‘जिस लाहौर नइ वेख्या ओ जम्याइ नइ’ एक हिंदी नाटक के पैंतीस बरस।
यह खुशी की बात है कि हम सबके प्रिय लेखक असगर वजाहत के मशहूर नाटक ‘ जिस लाहौर नइ वेख्या ओ जम्याइ नइ ‘ पर अमिर खान की फिल्म ‘ लाहौर 1947’ बनकर तैयार हो गई है। इस फिल्म के निर्देशक हैं राजकुमार संतोषी। इसमें मुख्य भूमिकाएं सनी देओल, शबाना आजमी, प्रीति जिंटा, अली फजल, करण दयोल, अभिमन्यु शेखर सिंह आदि ने निभाई है। पहले यह फिल्म 26 जनवरी 2025 को भारत में रीलिज होनी थी पर अब इसे फरवरी में रीलिज होने की सम्भावना है। राजकुमार संतोषी करीब बीस साल से इस फिल्म को बनाना चाहते थे और उन्होंने इसके लेखक असगर वजाहत से दो दो बार इसके फिल्मांकन के अधिकार खरीदे। इसी दौरान उन्होंने असगर वजाहत के एक दूसरे नाटक ‘ गोडसे @ गांधी डाट काम ‘ पर पिछले साल ‘ गांधी गोडसे – एक युद्ध ‘ नामक फिल्म बनाई और इसे प्रदर्शित किया। इस फिल्म को लेकर दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों खेमों में अच्छा खासा विवाद हुआ था। लाहौर 1947 में बूढी माई की भूमिका शबाना आजमी ने निभाई है जबकि सनी देओल सिकंदर मिर्जा बने हैं और प्रीति जिंटा उनकी पत्नी और करण दयोल उनके बेटे। अब थोड़ी चर्चा नाटक के बारे में जिसपर 2009 में मैंने हिंदी अंग्रेजी में एक किताब संपादित किया था ‘ जिस लाहौर… के दो दशक ‘ ( वाणी प्रकाशन).
दृश्य -1. मुंबई के बांद्रा इलाके में स्थिर ‘रंग शारदा’ सभागार में असगर वजाहत के नाटक ‘जिस लाहौर नइ वेख्या ओ जम्याइ नइ’ के मराठी संस्करण का शो चल रहा था। निर्देशक थे वामन केंद्रे और मराठी रूपांतरण किया था शफात खान ने ।शो हाउस फुल था। मध्यांतर में नेपथ्य में अचानक कुछ हंगामा हुआ। जब शफात खान वहां पहुंचे तो देखा कि स्वयं को शिवसेना का स्थानीय नेता बताने वाला एक आदमी प्रोड्यूसर और निर्देशक को धमकी दे रहा था कि ‘यह नाटक बंद करो वरना अंजाम बहुत बुरा होगा।’ वह आदमी बीच में ही नाटक छोड़ कर चला गया। नाटक तो बंद नहीं हुआ। आखिरी प्रदर्शन के बाद एक आश्चर्यजनक घटना घटी। वह आदमी नेपथ्य में फिर आया। उसने जेब में हाथ डाला। उसकी आंखों में आंसू थे। उसने जब जेब से हाथ बाहर निकला तो उसके हाथों में सौ-सौ के नोटों की गड्डियां थी। उसे प्रोड्यूसर को देते हुए उसने कहा – ‘‘मुझे माफ कीजिए। उस दिन मैंने आधा ही नाटक देखा था। आज मैंने पूरा नाटक देखा। यह नाटक बंद नहीं होना चाहिए और पैसे की जरूरत हो तो मुझे फोन कीजिएगा।’’
अब एक दूसरा दृश्य। पाकिस्तान के करांची शहर के पुलिस कमीश्नर के यहां खालिद अहमद ने इस नाटक का उर्दू संस्करण जमा करवाया और इसके मंचन की अनुमति मांगी। उन्हें प्रशासन ने अनुमति नहीं दी हालांकि जर्मन सूचना केंद्र ‘गोएठे सेंटर’ में नाटक के कई हाउसफुल शो हुए। लोगों को जब नीचे जगह नहीं मिली तो पेड़ों की शाखाओं पर बैठकर नाटक देखा।
तीसरा दृश्य जनवरी 2009 का है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के ग्यारहवें भारत रंग महोत्सव में अंत तक अनिश्चितता बनी रही कि करांची की सीमा किरमानी के निर्देशन में होने वाला यह नाटक होगा कि नहीं क्योंकि कुछ हिंदू कट्टरपंथी संगठनों ने धमकी दी थी। किसी तरह पुलिस के भारी बंदोबस्त के बीच दिल्ली में तो यह नाटक हुआ। नाट्य दल का लखनऊ दौरा रद्द करना पड़ा। सीमा किरमानी मायूस होकर अपने दल के साथ करांची लौट गई।
चौथा दृश्य यह है कि आस्ट्रेलिया के सिडनी शहर में इस नाटक का हाऊस फुल शो चल रहा था। दर्शकों में एक ऐसी औरत बैठी थी । दूसरे दिन उसकी आंखों का आपरेशन होना था क्योंकि उसकी आंखों में आंसू सूख गए थे। नाटक देखने के दौरान वह इतनी रोई कि उसकी आंखों में फिर से आंसू आ गए और डाक्टर ने कहा कि अब आपरेशन की कोई जरूरत नहीं है।
इस नाटक में आखिर ऐसा क्या है कि हिंदू और मुस्लिम कट्टरपंथी इसके विरोध में एक हो जाते हैं। भारत और पाकिस्तान की सरकारें भी एक सा रवैया अपनाती हैं। यहां यह याद रखना जरूरी है कि यह नाटक उसी दौर में तैयार हुआ जब भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा हो चुकी थी। बाबरी मस्जिद गिराई जा चुकी थी। मुंबई और देश के कई भागों में भयानक दंगे हो चुके थे। घृणा, अविश्वास और हिंसा के जहरीले माहौल में यह नाटक मानवीय प्रेम और करूणा की बात करता है, धर्म के राजनैतिक इस्तेमाल के प्रति आगाह करता है और राष्ट्र, क्षेत्र, धर्म नस्ल की सीमाओं से परे शांति और सह अस्तित्व का वैश्विक दृष्टिकोण सामने लाता है।
‘जिस लाहौर नइ वेख्या ओ जम्याइ नइ’- संभवतः हिंदी का अकेला ऐसा नाटक है जो पिछले पैंतीस वर्षों से हिंदी के साथ-साथ विभिन्न भारतीय भाषाओं में तो लगातार हो ही रहा है, वाशिंगटन, सिडनी, करांची, आबूधाबी दुबई आदि विश्व के कई शहरों में भी हो रहा है। इस नाटक के साथ सैंकड़ों कहानियां जुड़ी हुई हैं जिनमें से कुछ का उल्लेख ऊपर किया गया है।
इस वर्ष इस नाटक को लिखे जाने के पैतीस वर्ष पूरे हो चुके हैं। इसके दो दशक पूरे होने के अवसर (सितंबर 2009) को एक अंतर्राष्ट्रीय उत्सव के रूप में मनाया जा चुका है। किसी हिंदी नाटक का संभवतः यह पहला अंतर्राष्ट्रीय उत्सव था। विशेष बात यह भी है कि यह सब कुछ दुनियाभर के नाट्य प्रेमियों ने अपने निजी संसाधनों के बल पर किया । इसमें भारत या किसी भी देश का सरकारी अनुदान शामिल नहीं था। इस नाटक के बीस वर्ष की वैश्विक यात्रा पर वाणी प्रकाशन इस लेखक के संपादन में एक विशेष सचित्र ग्रंथ छाप चुका है- ‘दो दशक जिस लाहौर नइ वेख्या…।’
अब इस नाटक के इतिहास पर जरा ध्यान दें। उर्दू पत्रकार संतोष कुमार ने सबसे पहले असगर वजाहत को लाहौर की एक घटना सुनाई थी। उनके सगे छोटे भाई कृष्ण कुमार गोर्टू 1947 के भारत-पाक विभाजन के समय दंगों में मारे गए थे। यह नाटक उन्हीं को समर्पित है। दरअसल यह हत्या उन हजारों निर्दोष लोगों की हत्याओं का प्रतीक है जो सांप्रदायिक उन्माद और हिंसा का शिकार हुए थे। विभाजन के काफी बाद संतोष कुमार लाहौर गए थे जहां उनके भाई की हत्या हुई थी और जहां से वे विस्थापित होकर दिल्ली आ बसे थे। वहां से लौटने के बाद उन्होंने एक लंबा यात्रा संस्मरण लिखा जो उर्दू में ‘लाहौर नामा’ शीर्षक से छपा। इसमें उन्होंने एक हिंदू बुढ़िया का जिक्र किया है जो विभाजन के बाद अकेले लाहौर में रह गई थी। इस पंजाबी स्त्री का बेटा और उसका सारा परिवार लापता थे। बुढ़िया को यकीन था कि एक दिन वे जरूर वापस लौटेंगे।
इतने से कथासूत्र के साथ बाकी बातों की कल्पना करते करते नाटक बनता चला गया। नाटक में होता यह है कि लखनऊ से अपना घर बार -व्यवसाय छोड़कर सिकंदर मिर्जा अपनी पत्नी हमीदा बेगम और दो जवान बच्चों जावेद मिर्जा और तनवीर बेगम के साथ लाहौर पहुंचते हैं। वहां प्रशासन उन्हें एक 22 कमरों वाली शानदार हवेली अधिकृत करता है जो एक हिंदी जौहरी रतनलाल की थी जो अब लापता है। समझा जाता है कि दंगों में सपरिवार उसकी हत्या कर दी गई है। अभी सिकंदर मिर्जा हवेली में ठीक से सांस भी नहीं ले पाते कि पता चलता है कि रतनलाल जौहरी की सत्तर वर्षीय मां हवेली में जिंदा है। वह किसी भी कीमत पर हवेली खाली करने को राजी नहीं है। गली मुहल्ले के शोहदे पहलवान याकूब मियां के नेतृत्व में इस बात का बतंगड़ बना देते हैं कि विभाजन के बाद एक हिंदू स्त्री लाहौर में कैसे रह सकती है। वे चाहते हैं कि वह हिंदू औरत इस्लाम स्वीकार कर लें। तनाव लगातार बढ़ता जाता है। सिकंदर मिर्जा का बेटा जावेद इन शोहदों को बुढ़िया की हत्या करने की सुपारी देता है। यह साजिश भी जावेद की मां के अड़ जाने से नाकाम हो जाती है। एक मौलवी इस्लाम की सच्ची व्याख्या करता है जो गुंडों-दंगाइयों को पसंद नहीं है। अचानक एक दिन बुढ़िया मर जाती है। मौलवी उसका अंतिम संस्कार हिंदू रीति से करने को कहता है जबकि दंगाई उसे दफनाना चाहते हैं शवयात्रा के समय दंगाई मौलवी का कत्ल कर देते हैं।
असगर वजाहत ने जब 1989 में इस नाटक को लिखा तो कुछ नाट्य – निर्देशकों को इसके पाठ में आमंत्रित किया गया। कोई निर्देशक पाठ में नहीं पहुंचा और कार्यक्रम रद्द करना पड़ा। इसका पहला पाठ दिल्ली के श्रीराम सेंटर रंगमंडल के कलाकारों के बीच हुआ। असगर वजाहत हिंदी पढ़ाने हंगरी के बुडापेस्ट शहर चले गए। अचानक उनकी पत्नी का फोन आया कि हबीब तनवीर इस नाटक को श्रीराम सेंटर रंगमंडल के साथ करना चाहते हैं। अंततः हवीब साहब के निर्देशन में इस नाटक का पहला प्रदर्शन 22 सितंबर 1990 को संभव हो सका। वह मंचन इतना सशक्त था कि देखते-ही-देखते नाटक की शोहरत दुनियाभर में फैल गई। बाद में हबीब तनवीर ने इसे अपने छत्तीसगढ़ी कलाकारों के साथ अपनी संस्था ‘नया थियेटर’ के लिए तैयार किया जिसके कई प्रदर्शन हॉल तक होते रहे हैं। इस बीच लेखक असगर वजाहत के साथ कई मुद्दों पर उनके मतभेद भी हुए।
पाकिस्तान में इस नाटक की अनुमति न दिए जाने की प्रशासन ने तीन वजहें बताई थी। पहली, नाटक में मौलवी की हत्या कर दी जाती है जिससे इस्लाम की छवि धूमिल होती है। दूसरा, नाटक के मुख्य पात्र माई (रतनलाल की मां) के चरित्र को बाकी सब पात्रों से श्रेष्ठ दिखाकर यह सिद्ध किया गया है कि हिंदू बुढ़िया आदर्श है और मुसलमान बुरे होते हैं।तीसरा कारण यह बताया गया कि नाटककार असगर वजाहत भारतीय हैं। भारत में लखनऊ प्रशासन ने इस नाटक को न होने देने की मुख्य वजह यह बताई कि टीम पाकिस्तानी है इसलिए शहर में शांति और सुरक्षा को खतरा हो सकता है। यह भी कहा गया कि मुंबई में 26 नवंबर को हुए आतंकी हमले के बाद भारत में पाकिस्तान के प्रति माहौल ठीक नहीं है। यहां यह बात ध्यान दिलाना जरूरी है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की तब की निर्देशक अनुराधा कपूर ने हिंदू कट्टरपंथियों की धमकियों की परवाह न करते हुए नाटक के प्रदर्शन को सुनिश्चित किया। रात दस बजे शो शुरू हुआ। नीचे ऊपर, गलियारे में सभी जगहें भर गई। जितने दर्शकों को अभिमंच सभागार में जगह मिल गई उससे कहीं ज्यादा दर्शक टिकट न मिल पाने से निराश लौट गए। सवाल है कि क्या दोनों देशों के सरकारी रवैये में कोई फर्क है?
पाकिस्तान में दर्शकों का एक बड़ा समूह है जो इस नाटक को बेइंतहा पसंद करता है। वहां सारे शो हाउसफुल गए हैं। वहां के चर्चित अंग्रेजी अखबार ‘डॉन’ ने लिखा है – ‘‘इस देश को आज जिस चीज की सबसे ज्यादा जरूरत है वह सहिष्णुता है जिसका अभाव हमारे नैतिक और सामाजिक बुनियादों को खोखला कर रहा है। इस संदर्भ में नाटक ‘जिस लाहौर…’ बहुत प्रासंगिक है।’ हेराल्ड अखबार का कहना था कि नाटक में अन्य वामपंथी प्रगतिशील लेखकों से अलग असगर वजाहत ने मौलवी को संकीर्ण, दकियानूसी और खलनायक नहीं बताया है। वह मानवीय किरदार है। क्या पाकिस्तानी सेंसर बोर्ड की यह आधार काफी नहीं लगा?”
अमरीका के प्रवासी हिंदी लेखक और वाइस आफ अमेरिका के प्रोग्रामर उमेश अग्निहोत्री ने 1994 में वाशिंगटन डी सी में इस नाटक का प्रदर्शन किया था। इसमें भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश के प्रवासी कलाकारों ने काम किया था। इसके कई सफल प्रदर्शन वहां दूसरे शहरों में भी हुई। सारे शो काफी लोकप्रिय हुए पर एक मुद्दा यह उभरा कि चूंकि नाटक द्विराष्ट्र सिद्धांत का विरोधी है, इसलिए पाकिस्तानी कलाकारों को इसमें काम नहीं करना चाहिए। पाकिस्तानी मूल के दो कलाकारों नूर नगमी और शोएब हसन ने इस आपत्ति को खारिज करते हुए नाटक में मुख्य भूमिकाएं निभाई।
आस्ट्रेलिया के शहर सिडनी में जब कुमुद मीरानी के निर्देशन में इस नाटक का मंचन हुआ तो दर्शकों की अद्भुत प्रतिक्रियाएं सामने आई। विभाजन की त्रासदी से गुजरी एक स्त्री की ‘टियर डक्ट सर्जरी’ होनी थी। नाटक देख वह खूब रोई। अगले दिन जब वह सर्जरी के लिए डॉक्टर के पास गई तो डॉक्टर ने बताया कि अब सर्जरी की जरूरत नहीं है। नाटक के आम दर्शकों की प्रतिक्रियाएं आश्चर्यजनक है। मुंबई से 45 किलो मीटर दूर डोम्बीवली में प्राथमिक स्कूल के एक रिटायर शिक्षक ने -प्रोड्यूसर को अपनी पेंशन में से पांच सौ रुपये का चेक प्रदान किया।
भारत में हबीब तनवीर के बाद हिंदी में 1998 में मुंबई में अपनी संस्था ‘अंक’ के कलाकारों के साथ वरिष्ठ रंगकर्मी दिनेश ठाकुर ने इसे मंचित किया। उन्होंने नासिर काजमी की जगह निदा फाजली की नज्मों और गुजरात दंगों के दृश्यों को इसमें शामिल किया है। नासिर काजमी की भूमिका स्वयं दिनेश ठाकुर निभाते थे। उनके निधन के बाद उनकी पत्नी प्रीता माथुर इस नाटक के शो लगातार कर रही हैं। उज्जैन में ‘अभिनव रंगमंडल’ के साथ शरद शर्मा, देहरादून में जुल्फिकार आलम और नैनीताल में जहूर आलम ने इस नाटक के कई प्रदर्शन किए। दिनेश ठाकुर ने तो तीन सौ से भी ऊपर प्रदर्शन का रिकार्ड बना दिया। देशभर से खासकर छोटी-छोटी जगहों से भी इस नाटक के प्रदर्शन की सूचना मिलती रहती है।
यहां नाटक के कन्नड़ संस्करण की बात करना जरूरी है जिसकी शुरूआत सुप्रसिद्ध रंगकर्मी ब.व.कारंथ ने की थी। यह काम बाद में डी.एन.श्रीनाक ने पूरा किया। इसे ‘रावी किनारे’ के नाम से छापा गया। इसका निर्देशन रमेश एस.आर. ने किया। इतना ही नहीं कर्नाटक की एक बोली ‘धारवी’ में थिप्पेस्वामी का अनुवाद छपा जिसे कंटेश के. ने मंचित किया। यहां से लेखक को इतनी रायल्टी मिली जितनी हिंदी से कभी नहीं मिली। इस नाटक का गुजराती में भी अनुवाद और प्रदर्शन होते रहे हैं। पंजाबी में इसके कई अनुवाद हुई। अमृतसर के केवल धालीवाल और लुधियाना के त्रिलोचन सिंह ने बड़े पैमाने पर इसके शो किए। पंजाब में इसका अभूतपूर्व स्वागत हुआ।
हिंदी के लिए यह गर्व की बात हो सकती है कि एक नाटक को केंद्र में रखकर अंतर्राष्ट्रीय उत्सव मनाया गया। भारत में और विदेशों में भी। अमरीका की राजधानी वाशिंगटन डी.सी. के प्रतिष्ठित कैनेडी सेंटर में भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश के प्रवासी कलाकारों के साथ उमेश अग्निहोत्री के निर्देशन में इस नाटक का विशेष प्रदर्शन काफी चर्चित रहा है। इसके बाद लंदन के नेहरू सेंटर में वहां की स्थानीय संस्थाएं कथा यू.के. और एशियन कम्युनिटी आर्टस एक आयोजन कर चुका हैं। हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में सुप्रसिद्ध हिंदी विदुषी मारिया निज्एशी एक खास संवाद आयोजित कर चुकी हैं। आस्ट्रेलिया पाकिस्तान और संयुक्त अरब अमीरात में भी आयोजन हो चुके हैं। इस पूरे आयोजन को हबीब तनवीर की स्मृति को समर्पित किया गया था।
इस नाटक ने कई फिल्मकारों को भी लगातार आकृष्ट किया है। सबसे पहले गोविंद निहलानी ने इस पर फिल्म बनाने के अधिकार खरीदा था। जब वे पांच साल तक फिल्म नहीं बना सके तो असगर वजाहत ने उन्हें कानूनी नोटिस भेजा। अब राजकुमार संतोषी ने आमिर खान के साथ मिलकर इस नाटक पर करीब सौ करोड़ रुपये की लागत से ‘ लाहौर 1947 ‘ नाम से अपनी फिल्म पूरी कर चुके हैं जो अगले साल फरवरी में रीलिज होगी। वे पर पहले संजय दत्त को मुख्य भूमिका में लेना चाहते थे। उसी दौरान संजय दत्त एक मुकदमे में जेल चले गए और फिल्म रूक गई। सनी देओल की फिल्म गदर 2 के सुपर हिट होने के बाद अब राजकुमार संतोषी और आमिर खान ने इस फिल्म में उन्हें ( सनी देओल) लीड रोल में लिया है।