दिल्ली में अन्ना ने यह घोषणा की कि मैं जनलोकपाल के लिए अपने गांव रालेगण सिद्धी में अनिश्‍चितकालीन अनशन करने जा रहा हूं, लेकिन प्रिंट मीडिया ने उनकी इस घोषणा को लगभग नज़रअंदाज़ कर दिया. बाज़ार ने इस देश के 85 प्रतिशत लोगों को ख़ारिज कर दिया है, उनके आंसू, उनकी भूख, उनकी पीड़ा, उनकी अकाल मौत जब मीडिया को परेशान नहीं करती, तब अन्ना हजारे का अनशन और देश के लिए शहीद होने का जज़्बा मीडिया को कैसे उद्वेलित कर सकता है. लेकिन अन्ना का क़द मीडिया से बहुत बड़ा है, क्योंकि अन्ना के क़द को जनता का समर्थन विराट बना रहा है.
Santosh-Sirशायद मीडिया के लिए अन्ना हजारे अब बिकाऊ वस्तु नहीं रहे. अन्ना हजारे से ज़्यादा आसाराम बापू और नारायण साई बिकाऊ हैं. मीडिया यह मानता है कि आसाराम बापू और नारायण साई की सेक्स कथाएं लोग ज़्यादा देखना चाहते हैं. इसी बीच में तरुण तेजपाल आ गए और मीडिया के लोगों को उनकी सेक्स कथाएं दिखाने और लिखने में ज़्यादा मज़ा आने लगा. अब कोई सवाल पूछे तो कैसे पूछे कि एक लड़की के साथ अभद्र व्यवहार करने की वजह से क्या उनकी सारी पत्रकारिता ख़ारिज कर दी जाए? मीडिया के हमारे साथी भी खेल करते हैं. हिंदी और अंग्ऱेजी में यौन उत्पीड़न, बलात्कार और रेप के एक मायने हैं. शाब्दिक छेड़छाड़, अभद्र व्यवहार और शारीरिक छेड़छाड़ के एक मायने हैं. लेकिन समूचे मीडिया ने तरुण तेजपाल को यौन उत्पीड़न और बलात्कार का अपराधी बना दिया. जो अपराध तरुण तेजपाल ने नहीं किया, वे उस अपराध के अपराधी बना दिए गए. वो लोग जो तरुण तेजपाल की पत्रकारिता से जलते थे, उन्होंने बढ़-चढ़कर तरुण तेजपाल को अपराधी ठहराने में हिस्सा लिया. इस पूरे प्रकरण में मीडिया ने सेक्स रस का जमकर रसास्वादन दर्शकों और पाठकों को कराया.
मीडिया यह मानता है कि देश के लोग केवल सेक्स कथाओं में ही रुचि रखते हैं, इसलिए उसने एजेंडा सेट कर दिया है कि आपराधिक सेक्स कथाएं विद्रूप सेक्स की चाशनी में डुबोकर लोगों को दिखाई जाएं. शायद इसीलिए पिछले तीन महीने से भूख-प्यास, बीमारी-बेरोज़गारी और महंगाई से जुड़ी ख़बरें न टेलीविज़न पर आ रही हैं और न ही अख़बारों में दिखाई दे रही हैं. मीडिया के मुताबिक, अब भ्रष्टाचार की ख़बरें भी लोगों को उत्तेजित नहीं करती.
अन्ना हजारे के साथ चूंकि कोई सेक्स कथा नहीं जुड़ सकती, इसलिए अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के हटने और उनके मतभेदों को कुछ इस तरह पेंट करने की कोशिश की जा रही है, मानों यह भी एक आपराधिक सेक्स कथा हो. अन्ना कितना भी कहें कि उनका और केजरीवाल का अलगाव महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है देश में व्याप्त भूख, प्यास, ग़रीबी और बेरोज़गारी. महत्वपूर्ण है गांवों की दुर्दशा, महंगाई और भ्रष्टाचार. हमारे महान बुद्धिमान पत्रकार फिर चाहे वे टेलीविज़न के हों या प्रिंट के, इन सवालों को सवाल ही नहीं मानते. इन सवालों से उपजा दर्द उन्हें परेशान नहीं करता. इसीलिए वो इन सवालों के ऊपर किसी का ध्यान नहीं खींचते. टेलीविज़न की बहसों और अख़बारों के संपादकीय पृष्ठ के लेख इन सवालों को वाहियात मानते हैं.
अन्ना हजारे का रालेगण सिद्धी में अनशन करने का ़फैसला भी इन्हें मखौल लगता है. यहीं पर मीडिया की जनता से दूरी दिखाई देती है. अन्ना हजारे पांच दिसंबर को भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री ए.पी.जे. अब्दुल कलाम से मिलने व स्वास्थ्य का हाल-चाल लेने उनके घर गए. उनके घर पहुंचते ही पूर्व राष्ट्रपति का सारा स्टाफ, जिसमें उनके सचिव से लेकर चपरासी तक शामिल थे, श्रद्धा से अन्ना के पास दौड़े हुए आए, उनके पैर छुए, उन्हें शुभकामनाएं दीं और उनके साथ हर एक ने अलग-अलग फोटो खिंचवाई. वहां जितने मुलाक़ाती बैठे थे, सबने कहा कि अन्ना हम सब बहुत उम्मीद से आपकी ओर देख रहे हैं.
अन्ना जब ट्रेन से चलते हैं, तो लगभग पूरी ट्रेन उनसे बात करने के लिए उनके डिब्बे में टूट पड़ती है. प्लेटफॉर्म का नज़ारा इससे ज़्यादा ख़तरनाक होता है, क्योंकि हर आदमी अन्ना के पैर छूना चाहता है. अन्ना जब हवाई अड्डे पर जाते हैं, तो एक भगदड़ जैसा माहौल हो जाता है. हर आदमी अन्ना के पैर छूना चाहता है, फोटो खिंचवाना चाहता है और उन्हें अपना समर्थन देना चाहता है. सरकारी अधिकारी छोटे हों या बड़े, जब हवाई अड्डे पर या हवाई जहाज़ में अन्ना से मिलते हैं, तो अन्ना को अपने समर्थन का वायदा करते हैं और सबसे मज़े की बात कि लॉ इन्फोर्समेंट एजेंसीज, पुलिस हो या फ़ौज़ हो, इनमें काम कर रहे लोग अन्ना को अंध समर्थन देते हैं.
एक तरफ़ अन्ना, दूसरी तरफ राजनीति के सर्वोच्च नेता, लेकिन मीडिया को स़िर्फ अन्ना और केजरीवाल दिखाई देते हैं. दिल्ली में अन्ना ने यह घोषणा की कि मैं जनलोकपाल के लिए अपने गांव रालेगण सिद्धी में अनिश्‍चितकालीन अनशन करने जा रहा हूं, लेकिन प्रिंट मीडिया ने उनकी इस घोषणा को लगभग नज़रअंदाज़ कर दिया. टेलीविज़न ने इसे स़िर्फ तीन घंटे तक दिखाया. ऐसा लगता है कि मीडिया मनोरंजन धारावाहिकों का भौंडा संस्करण बनकर रह गया है.
अब तो प्रेस कांफ्रेंस में पत्रकार सवाल भी नहीं पूछ पाते. मेरा यह लिखना बहुत सारे पत्रकारों को बुरा लगेगा, लेकिन मैं इससे आगे बढ़कर कहना चाहूंगा कि बहुत सारे संपादकों को भी क्या सवाल पूछना चाहिए, इसकी समझ नहीं है. हिंदी की एक कहावत याद आ रही है कि काबुल में गधे भी चना खाते हैं. लगता है कि काबुल के गधे हिंदुस्तान के मीडिया जगत में बड़ी संख्या में टहलने आ गए हैं.
ऐसी हालत में यह अपेछा करना कि अन्ना हजारे नाम का फकीर देश के लोगों के लिए जान की बाज़ी लगाने जा रहा है, इसलिए उसे मीडिया में जगह मिलेगी, बेवकूफ़ी है. क्योंकि मीडिया के प्रिय विषय नारायण साई और तरुण तेजपाल हैं. कितना रोएं? हिंदुस्तान के मीडिया को जब दुनिया के सबसे लोकप्रिय नेता का तमगा हासिल कर चुके स्वर्गीय नेल्शन मंडेला के महत्व का पता नहीं, तो उसे भगत सिंह सुखदेव-राजगुरु और अन्ना हजारे के महत्व का क्या पता होगा? लेकिन देश के छात्रों को, किसानों को, मजदूरों को अन्ना हजारे का महत्व मालूम है. पर अगर टाटा-बिड़ला, अंबानी, जैसे पैसे वालों को अन्ना हजारे आकर्षित नहीं करते, तो ज़ाहिर है मीडिया को कैसे आकर्षित करेंगे. अफ़सोस होता है कि हम ऐसी बिरादरी के सदस्य हैं और तब याद आते हैं अज्ञेय जी, प्रभाष जोशी, सुरेंद्र प्रताप सिंह, उदयन शर्मा, अश्‍विन सरीन, एम. जे. अकबर, प्रीतीश नंदी, और पी साईंनाथ. इन जैसे लोगों का रिश्ता भी मीडिया बिरादरी से है. आज के मीडिया को देखकर गुलिवर इन लिलिपुट की कथा याद आती है, जहां सब बौने ही बौने थे.
सोचकर हंसी आती है कि अन्ना जान की बाज़ी लगाए हुए आमरण अनशन कर रहे हैं और हमारी बिरादरी के नए-नए द्रोणाचार्य वहां पहुंचें और पूछें कि अन्ना अनशन करते हुए आपको कैसा लग रहा है? मैं दु:ख के साथ लिख रहा हूं, लेकिन सच यही होने वाला है. इसीलिए जैसे बाज़ार ने इस देश के 85 प्रतिशत लोगों को ख़ारिज कर दिया है, उनके आंसू, उनकी भूख, उनकी पीड़ा, उनकी अकाल मौत जब मीडिया को परेशान नहीं करती, तब अन्ना हजारे का अनशन और देश के लिए शहीद होने का जज़्बा मीडिया को कैसे उद्वेलित कर सकता है. इस पूरे लेख का सार है कि अन्ना का क़द मीडिया से बहुत बड़ा है, क्योंकि अन्ना के क़द को जनता का समर्थन विराट बना रहा है.

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