राजस्थान एक ऐसा प्रदेश है जिसे भारतीय जनता पार्टी अपने सुशासन का बेहतर उदाहरण मानती है. ऐसा ही दूसरा उदाहरण मध्य प्रदेश है. मध्यप्रदेश में इतनी हत्याएं हो चुकी हैं कि उसकी जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को निर्देश दिए हैं, लेकिन सीबीआई अगले सौ वर्षों तक भी उसका कुछ हल निकाल पाएगी, पता नहीं. लेकिन, यह सुशासन, भारतीय जनता पार्टी मार्का सुशासन बनता जा रहा है. पहला उदाहरण राजस्थान को मानते हैं और जब राजस्थान में झांकते हैं, तब वहां जो खामियां नजर आती हैं, उन्हें उठाने का साहस न पत्रकार कर रहे हैं, न विधायक और आश्चर्यजनक रूप से न कांग्रेस के नेता ही कर रहे हैं. इसका मतलब है कि जिन प्रदेशों में भी शासन को लेकर प्रश्न उठाए जा रहे हैं, वहां का विपक्ष बिल्कुल मूक, निष्क्रिय और दूसरे शब्दों में कहें तो अकर्मण्य है. हम जानते हैं कि बात राजस्थान की हो या मध्य प्रदेश की, केंद्र में बैठे भाजपा के बड़े नेता इस पर ध्यान नहीं देंगे, क्योंकि उन्हें लगता है कि जब विपक्ष ही इसे नहीं उठा रहा है या उद्वेलित हो रहा है, तो उन्हें इस पर सोचने की क्या जरूरत है. पर, अमित शाह जी से इतना अनुरोध तो अवश्य किया जा सकता है कि आने वाला चुनाव ऐसा ही परिणाम देगा, जैसा उन्हें इस बार मिला है, इसमें संदेह है. इसलिए, अगर वो चाहें तो राजस्थान में उठ रहे सवालों को लेकर राजस्थान की मुख्यमंत्री से बात करें और राजस्थान के प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त करने में पार्टी अध्यक्ष का जैसा रोल होता है, उसे निभाएं. दरअसल ये पूरी रिपोर्ट अमित शाह जी को राजस्थान में चल रहे लुंज-पुंज प्रशासनिक अवस्था से अवगत कराने के लिए है.
राजस्थान में अभी पिछले साठ साल के इतिहास का सबसे बुरा गवर्नेंस (प्रशासन) देखने को मिल रहा है. प्रशासनिक तौर पर राज्य बिल्कुल डगमगाया हुआ है. सरकार और प्रशासनिक तंत्र (ब्यूरोक्रेसी) की हालत खराब है. ब्यूरोक्रेसी और सरकार चलाने के लिए जिम्मेदार चार लोग, चीफ सेक्रेटरी, सेक्रेटरी टू सीएम, डीओपी सेक्रेटरी, होम सेके्रटरी हैं. ये चारों संस्थाएं चरमराई हुई स्थिति में हैं.
पहले बात करते हैं मुख्य सचिव चंद्रशेखर राजन की, जो जून 2016 तक अपने पद पर रहे. चंद्रशेखर राजन जब तक अतिरिक्त सचिव थे, सफल रहे, लेकिन मुख्य सचिव के तौर पर वे बिलकुल फेल हो गए. मुख्य सचिव का काम होता है योजनाएं बनाना, विभागों के बीच समन्वय स्थापित करना और आईएएस अधिकारियों के कस्टोडियन के तौर पर काम करना. इस काम में वे बिलकुल असफल साबित हुए. कोई भी जिलाधिकारी आकर उनसे कुछ कहे, अपनी समस्या बताए, लेकिन राजन उन अधिकारियों की समस्याओं का समाधान निकालने में असफल रहे. फेल इसलिए हुए, क्योंकि वे मुख्यमंत्री के गुलाम बनकर रह गए. दरअसल, वे दिसंबर 2015 में रिटायर होने वाले थे. दिसंबर के बाद अगर वे एक दिन भी इस पद पर रहते तो सातवें वेतन आयोग के हकदार हो जाते और उन्हें करीब चालीस लाख रुपए मिलते. इसलिए वे किसी भी तरीके से अपना कार्यकाल बढ़ाना चाहते थे. इसलिए ब्यूरोक्रेसी में जो भी गलत हो रहा था, उस कार्य का उन्होंने विरोध नहीं किया. इसके बाद जब उनका तीन महीने का कार्यकाल बढ़ गया, तो उन्होंने उस दौरान कोई कार्य ही नहीं किया. इसके बाद फिर तीन महीने का उनका कार्यकाल बढ़ा और इस दौरान भी उन्होंने कुछ नहीं किया.
इससे भी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह रही कि उनके बाद ओपी मीणा को मुख्य सचिव बनाया गया. ओपी मीणा सीनियर अधिकारी थे, लेकिन वे प्रशासनिक तौर पर अपने करियर में कभी अहम पदों पर नहीं रहे और हमेशा साइड लाइन रहे. उनका प्रशासनिक अनुभव काफी कम रहा. योग्यता और क्षमता में पीछे होने के बाद भी वे जातिगत तौर पर काफी मजबूत स्थिति में थे, क्योंकि वे मीणा समुदाय से आते हैं. मीणा जाति को खुश करने के लिए राज्य सरकार ने ओपी मीणा को मुख्य सचिव बना दिया. ओपी मीणा 1 जुलाई 2016 से लेकर आज की तारीख तक मुख्य सचिव के पद पर हैं. गौरतलब है कि मीणा के खिलाफ उनकी पत्नी और बेटी ने ही गंभीर आरोप लगाए हैं, फिर उन्हें कैसे इस महत्वपूर्ण पद पर तैनात किया गया? ओपी मीणा की पत्नी ने अपराध शाखा, महिला आयोग और मानवाधिकार आयोग में केस दर्ज कराया हुआ है. वहीं, उनकी बेटी ने लंदन से अपने पिता द्वारा यौन उत्पीड़न किए जाने का आरोप लगाया है. मुख्य सचिव की छवि ही खराब है. जाहिर है, वे भले ही मुख्य सचिव की कुर्सी पर हों, लेकिन उनका प्रशासन में इकलाब कायम नहीं है. जब मुख्य सचिव ही कमजोर हैं, तो प्रशासन में उनकी क्या भूमिका होगी और मुख्यमंत्री उन्हें कितनी तवज्जो देती होंगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. यानी, राजस्थान में मुख्य सचिव नाम की संस्था ही पूरी तरह से ध्वस्त हो गई है.
दूसरे नंबर पर हैं, सेक्रेटरी टू सीएम. एक जमाने में सुनील अरोड़ा, श्रीमंत पांडेय, पीके मैथ्यू, आदर्श किशोर जैसे लोग सेक्रटरी टू सीएम हुआ करते थे. इस बार मुख्यमंत्री ने आते ही तन्मय कुमार, जो पिछले कार्यकाल में सीएमओ में कार्यरत थे, को अपना सचिव बना लिया, जबकि सेक्रेटरी लेवल के कई सीनियर अधिकारी इस पद के दावेदार थे. लेकिन प्रशासनिक हलकों में चर्चा है कि तन्मय कुमार का काम और कमांड बहुत ही कमजोर है. एक तो वे बहुत जूनियर हैं, इस कारण सीनियर अधिकारी उनकी बात नहीं सुनते हैं, और न ही सीएमओ का इकबाल जिलों में कलेक्टरों पर कायम कर सकते हैं. इसलिए सारे विधायक भी उनसे नाराज हैं और कई बार मुख्यमंत्री से गुजारिश कर चुके हैं कि तन्मय की जगह पर कोई अच्छा अधिकारी लाइए. लेकिन मुख्यमंत्री तन्मय कुमार की अंधभक्त हैं. उन्होंने सारा कमान तन्मय कुमार को सौंप रखा है. मुख्य सचिव के कमजोर होने के कारण तन्मय कुमार ब्यूरोक्रेसी के ट्रांसफर-पोस्टिंग में जमकर अपनी मनमर्जी चला रहे हैं. किसी जमाने में वहां दक्षिण भारतीय अधिकारी होते थे. तन्मय कुमार बिहार से हैं, इसलिए उन्होंने जितने बिहार के अधिकारी हैं, उन्हें अच्छी-अच्छी जगहों पर स्थापित कर दिया है. इसके अलावा 1993 बैच के सात अधिकारियों को बढ़िया जगह पर तैनाती दिला दी है. मतलब यह है कि सीएमओ नाम की संस्था भी भगवान भरोसे ही चल रही है. अब बात डिपार्टमेंट ऑफ पर्सोनेल (डीओपी) की, जो सभी कर्मचारियों की ट्रांसफर और पोस्टिंग देखता है. लेकिन वे भी तन्मय कुमार के यस मैन बन कर रह गए हैं. इसके बाद नंबर आता है गृह सचिव का. ए मुखोपाध्याय गृह सचिव हैं, लेकिन वे भी प्रभावशाली नहीं रहे. उनके अधीन एक सेक्रेटरी संजीव वर्मा लाए गए. दोनों में छत्तीस का आंकड़ा होने के कारण एक साल तक गृह विभाग पूरी तरह से निष्क्रिय बना रहा. यानी, पिछले कुछ समय तक राज्य सरकार के ये चारों महत्वपूर्ण विभाग चरमराई हुई स्थिति में रहे.
अब हम बात करते हैं भ्रष्टाचार की. राज्य में कई अधिकारी खुलेआम भ्रष्टाचार कर रहे थे. प्रशासनिक स्तर पर सभी अधिकारियों को इस बात की जानकारी थी कि चार-पांच जिला अधिकारी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, लेकिन उनको सीएमओ का प्रश्रय मिला हुआ था. हालात ऐसे बन गए कि मुख्य सचिव भी उन्हें अपनी मर्जी से नहीं हटा सकते थे. जब चार-पांच जिला अधिकारी खुलकर भ्रष्टाचार करने लगे तो इससे दूसरे जिला अधिकारियों का भी मनोबल बढ़ा. खुलेआम भ्रष्टाचार होने लगा. सबसे बड़ी बात यह है कि एसीबी ने चार बड़े डिपार्टमेंटल छापे मारे. खनन विभाग में छापेमारी के दौरान अशोक सिंह पकड़े गए. वे सेक्रेटरी स्तर के अधिकारी थे, उनके पकड़े जाने से पूरा प्रशासन अमला हिल गया. इसके बाद नीरज के पवन, जो काफी जूनियर आइएएस और सीएम के खास थे, उनको भी भ्रष्टाचार में पकड़ा गया.
चिकित्सा विभाग में भी बड़े-बड़े अधिकारियों को पकड़ा गया. पीएचडी में भ्रष्टाचार का आलम ये था कि वहां एक दर्जन से ज्यादा अधिकारी भ्रष्टाचार में पकड़े गए. सवाल है कि राज्य सरकार ढाई साल बाद भ्रष्टाचार करने वालों को पकड़ रही है तो उनको अब तक क्यों छूट मिली हुई थी? इसका साफ मतलब यह है कि प्रशासन तंत्र पर न मुख्यमंत्री की पकड़ है, न मुख्य सचिव की औऱ न ही सीएमओ की. इस तरह से पूरा प्रशासन तंत्र भ्रष्ट अधिकारियों से पटा हुआ है.
मुख्यमंत्री को राजनीतिक कार्यों से फुरसत नहीं है. मुख्य सचिव और सीएमओ प्रशासन पर ध्यान नहीं दे रहे हैं. किस अधिकारी को कहां लगाया जाए, किसी को नहीं मालूम. अच्छे अधिकारियों को साइड लाइन कर दिया गया है और मध्यम कद के अधिकारियों को प्राइम पोजीशन पर रखा गया है. उदाहरण के तौर पर जयपुर मेट्रो की बात करते हैं. जयपुर मेट्रो में पिछले ढाई साल के दौरान निहालचंद गोयल ने शानदार काम किया और इसे तय समय पर चालू कराया. जयपुर मेट्रो का काम काफी कठिन था, जिसे चुनौती की तरह लेकर निहालचंद गोयल ने बेहतर काम किया. और जब इसका दूसरा चरण चल रहा है, तो निहालचंद गोयल का ट्रांसफर कर, अश्विनी भगत को लगाया गया. अश्विनी भगत, निहालचंद गोयल के मुकाबले काबिलियत में कहीं नहीं ठहरते हैं. लेकिन, ऐसा हुआ क्योंकि यहां सीएमओ की मर्जी चलती है. किस अधिकारी को कहां लगाया जाए, इसे देखने वाला कोई नहीं. जो व्यक्ति सीएमओ का नजदीकी है वह अच्छी जगह पा रहा है और अच्छे अधिकारी हतोत्साहित हो रहे हैं. मुख्य बात यह है कि एक दर्जन अच्छे अधिकारी हाशिए पर हैं और कम प्रतिभाशाली अधिकारी प्राइम पोजीशन पर बैठे हैं. इससे पूरा प्रशासन हतोत्साहित है और अच्छे अधिकारियों में काम करने के लिए कोई उत्साह नहीं रह गया है. राजस्थान सरकार के दिसंबर में तीन साल पूरे हो जाएंगे. अभी सरकार के पास दो साल और बचे हैं. लोगों का कहना है कि अगर दो साल में प्रशासन ठीक नहीं हुआ तो यह प्रशासन ही सरकार को ले डूबेगा. एक अहम उदाहरण हमारे सामने है. वर्तमान में मुख्य सचिव ओपी मीणा, जो बिलकुल अप्रभावी हैं. उन पर कई आरोप भी लग चुके हैं. उनके खिलाफ उनकी पत्नी ने प्रताड़ना का मुकदमा कर रखा है. हाईकोर्ट में उनकी पत्नी ने कहा कि मीणा मुख्य सचिव बन गए हैं और उनका प्रभाव पुलिस में है (पुलिस ने चालान पेश करने की तैयारी की थी, जिसे उनके मुख्य सचिव बनते ही रोक दिया गया है) इसलिए इस मामले की जांच सीबीआई को सौंपी जाए. हाईकोर्ट ने राजस्थान सरकार से हाल में पूछा है कि क्यों न मुख्य सचिव के खिलाफ जांच सीबीआई को सौंप दी जाए? उनके खिलाफ यदि सीबीआई जांच सौंपी जाती है, तो नैतिक रूप से मुख्य सचिव के पद पर बने रहना सही नहीं होगा. और, अगर वे इस पद पर बने भी रहेंगे तो उनका कोई प्रभाव नहीं रहेगा. अब नया मुख्य सचिव कौन होगा, इसे लेकर ब्यूरोक्रेसी में काफी चर्चा है. इस पद के लिए आठ अधिकारी दावेदार हैं, लेकिन आठों मुख्य सचिव बनने के योग्य नहीं हैं. नौंवे और दसवें नंबर पर जो अधिकारी हैं, वे मुख्य सचिव बन सकते हैं, लेकिन सवाल ये है कि क्या मुख्यमंत्री फिर उन आठ अधिकारियों को सचिवालय से बाहर करेंगी. क्योंकि, जब जूनियर मुख्य सचिव बनेगा तो सीनियर को सचिवालय से बाहर निकालना पड़ता है. तो क्या डीबी गुप्ता, जो सबसे योग्य हैं और दसवें नंबर पर हैं, मुख्य सचिव बनेंगे? अगर डीबी गुप्ता मुख्य सचिव बनते हैं, तो वेे मुख्यमंत्री के भी करीबी हैं. वे सरकार के बाकी बचे कार्यकाल तक अपने पद पर बने रह सकते हैं और सबको साथ लेकर चल सकते हैं. उनकी छवि भी अच्छी है. लेकिन मुख्यमंत्री को इसके लिए ऊपर के नौ अधिकारियों को किनारे करना होगा. वर्तमान मुख्य सचिव का कार्यकाल अगले वर्ष जून तक है. अगर उनके खिलाफ सीबीआई जांच होती है तो उन्हें बीच में ही पद से हटना होगा. यदि डीबी गुप्ता मुख्य सचिव बनते हैं, तो ऊपर के आठ-नौ अधिकारी काम नहीं कर पाएंगे. उमेश कुमार 1983 बैच के सीनियर अधिकारी हैं. उमेश कुमार भी मुख्य सचिव पद के दावेदार थे. वे एडीबी में पांच साल तक रहे थे और जब उनका कार्यकाल खत्म हो गया, तो वे दिल्ली आ गए थे. वे भारत सरकार में बैंकिंग सचिव बनने जा रहे थे, लेकिन मुख्यमंत्री ने अपनी तरफ से एनओसी नहीं दिया और उनको राजस्थान बुला लिया और राजस्थान में एसीएस उद्योग बना दिया. उमेश कुमार को बैंकिंग सचिव बनना था, उन्हें दिल्ली रहना था. वे पांच साल विदेश में रहे, इसलिए राजस्थान में आकर वे कुछ खास काम नहीं कर रहे हैं. उद्योग, जो एक प्रमुख फ्रंट है, उसे उमेश कुमार के हाथों में देने से वहां कुछ काम होगा, इसकी उम्मीद कम ही लग रही है.
फिलहाल, राजस्थान भाजपा के अंदर सब वन मैन शो हैं. मंत्री करीब-करीब स्टाम्प बने हुए हैं. घनश्याम तिवारी प्रभावी राजनेता थे. वे बगावत कर सरकार से बाहर हैं और अपनी ही पार्टी की सरकार का विरोध कर रहे हैं. मुख्यमंत्री का विकल्प आज के विधायकों में कोई नहीं है. मुख्यमंत्री का विकल्प गुलाबचंद कटारिया हुआ करते थे, लेकिन अब वे मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे. वो बहुत सज्जन और सीधे आदमी हैं. वे पिछली वसुंधरा सरकार में विरोधी खेमे में थे, लेकिन इस सरकार में ऐसा कुछ नहीं है. वो मुख्यमंत्री के दावेदार भी नहीं हैं और वेे मुख्यमंत्री बनेंगे भी नहीं. मुख्यमंत्री पद की दावेदार हैं किरण माहेश्वरी. जब ललित मोदी कांड हुआ था तो यह कहा जा रहा था कि किरण माहेश्वरी मुख्यमंत्री बनेंगी, लेकिन वसुंधरा राजे ने मुख्यमंत्री पद नहीं छोड़ा. लेकिन तब से वसुंधरा राजे की आंख की किरकिरी बनी हुई हैं किरण माहेश्वरी. जलवायु विभाग में हुए घूस कांड के कुछ छींटे किरण माहेश्वरी पर भी पड़े हैं, इस मामले में उनके ओएसडी पकड़े गए हैं. ऐसे में, अब किरण माहेश्वरी दावेदार होते हुए भी मुख्यमंत्री नहीं बन सकती हैं. अब सवाल यह है कि यदि वसुंधरा राजे हटती हैं, तो कौन मुख्यमंत्री बनेगा? 173 विधायकों में 100 विधायक खिलाफ हैं, लेकिन सवाल है कि विकल्प क्या है? जितने विकल्प थे, वे सब धाराशायी हो गए हैं और दूसरे विकल्प खड़े नहीं होने दिए गए. राजेंद्र राठौर भी मुख्यमंत्री के दावेदार थे और पिछली सरकार में विकल्प के तौर पर बहुत उभरे थे. लेकिन राजेंद्र राठौर भी शरणागत हो गए मुख्यमंत्री के सामने. अशोक परनामी, जो पिछले पंद्रह वर्षों से अध्यक्ष रहे हैं, वे मुख्यमंत्री की जगह ले सकते हैं, लेकिन अशोक परनामी मुख्यमंत्री के मैटेरियल नहीं हैं. वे बहुत ही साधारण किस्म के राजनीतिज्ञ हैं, इसलिए कह सकते हैं कि यहां वसुंधरा राजे का कोई विकल्प नहीं है.
गौमाता के नाम पर…
गायों को लेकर राजनीति चरम पर है. लेकिन, एक दिलचस्प जानकारी ये निकल कर सामने आई है कि बीजेपी शासित राज्यों में (राजस्थान और हरियाणा को छोड़ कर) सरकारी गौशाला है ही नहीं. राजस्थान के अलावा भाजपा शासित राज्य असम, छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब और जम्मू-कश्मीर में एक भी सरकारी गौशाला नहीं है. हरियाणा में जहां सिर्फ2 सरकारी गौशालाएं हैं, वहीं राजस्थान में वसुंधरा राजे की सरकार 1304 गौशालाएं चला रही है. राजस्थान अकेला ऐसा राज्य है, जहां गौरक्षा मंत्रालय और मंत्री भी हैं. ओटाराम यहां के गौरक्षा मंत्री हैं. इसके बावजूद, राजस्थान में गायों की हालत का खुलासा पिछले कुछ दिनों तब हुआ, जब हिंगोनिया गोशाला में गायों के मरने की लगातार खबरें आईं. वैसे, एक अनुमान के मुताबिक राजस्थान में साल 2004 से ले कर अब तक करीब एक लाख गायें दम तोड़ चुकी हैं. जयपुर की हिंगोनिया गौशाला में 1 जनवरी से 31 जुलाई 2016 के बीच 8 हजार से ज्यादा गायों की मौत हो चुकी है. गौरतलब है कि राजस्थान गौ टैक्स लगाने वाला पहला राज्य है, जहां सरकार को इससे करीब 100 करोड़ रुपए मिले हैं. लेकिन सवाल ये है कि टैक्स के इस पैसे को कहां खर्च किया जा रहा है?