हमारी पार्टी ने फैसला किया था कि अगर थोड़ी सी जानकारी मिल जाए कि हमारी तरफ से कहां-कहां जाना मुमकिन हो तो हम भी अपनी तऱफ से जा कर बातचीत करें. कई इंटेलेक्चुअल ग्रुप के साथ मेरी बात हुई. दो-तीन मीटिंग्स हुई. मैं महाराष्ट्र भी गया था. मैंने कोलकाता में भी कहा था कि अब हमें आपसे सुनने की ज़रूरत है. हमने बहुत कुछ सुनाने की कोशिश की कश्मीर में. कभी नाराज़ हो गए, कभी राज़ी हो गए. कभी गले मिले.
लेकिन आज तक कहीं भी इसका एंड रिजल्ट (अंतिम परिणाम) नजर नहीं आता है. नाराज़गी का इज़हार करते हुए लोगों ने बंदूक़ें भी उठाईं. पत्थर भी उठाए. फिर बैठ भी गए, चुप भी हो गए. मर भी गए, जेल भी गए. लेकिन, हाकिम लोग सुनते नहीं. कम से कम सिविल सोसाइटी के लोग ही हमारी बात सुनें और हमारी स़िफारिश करें.
लोग हम सबसे नाराज़ हैं
हमारी बात को कोई तो सुने. यहां (कश्मीर में) करना कुछ नहीं है. यहां कुछ होगा भी नहीं. अगर कुछ करना है तो वह अथॉरिटी को सोचना है. अथॉरिटी अगर मुल्क के लिए कुछ अच्छा सोचती है, तो कश्मीर की भलाई भी उसी में है. मैं यह कहीं भी महसूस नहीं करता कि कश्मीर को आइसोलेशन में देखा जाए. यहां बड़े-बड़े लोग हैं, जो बड़ी-बड़ी बातें करते हैं. कभी डराने की बातें, कभी धमकाने की बातें.
कभी मायूसी की बातें, कभी नाराज़गी की बातें. कुल मिला कर ये है कि लोग मायूस हैं, नाराज़ हैं और कोई रास्ता चाहते हैं. गिलानी साहब अलग कुछ कहेंगे, फारूक़ साहब कुछ कहेंगे. हम तुम्हारे साथ, तुम हमारे साथ. लेकिन सच तो ये है कि लोग हम सब से नाराज़ हैं. उस वक्त (पहले) लोग सिर्फ हमसे नाराज़ थे, दिल्ली से नाराज़ थे, मेनस्ट्रीम से नाराज़ थे, आज हम सबसे नाराज़ हैं.
मैं आज ये लफ्ज इसलिए इस्तेमाल कर रहा हूं, क्योंकि हमारी पहचान हिन्दुस्तान के साथ है. ़फारूक़ साहब कुछ भी कहें, मैं तुम्हारे साथ हूं, कुछ भी कहें, एक हिस्ट्री (इतिहास) है. इतनी जल्दी आप उस पहचान को बदल नहीं सकते. कोई कहे कि सप्रेशन में कश्मीर का फ्यूचर है, मैं नहीं मानता हूं.
हमें वही काम करना होगा, जिसे हम अवाम के लिए ठीक समझते हैं, जिसे हम हल समझते हैं. बाक़ी, तो क़ौमें मिट गई हैं, जब आपस में टकराव हुआ. कभी कंफ्रंटेशन के नाम पर, कभी वार में छोटी-छोटी कौमें मिट गईं इतिहास से. ये यहां भी हो सकता है. यहां भी हो रहा है. यहां की लीडरशीप में बशरियत की कमी है, लेकिन यहां की ज़िम्मेदारियां कम हैं. यहां का सारा काम आपके सामने है.
मुल्क के पॉलिटिकल क्लास, खास कर वो सेक्शन जिनके हाथ में लगाम है, वहां से मैं मायूस हूं. यहां की बड़ी आबादी, भारत सरकार से कोई भी इनिशिएटिव, कुछ भी इनिशिएटिव चाहती है. यहां के लोग बाहर से आए सिविल सोसाएटी के लोगों से बेधड़क मिलते हैं. लोग चाहते हैं कि सिविल सोसायटी के लोग उनके दिल की बात करते, दुनिया को बताते, ये जानते हुए भी कि आप अथॉरिटी नहीं हैं.
लेकिन लोग यह जान कर सिविल सोसाएटी के मेंबर्स का इस्तक़बाल करते हैं कि वे उनके दर्द-ए-दिल को महसूस करते हैं, समझते हैं. ये इज़हार क्या है? लोग कहीं से एक छोटी सी कोशिश होती भी देखते हैं, तो उधर दौड़ पड़ते हैं. इसमें कुछ ऐसे भी लोग होंगे जो हक़ीक़त का सामना नहीं करना चाहते हैं, लेकिन ऐसे लोग कम हैं, ऐसे लोग सभी जगह हैं. ऐसे लोगों को कल फ्रीडम भी दे दें तो भी कल को आपस में टकराव होगा. लेकिन, जिन लोगों के पास सब करने के लिए है, वहां से मुझे मायूसी नज़र आती है.
तहरीक चलाने के लिए लीडरशिप में सलाहियत की कमी है
अगस्त के महीने में जम्मू में हमारे वित्त मंत्री का भाषण था. उनके साथ पीएमओ के मंत्री डॉ. जितेन्द्र सिंह भी थे. उन्होंने कहा कि कश्मीर में हज़ार की संख्या में लोग पुलिस थानों, आर्मी कैंप में आते हैं, हमला करने के लिए, तो इसके बदले गोली तो चलेगी ही. मैंने वहीं से अपनी बात शुरू की और कहा कि ये लोग यह जान कर ही आते हैं कि वहां गोली चलेगी. गोली अगर जवाब होता तो वह चलती रहेगी.
बहुत सारे मुल्कों में चलती आई है, चलती रही है, लेकिन नतीजा कुछ निकला नहीं. मैं नहीं चाहता कि मेरे मुल्क में ऐसा हो, मेरी रियासत में ऐसा हो. उसी भाषण में डॉ. जितेन्द्र ने भी कहा था कि हम कोटली में झंडा फहराएंगे. मैंने कहा कि ये डॉक्टर रहे हैं, मैं डायबिटिक पेशेंट हूं, मेरे भी डॉक्टर रहे हैं. मैं अभी भी पेशेंट हूं, लेकिन ये अब डॉक्टर नहीं रहे.
मैंने कहा कि आप जब गोलियों की बारिश में झंडा फहराने के लिए लाल चौक पर आए, मुरली मनोहर जोशी साहब के साथ. लेकिन, मैं ये ़खबर दे देता हूं कि वो जगह आपने जहां झंडा फहराया था, वो जगह आज सुर्ख हो रही है इस देश में झंडा के लिए. उस भाषण में इन नेताओं ने दुनियाभर की बात की, लेकिन कश्मीर के दर्द के बारे में दो लफ्ज भी नहीं कहे.
मैं नहीं जानता कि आज हमारा देश किस तरह से चल रहा है. कश्मीर में पिछले 4-5 महीनों में जो हुआ, ऐसा लगता है बाक़ी देश के लिए कुछ हुआ ही नहीं है. हमारी बदक़िस्मती ये है कि लीडरशिप भी इस बात को नहीं समझती है. यदि, लीडरशिप सलाहियत वाली हो जो अवामी तहरीक को चलाए, उसमें कमी है. कितना चलना है, कितना खींचना है किसी चीज को.
कश्मीर बार-बार राजनीतिक-आर्थिक तौर पर अलग-थलग पड़ जाता है. कश्मीर की तिजारत को भारी नुकसान हुआ है. टूरिज्म यहां की मुख्य तिजारत (व्यापार) है. उसका हाल खराब हो गया है. कौन यहां इस ठंड में आएगा घूमने के लिए. बाकी, एग्रीकल्चर, हॉर्टीकल्चर का भी ज्यादा ध्यान नहीं रखा जा सका. मार्केटिंग ठीक तरीके से नहीं हुई. उसका भी भारी नुक़सान हुआ है.
मैं समझता हूं कि ये एक अवसर था, लीडरशिप अगर इस वक्त आगे आती तो उम्मीद की जा सकती थी कि कल तक जिनलोगों ने बातचीत के लिए दरवाज़े बंद किए थे, वो दरवाज़ा खोलते. लेकिन, उस अवसर का इस्तेमाल करने के लिए दिल चाहिए.
मैं ये नहीं कहूंगा कि सलाहियत नहीं है. इतने बड़े मुल्क को चलाने वाले में कुछ तो सलाहियत होगी ही. मैं नहीं कहूंगा कि क्षमता नहीं है. इतना झूठ पर झूठ, मुल्क चलता रहा है. सलाहियत है, लेकिन दिल की कमी है. इससे पूरे मुल्क का नुक़सान है. हम सब का नुक़सान है.
कोशिशें जारी रहनी चाहिए
डीमोनेटाइज़ेशन का सवाल जो भी हो, अच्छा या बुरा, लेकिन आप प्रधानमंत्री हैं तो संसद की वजह से हैं और आप संसद में बोलते नहीं हैं. अपोज़ीशन अगर आपको चार गालियां देता तो वहीं पर देता. आप कहते हैं कि अपोज़ीशन बोलने नहीं देता. ठीक है, तो फिर दुनिया देखती कि अपोज़ीशन आपको कैसे नहीं बोलने दे रहा है. वैसे, प्राइम मिनिस्टर को बोलने से कोई नहीं रोकता. प्राइम मिनिस्टर के भाषण के बीच आमतौर पर संसद में कोई भी व्यवधान पैदा नहीं करता है.
अगर अपोज़ीशन व्यवधान भी पैदा करता तो दुनिया देखती कि इतने बड़े कद के प्रधानमंत्री को अपा़ेजीशन ने कैसे नहीं बोलने दिया. अगर लोग उनके बोलने में रुकावट डालते तो इल्जाम अपोज़ीशन पर आता. लोग कहते कि प्रधानमंत्री बोलना चाहते हैं लेकिन अपोज़ीशन कुछ बोलने नहीं दे रहा है. लेकिन, प्रधानमंत्री ने संसद की परवाह ही नहीं की. घंटों टेलीविजन पर बोलते रहे.
जिस संसद ने उन्हें इतना बड़ा ओहदा दिया है, प्राइम मिनिस्टर होने की इज्ज़त बख्शी है, उसकी ही परवाह नहीं की. इसका मतलब है कि वो संस्थाओं के महत्व को कम समझ रहे हैं. उसे कमतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं. यह देश के भविष्य के लिए चिंतानजक है. इस तरह का अहंकार देखते हुए इस बात की गुंजाइश कम नजर आती है कि वे कश्मीर का दर्द समझें. इस तरह के अहंकारपूर्ण मनोवृत्ति में कश्मीर एक छोटी सी जगह है, तो फिर इनकी बात को क्यों सुने.
उल्टे, ये सोच हो सकती है कि इन्हें सबक सिखाया जाए. ऐसा मुझे लग रहा है. मैं ग़लत हो सकता हूं. मेरी गुज़ारिश है कि कोशिशें जारी रहनी चाहिए. ऐसा लगता है कि इतने बड़े देश में कुछ लोग हैं, जो दर्द को बांटना चाहते हैं. मेरे ख्याल में ये भी बड़ी बात है. सिविल सोसाइटी के लोग हमसे मिलने आते हैं, ये अच्छी बात है. ये ज़रूरी नहीं है कि कोई बहुत बड़ा इनिशिएटिव इससे निकल ही आए. लेकिन सबसे ज़रूरी ये है कि उम्मीद बनी रहे. मैं समझता हूं कि ये बात ही सबसे महत्वपूर्ण है.