दिल्ली चुनाव के बाद भाजपा आत्मचिंतन की मुद्रा में आ गई है. भूमि अधिग्रहण अध्यादेश अधर में लटक गया है. ऐसा न स़िर्फ राज्यसभा में कांग्रेस की असहमति की वजह से हुआ है, बल्कि उनके अपने सहयोगी अकाली दल, शिवसेना और राम विलास पासवान भी इस पर सहमत नहीं हैं. इसलिए संसद का संयुक्त सत्र भी कोई मदद नहीं कर पाएगा. वे बिल पास नहीं करा पाएंगे. उनके लिए सही यही होगा कि वे इसे फिर से संसद की स्थायी समिति के पास भेज दें.
बीते सप्ताह हमने बिहार में नीतीश कुमार की वापसी और रेल बजट को देखा. बिहार में लोकसभा चुनाव, जो भाजपा के पक्ष में चला गया था और जद (यू) ने निर्णय लिया कि नैतिक आधार पर नीतीश कुमार को त्याग-पत्र दे देना चाहिए. यह बिल्कुल अनावश्यक निर्णय था. नीतीश कुमार ने त्याग-पत्र दिया और सर्वसम्मति से जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया गया. जैसा कि हर आदमी का अपना व्यक्तित्व होता है, जीतन राम मांझी ने भी कई ऐसे काम किए, जो राजनीतिक रूप से ग़लत थे. उन्होंने अपने साले को सरकारी ओहदा दिया और ऐसे बयान दिए, जो राजनीतिक रूप से सही नहीं थे. इस साल बिहार विधानसभा चुनाव होने हैं और देश के जैसे सियासी हालात हैं, उनमें नीतीश कुमार के हाथों में बिहार की बागडोर फिर से देना एक अच्छा फैसला था. भाजपा की वजह से यह सब कुछ आसानी से नहीं हुआ, क्योंकि वह मांझी के सहारे पार्टी को तोड़कर अपना खेल खेलना चाह रही थी. सौभाग्य से ऐसा नहीं हुआ. जद (यू) विभाजित नहीं हुआ और मांझी अलग-थलग पड़ गए. आशा करते हैं कि बिहार में फिर से प्रशासन सही तरीके से चलेगा और राज्य इस साल के अक्टूबर-नवंबर में चुनाव के लिए तैयार रहेगा.
दूसरी बात है, रेल बजट. पिछले रेल बजट के मुकाबले इस साल के बजट का सबसे खास बिंदु यह रहा कि इसमें रेल मंत्री ने किसी भी नई ट्रेन की घोषणा नहीं की. इसे वह एक महान क़दम मान रहे हैं. मैं नहीं जानता कि ऐसा वह क्यों मान रहे हैं. अगर मौजूदा ट्रैक पर ही नई ट्रेनें चलती हैं, तो इसमें क्या खर्च आएगा? रेल मंत्री ने कई नए विचारों जैसे रेगुलेटरी बॉडीज, प्रशिक्षण, आधुनिक कांसेप्ट आदि की बात कही है. इनमें से कितने पर वह काम कर पाएंगे, उन पर अमल हो पाएगा, मैं नहीं जानता. आख़िरकार, पुराने रेलवे बोर्ड के पास तो वही पुरानी मशीनरी उपलब्ध है. सुरेश प्रभु के पास आइडिया है और उनकी छवि भी स्वच्छ है. मुझे विश्वास है कि उनकी मंशा साफ़ है, लेकिन यह समझना चाहिए कि उन्हें कोई नई संस्था नहीं मिल रही है. रेलवे आज़ादी से बहुत पहले की एक पुरानी संस्था है. आज़ादी के बाद हर साल एक रेल बजट होता है, जिसमें हर साल नई ट्रेनों की घोषणा होती है. मैं समझता हूं कि उनके लिए बेहतर यही होगा कि वह कम घोषणाएं करें और ज़्यादा काम करें. हालांकि, उन्होंने बहुत बातें कही हैं, बहुत-से वादे किए हैं, जिनके लिए उन्हें अलग से टास्क फोर्स बनानी होगी, ताकि ये सारे काम अगले बजट से पहले हो सकें. पहले भी हमने देखा है कि एक बार घोषणा हो गई, तो उसके बाद उस पर गंभीरता से काम नहीं होता. मंत्री तक बदल जाते हैं और काम न होने की सूरत में कोई जवाबदेह नहीं रहता. मैं उम्मीद करता हूं कि अगले बजट में सुरेश प्रभु यह बता सकेंगे कि उन्होंने अपनी पिछली घोषणाओं को पूरा कर लिया है.
यात्री भाड़ा न बढ़ाना ठीक लग सकता है, लेकिन यह सही नहीं है. मुंबई का उदाहरण लेते हैं. रेलवे के आधे से अधिक यात्री मुंबई उपनगरीय क्षेत्र और आधे शेष भारत से. यही मुंबई का महत्व है. लेकिन मुंबई में क्या होता है? मुंबई में अंधेरी से चर्चगेट तक का किराया दस रुपये है. यह अपर्याप्त है. कोई भी कह सकता है कि इसे बढ़ाकर तुरंत 25 रुपये कर देना चाहिए. और, यह यात्रा करने वाले ग़रीब नहीं हैं, वे नौकरीपेशा लोग हैं. उनकी कंपनी या नियोक्ता को यह पैसा देना चाहिए. असल में, रेल भाड़े में बढ़ोत्तरी की जानी चाहिए थी, जिसे रेल मंत्री नहीं कर सके. यदि मुंबई के लोगों को सब्सिडी मिलती है, तो देश की प्रगति नहीं हो सकती. होना तो यह चाहिए कि मुंबई को लागत से ज़्यादा का भुगतान करना चाहिए, ताकि देश के दूसरे हिस्सों को सब्सिडी दी जा सके. कम से कम मुंबई को वास्तविक किराये का तो भुगतान करना ही चाहिए. आप मुंबई उपनगरीय रेलवे नेटवर्क को घाटे में नहीं चला सकते. यह बुद्धिमानी भरा विचार नहीं है. मुझे उम्मीद है कि साल भर के भीतर यह किराया बढ़ेगा, कम से कम अगले बजट तक इसके लिए इंतज़ार नहीं करना चाहिए. यह सही है कि बजट में किराया बढ़ाने की घोषणा नहीं कर सकते थे. शायद यह राजनीतिक तौर पर सही नहीं होता. लेकिन, मैं समझता हूं कि अगले कुछ महीनों में उन्हें गणना करके किराये को तर्कसंगत बना लेना चाहिए. कम से कम मुंबई उपनगरीय क्षेत्रों के लिए. इस क्षेत्र में रोज़ाना लाखों लोग सफर करते हैं, जिनकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है. मुंबई मेट्रो आ रही है, जिसका किराया अधिक है और लोग छोटी दूरी के लिए इतना किराया देना नहीं चाहेंगे. उपनगर से शहर के लिए किराया वाजिब होना चाहिए. मैं आशा करता हूं कि रेल मंत्री इस पर ध्यान देंगे.
अब दूसरे सामान्य मुद्दे पर आते हैं. दिल्ली चुनाव के बाद भाजपा आत्मचिंतन की मुद्रा में आ गई है. भूमि अधिग्रहण अध्यादेश अधर में लटक गया है. ऐसा न स़िर्फ राज्यसभा में कांग्रेस की असहमति की वजह से हुआ है, बल्कि उनके अपने सहयोगी अकाली दल, शिवसेना और राम विलास पासवान भी इस पर सहमत नहीं हैं. इसलिए संसद का संयुक्त सत्र भी कोई मदद नहीं कर पाएगा. वे बिल पास नहीं करा पाएंगे. उनके लिए सही यही होगा कि वे इसे फिर से संसद की स्थायी समिति के पास भेज दें. इससे पहले सुमित्रा महाजन, जो अब लोकसभा अध्यक्ष हैं, की अध्यक्षता वाली स्थायी समिति ने पिछला बिल पास किया था. अब नई सरकार आ गई है. अगर वह एक नया बिल लाना चाहती है, तो उसे उचित तरीके से इस मामले को फिर से स्थायी समिति के पास भेजना चाहिए. अगर आपके पास समय नहीं है, तो कम से कम सेलेक्ट कमेटी के पास तो भेजना ही चाहिए, जहां भाजपा और अन्य पार्टियां इस बिल पर अपने मतभेद दूर कर सकें. बिल पर हंगामा करना कोई समाधान नहीं है और न ही इसे अध्यादेश के ज़रिये किसी भी तरह आगे लाना कोई समाधान है. दोनों ही रास्ते लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं हैं. आपको द्विपक्षीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए. आख़िरकार, हर कोई जनता की भलाई के लिए ही काम कर रहा है. एक जगह बैठकर अपनी असहमति दूर करिए और इस बिल को पास करिए, यही उचित तरीका है.