्था लाना चाहते हैं, जहां किसान, मज़दूर, ग़रीब, गांव की जमीन कोई छीन न सके, ग्रामसभा को विधायिका की शक्ति मिले. जो संसद को देश में अधिकार हैं, गांव में ग्रामसभा को वही अधिकार मिलने चाहिए. ऐसी ताकतों के बीच इस बार जो युद्ध होगा, उसमें ़फैसला जनता करेगी. ममता बनर्जी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है, जनता को आर्थिक मुद्दों की जानकारी देना और अन्ना हजारे के निर्देशों को जी-जान से न केवल मानना, बल्कि उन्हें लागू करने का विश्‍वास जनता को दिलाना. जहां एक तरफ़ यह चुनौती है, वहीं दूसरी तरफ़ यह असीम संभावना भी है. लेकिन सबसे बड़ा आश्‍चर्य एक और है, जो हमेशा आश्‍चर्य ही रहेगा. आख़िर इतना बड़ा राजनीतिक फैसला हुआ कैसे! किसने सूत्रधार का काम किया, किसने सवालों को अवसर बनाया और किसने मोदी एवं राहुल गांधी के सामने एक नई चुनौती पैदा की? यह रहस्य इसलिए हमेशा रहस्य रहेगा, क्योंकि न अन्ना हजारे इसे बताएंगे और न ही ममता बनर्जी इसे बताएंगी.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here