इस देश में ग़ैर सरकारी संगठनों के बारे में जितनी चर्चाएं होनी चाहिए, अफ़सोस! उतनी नहीं हो रही हैं. क्या एनजीओ को शामिल किए बग़ैर आंदोलन सफल नहीं हो सकता? क्या आंदोलनों को नुक़सान पहुंचाने में एनजीओ की कोई भूमिका है? क्या एनजीओ किसी स्वतंत्र नागरिक आंदोलन में घुसपैठ कर पूरे अभियान को हाईजैक कर लेते हैं? ऐसे कई सवाल हैं, जिनके बारे में लोगों को सही जानकारी नहीं है. इंटेलिजेंस ब्यूरो ने पिछले दिनों एक रिपोर्ट गृह मंत्रालय को सौंपी है, उसके बाद विदेशी चंदे से संचालित एनजीओ की भूमिका पर प्रश्नचिन्ह लग गया है.
ग्रीन पीस इंडिया जैसे ग़ैर सरकारी संगठन (एनजीओ) के संबंध में इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) की हालिया रिपोर्ट ने देश में विदेशी अनुदान से संचालित स्वयंसेवी संस्थाओं की कार्य प्रणाली को लेकर एक बहस की शुरुआत कर दी है. इस बहस में दो खेमे स्पष्ट रूप से नज़र आ रहे हैं. एक जो ग़ैर सरकारी संगठनों की भूमिका पर किसी तरह के सवाल उठाए जाने के सख्त ख़िलाफ़ है. दूसरा, जो यह चाहता है कि मौजूदा परिपेक्ष्य में विदेशी अनुदान के ज़रिये देश में चल रहे अनगिनत ग़ैर सरकारी संगठनों के कार्यों और उनके मक़सद के बारे में विस्तृत चर्चा हो. मैं स्वयं इस दलील से सहमत हूं कि भारत में सक्रिय एनजीओ के बारे में चर्चा और बहस होनी चाहिए, क्योंकि इस देश में आज भी एनजीओ को लेकर ज़्यादातर लोगों में एक भ्रम की स्थिति बनी हुई है. अधिकांश लोग यह समझते हैं कि देश में सक्रिय एनजीओ का एकमात्र और अंतिम अर्थ समाजसेवा है. यही कारण है कि लोगों को एनजीओ से जुड़े विभिन्न पहलुओं के बारे में कोई जानकारी नहीं है. लाखों की संख्या में मौजूद एनजीओ देश और समाज के विकास में सहायक हैं या अवरोध पैदा कर रहे हैं? यह एक बड़ा सवाल है. विदेशों से मिलने वाले अनुदान का उपयोग समाज की भलाई के लिए हो रहा है या उसका फ़ायदा एनजीओ से जुड़े चंद लोग ही उठा रहे हैं?
भारत में जब भी आंदोलनों की बात हुई है, तो हमारे जेहन में छात्र, नौजवान, किसान, मज़दूर और छोटे-मोटे सरकारी कर्मचारियों के धरने-प्रदर्शन और हड़ताल से जुड़ीं धुंधली तस्वीर उभरने लगती हैं. सत्तर और अस्सी के दशक में महंगाई, बेरोज़गारी और ग़ैर बराबरी की पृष्ठभूमि में कई फिल्में भी बन चुकी हैं, जो अपने दौर की सफल फिल्मों में रही हैं. बंबई, कलकत्ता और मद्रास (पूर्व नाम) की सड़कें आंदोलनकारियों से अटी पड़ी रहती थीं. दीवारों पर अपने हक़ के लिए दो-दो पंक्तियों के नारे लिखे जाते थे. यह वह दौर था, जब किसी विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों को, किसी कारख़ाने में काम करने वाले मज़दूरों को और ज़मींदारों की भूमि पर काम करने वाले खेतिहर मज़दूरों को उनके आंदोलनों के लिए किसी एनजीओ से आर्थिक मदद नहीं मिलती थी और न विदेशी संस्थानों से उन्हें कोई धन मिलता था. अपनी ज़ायज मांग की ख़ातिर संघर्ष करने वाले वे लोग एक स्वतंत्र संगठन बनाते थे और आपस में एक-एक पैसा बतौर चंदा इकट्ठा करके पर्चा, पोस्टर और बैनर बनाते थे. हड़ताल होने की स्थिति में कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूर गलियों और मोहल्ले में घूम-घूम कर भिक्षाटन करते थे. देश में कई ऐसे आंदोलन हुए हैं, जो इसी तरह के सामाजिक सहयोग की वजह से सफल हुए. वर्ष 1977 में जनता पार्टी की सरकार आने के बाद देशी और विदेशी पैसों की मदद से आंदोलन चलाने के पक्ष और विपक्ष में बातें होने लगीं. समाजवादी नेता किशन पटनायक ने वर्ष 1980 में समता संगठन की स्थापना की. जदयू के पूर्व नेता शिवानंद तिवारी इसके प्रथम संयोजक थे. किशन पटनायक जैसे नेताओं का मानना था कि देश में सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन जनता के पैसों से ही चलने चाहिए. अगर जनांदोलनों में विदेशी पैसों का इस्तेमाल होगा, तो आंदोलन अपनी दिशा और उद्देश्य से भटक जाएगा.
दरअसल, नब्बे के दशक में लागू हुईं नई आर्थिक नीतियों के बाद देश में आंदोलनों को ख़त्म करने की साज़िश हुई. निश्चित रूप से इस साज़िश का शिकार हमारे देश की न्यायपालिका भी हुई. कुछ वर्ष पहले उच्चतम न्यायालय ने हड़ताल को जिस तरह ग़ैर संवैधानिक क़रार दिया, उसे इस संदर्भ में जोड़कर देखा जा सकता है. इस ़फैसले के बाद सरकारी और निजी क्षेत्रों के कल-कारख़ानों में मज़दूरों की उठने वाली आवाज़ों को ख़ामोश कर दिया गया. निजी क्षेत्रों की कंपनियों में श्रमिकों को न्यूनतम मज़दूरी भी नहीं दी जाती है, बावजूद इसके उन्हें आंदोलन करने और यूनियन बनाने की इज़ाज़त नहीं है. गांवों में रहने वाले खेतिहर मज़दूरों और छोटे किसानों की हालत भी कमोबेश ऐसी ही है. कृषि उपज की सही क़ीमत न मिलने से किसान क़र्ज़ के बोझ तले दबे जा रहे हैं. ग़रीबी और तंगहाली से परेशान किसान कोई आंदोलन करते हैं, तो प्रशासन उन पर लाठियां और गोलियां चलाता है. देश में कई बार किसानों पर हुई फायरिंग की घटनाएं इस बात की गवाह हैं.
सत्तर और अस्सी के दशक में विश्वविद्यालयों में छात्रसंघों की एक बड़ी भूमिका होती थी. उस वक्त देश में निजी शैक्षणिक संस्थानों की कोई ख़ास सुगबुगाहट नहीं थी. महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ के चुनाव नियमित कराए जाते थे. चुनाव में जीतने वाले छात्र नेताओं को विश्वविद्यालयों के सीनेट और सिंडीकेट में शामिल किया जाता था. कॉलेज और यूनिवर्सिटी में नियमित कक्षाएं संचालित हों, शैक्षणिक शुल्क में अनावश्यक वृद्धि न हो, इसे लेकर छात्र नेता काफ़ी सजग रहते थे. जिन विश्वविद्यालयों में इसकी अनदेखी होती थी, वहां के छात्र नेता सड़कों पर उतर कर विरोध-प्रदर्शन करते थे. विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा छात्रों की मांगों की अनदेखी करने पर छात्र बेमियादी अनशन पर भी बैठ जाते थे. ज़ाहिर है, इन सबके लिए छात्र नेताओं को पैसे की दरकार होती थी, लेकिन पैसों का इंतज़ाम वे लोग आपस में चंदे के जरिये करते थे. उनके आंदोलनों में किसी पूंजीवादी संगठन की कोई भूमिका नहीं होती थी.
छात्रों, नौजवानों, किसानों और मज़दूरों के संघर्ष की यह आदर्श स्थिति तीन-चार दशक पहले की बात थी. वर्ष 1990 यानी नव-उदारवादी नीतियों के बाद हालात काफ़ी बदल चुके हैं. इस दौरान बड़े पैमाने पर सरकारी कल-कारख़ानों को निजी कंपनियों के हाथों बेच दिया गया, तो कई फैक्ट्रियों को हमेशा के लिए बंद कर दिया गया. नतीजतन, वहां काम करने वाले मज़दूरों को निजी क्षेत्र की फैक्ट्रियों में काम करने के लिए विवश होना पड़ा, जहां उन्हें अपनी ज़ायज मांगों की ख़ातिर संघर्ष करने का कोई अधिकार नहीं है. नब्बे के दशक के बाद देश में निजी उच्च शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना होने लगी. शिक्षा माफियाओं ने सबसे पहले सरकार के साथ मिलकर विश्वविद्यालयों में होने वाले छात्रसंघ चुनावों पर पाबंदियां लगवाईं, ताकि उनके ख़िलाफ़ कोई आवाज़ न उठा सके. कुछ राज्यों को छोड़ दें, तो देश में अधिकांश विश्वविद्यालयों में कई वर्षों से छात्रसंघ के चुनाव लंबित हैं. निजी उच्च शैक्षणिक संस्थान अपनी मर्ज़ी से फीस बढ़ाते हैं, लेकिन उसके विरोध में कोई आवाज़ नहीं उठती. सरकारी विश्वविद्यालयों ने भी पिछले दस वर्षों में फीस में कई गुना अधिक बढ़ोत्तरी की है, लेकिन वहां इक्के-दुक्के छात्र संगठनों को छोड़कर किसी में विरोध करने का साहस नहीं रह गया है. दरअसल, ये तमाम विसंगतियां नब्बे के दशक में लागू हुईं नई आर्थिक नीतियों के बाद पैदा हुई हैं.
नब्बे के दशक से पहले देश के किसान अपनी कृषि उपज की सही क़ीमत पाने के लिए संघर्ष करते थे, लेकिन पिछले चौबीस वर्षों से लाखों किसान अपनी ज़मीन बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. देश में आर्थिक विकास के नाम पर हर साल सैकड़ों परियोजनाओं को मंजूरी दी जा रही है. दुर्भाग्य की बात यह है कि इनमें सरकारी क्षेत्र की कंपनियों की संख्या न के बराबर है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों को उद्योग लगाने के लिए ज़मीन चाहिए और यह ज़मीन उन्हें बग़ैर सरकारी मदद के नहीं मिलती. केंद्र और राज्य सरकारें सार्वजनिक मक़सद के नाम पर किसानों की ज़मीन अधिग्रहीत करती हैं. कहीं आसानी से, तो कहीं काफ़ी विरोध के बाद सरकार निजी कंपनियों के लिए ज़मीन हासिल करने में सफल हो रही हैं. आज भी कई राज्यों में किसानों और प्रशासन के बीच खूनी संघर्ष जारी है और हर साल दर्जनों किसान पुलिस की गोलियों के शिकार हो रहे हैं. जल, जंगल और ज़मीन बचाने की इस मुहिम में किसानों और आदिवासियों का संघर्ष पिछले कई वर्षों से चल रहा है. हालांकि, किसानों और वंचितों की इस लड़ाई में आज वैसे ग़ैर सरकारी संगठन (एनजीओ) भी शामिल हैं, जिन्हें विदेशी संस्थानों से हर साल करोड़ों रुपये का अनुदान मिलता है. यहां सवाल यह है कि आख़िर जल, जंगल और ज़मीन बचाने के लिए जारी किसानों और आदिवासियों के स्वतंत्र आंदोलन में ग़ैर सरकारी संगठन (एनजीओ) इतनी दिलचस्पी क्यों दिखा रहे हैं?
यह एक ऐसा सवाल है, जिसका उत्तर ख़ुद एनजीओ कर्मियों के पास नहीं है. मैं पिछले एक साल के दौरान देश के उन सभी स्थानों पर गया, जहां जल, जंगल और ज़मीन बचाने के लिए किसानों और आदिवासियों का संघर्ष चल रहा है. एक स्वतंत्र पत्रकार होने के नाते मैंने महसूस किया कि वे सभी बड़े आंदोलन, जिनमें विदेशी धन से संचालित एनजीओ की घुसपैठ हुई है, धीरे-धीरे अपने मूल मक़सद से भटक गए और उस आंदोलन में शामिल ज़मीनी कार्यकर्ताओं को एनजीओ ने हाशिये पर ढकेल दिया. तमिलनाडु के तिरुनेवेल्ली ज़िले का कुडनकुलम आंदोलन इसका एक बेहतर उदाहरण है. पीपुल्स मूवमेंट अगेंस्ट न्यूक्लियर एनर्जी के तत्वावधान में पिछले कुछ वर्षों से यहां आंदोलन चल रहा है. इस आंदोलन की अगुवाई डॉ. एस पी उदय कुमार कर रहे हैं. कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र रूस की मदद से निर्मित हुआ है. ज़ाहिर है, यहां लगने वाले न्यूक्लियर रिएक्टर रूस से ही ख़रीदे गए हैं. डॉ. एस पी उदय कुमार पर शुरू से आरोप लगते रहे हैं कि उनके एनजीओ को पश्चिमी देशों से वित्तीय मदद मिलती है, क्योंकि वहां की न्यूक्लियर एनर्जी लॉबी चाहती है कि भारत में लगने वाले परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में उनके रिएक्टर लगाए जाएं, ताकि उनके देशों की कंपनियों को इससे आर्थिक लाभ हो. हालांकि, डॉ. एस पी उदय कुमार इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज़ करते हैं. इंटेलिजेंस ब्यूरो की हालिया रिपोर्ट आने के बाद इस तरह के आंदोलनों पर सवाल उठना लाज़िमी है. पीपुल्स मूवमेंट अगेंस्ट न्यूक्लियर एनर्जी संगठन को तूतीकोरीन मल्टीपरपस सोशल सर्विस सोसायटी (टीएमएसएसएस) और तूतीकोरीन डायओशन एसोसिएशन (टीडीए) द्वारा आर्थिक मदद की जा रही है. इस बात का ख़ुलासा इंटेलिजेंस ब्यूरो ने अपनी रिपोर्ट में भी किया है. उक्त रिपोर्ट के मुताबिक़, फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेग्युलेशन एक्ट (एफसीआरए) के तहत पंजीकृत टीएमएसएसएस को वर्ष 2008-09 में 10.97 और वर्ष 2012-13 में 5.26 करोड़ रुपये का विदेशी अनुदान मिला. उसी तरह टीडीए को पिछले पांच वर्षों में 19.18 करोड़ रुपये का विदेशी अनुदान प्राप्त हुआ. इस एनजीओ को यह रक़म जर्मनी, इटली और फ्रांस से मिली है. ग़ौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय ने कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र से बिजली उत्पादन की मंजूरी पिछले साल दी थी. उसके बाद यहां बिजली उत्पादन भी शुरू हो गया है, लेकिन आंदोलन के गढ़ कहे जाने वाले इदिंथकरई के निवासियों का आंदोलन अभी भी चल रहा है. वहीं इस आंदोलन के शीर्ष नेता डॉ. एस पी उदय कुमार ने आम आदमी पार्टी के टिकट पर कन्याकुमारी लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा, लेकिन उन्हें क़रारी हार का सामना करना पड़ा.
एक दूसरा महत्वपूर्ण आंदोलन है नियमगिरि का. पिछले साल उच्चतम न्यायालय ने आदेश दिया था कि ओडिशा के रायगढ़ा और कालाहांडी ज़िले में नियमगिरि की पहाड़ियों पर ब्रितानी कंपनी वेदांता को बॉक्साइट खनन की अनुमति मिले अथवा नहीं, यह ़फैसला नियमगिरि की पहाड़ियों पर बसे डोंगरिया कोंध आदिवासी करेंगे. उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद ओडिशा सरकार ने उन बारह गांवों में पल्ली सभा (ग्राम सभा) का आयोजन कराया, जहां डोंगरिया कोंध आदिवासी रहते हैं. रायगढ़ा के ज़िला एवं सत्र न्यायाधीश के पर्यवेक्षण में ये पल्ली सभाएं आयोजित की गईं. सभी बारह पल्ली सभाओं में डोंगरिया कोंध आदिवासियों ने नियमगिरि की पहाड़ियों पर बॉक्साइट खनन के विरोध में मतदान किया. ग़ौरतलब है कि डोंगरिया कोंध आदिवासी नियमगिरि की पहाड़ियों को नियम राजा कहते हैं. वे लोग स्वयं को नियम राजा की संतान मानते हैं और उनकी रक्षा के लिए अपनी जान देने को भी सदैव तत्पर रहते हैं. नियमगिरि का यह आंदोलन नियमगिरि सुरक्षा समिति के महामंत्री एवं समाजवादी जन परिषद् के राष्ट्रीय महासचिव लिंगराज आज़ाद की अगुवाई में चल रहा है. नियमगिरि का यह आंदोलन इस लिहाज़ से सफल कहा जाएगा कि इसमें विदेशी धन से संचालित एनजीओ की कोई भूमिका नहीं थी. हालांकि, नियमगिरि इला़के में एक्शन एड नामक एनजीओ भी पिछले कई वर्षों से सक्रिय है. इंटेलिजेंस ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक़, एक्शन एड को वर्ष 2008-09 में 364.47 करोड़ रुपये का विदेशी अनुदान प्राप्त हुआ था, वहीं 2012-13 में उसे 331.91 करोड़ रुपये का चंदा विदेशों से मिला. किसी एनजीओ को विदेशों से मिल रहे इतने बड़े अनुदान का आख़िर क्या मतलब है?
इसी तरह देश में जीएम फ़सलों के ख़िलाफ़ भी आंदोलन चल रहे हैं. इस आंदोलन से जुड़े गेन कैंपेन नामक एनजीओ को वर्ष 2008 से 2013 के बीच कुल 5.45 करोड़ रुपये का विदेशी अनुदान मिला. गेन कैंपेन एनजीओ को यह धन इटली, जर्मनी, ब्रिटेन, नीदरलैंड और कनाडा से प्राप्त हुआ. देश में जीएम फ़सलों के विरोध में अभियान चला रही वंदना शिवा के एनजीओ नवदान्या ट्रस्ट को वर्ष 2008-09 से वर्ष 2011-12 के बीच 12.78 करोड़ रुपये का विदेशी अनुदान हासिल हुआ. नवदान्या ट्रस्ट को यह धन कनाडा, इटली, जर्मनी, अमेरिका, ब्रिटेन, स्विटजरलैंड और स्वीडन से मिला. इसके अलावा, नई दिल्ली स्थित इंडियन सोशल एक्शन फोरम नामक एनजीओ को पिछले पांच वर्षों के दौरान 5.06 करोड़ रुपये का विदेशी चंदा मिला. आख़िर किसानों के नाम पर विरोध करने वाले इन एनजीओ में कौन लोग हैं और उन्हें क्या-क्या सुविधाएं मिलती हैं, यह भी एक बड़ा सवाल है.
बहरहाल, विदेशी अनुदान से संचालित ग़ैर सरकारी संगठनों की भूमिका पर इंटेलिजेंस ब्यूरो की रिपोर्ट शांत सरोवर में पत्थर मारने जैसी है. निश्चित रूप से इस रिपोर्ट पर विरोध और समर्थन के स्वर पैदा होंगे. बावजूद इसके पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को चाहिए कि वे विदेशी चंदे से संचालित एनजीओ की भूमिका पर बहस करें, क्योंकि मौजूदा समय में एनजीओ का किरदार पूरी तरह बदल चुका है.
ऐसे एनजीओ जनांदोलनों के लिए ख़तरा हैं
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