अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद हम सभी को पीड़ा देता है. स्वयं लंदन में भी 1980 के दशक और जाहिर तौर पर हाल तक यानी जुलाई 2005 तक भी बम के धमाके झेलता रहा है. भले ही हम उस शहर या देश में नहीं रहते हों, जो आतंकवाद से पीड़ित हो, लेकिन आतंकवाद ख़ुद ही भय की संस्कृति पर जिंदा रहता और इसे बढ़ाता है. आतंक के ख़िला़फ लड़ाई की वजह से बहुमूल्य संसाधन भी मानव कल्याण से दूर हो जाते हैं. यह भी बिल्कुल साफ है कि आतंक के जरिए और आतंक ही बढ़ता है. हम बिना किसी समाधान के हिंसा का निरर्थक प्रसार देख रहे हैं.
जहां भी भय है, वहां शांति नहीं हो सकती. डर तो एक तरह का रक्षात्मक रवैया विकसित कर देता है, जिससे दुनिया कई धड़ों में बंट जाती है.
आज की दुनिया में हमें ख़ुद से कई गंभीर सवाल पूछने होंगे. जब हमारे पास इतनी शिक्षा है, वैज्ञानिक विकास और सामाजिक समझ है, तब क्यों हरेक महादेश में लोगों के इस तरह के समूह हैं, जो हिंसा का सहारा ले रहे हैं.
हम अपनी आंतरिक मानवीयता क्यों खो रहे हैं? आख़िर मानवीय हृदय के अंदर ऐसी खलबली क्यों मची है?
चार जून को मैं जेरूशलम में थी. सच पूछिए तो ठीक उसी दिन जब राष्ट्रपति ओबामा ने काहिरा में अपना महत्वपूर्ण भाषण दिया था. जेरूशलम वही शहर है, जो तीन महान धर्मों को माननेवालों को प्रिय है, फिर भी उसी शहर के लोग एक दूसरे से डरते हैं. मैंने वहां एक कांफ्रेंस में भी शिरकत की. उसी दौरान हमने व्यक्तिगत के साथ ही वैश्विक पहचान को भी समझने की ज़रूरत है. पहचान पर ही ख़तरा पैदा हो गया है और उस पहचान को बचाने की कोशिश में ही द्वंद्व पैदा होता है. इन हालात में हम सभी धर्मों के उस सुनहरे नियम का पालन नहीं कर सकते जो बताता है कि ख़ुद की तरह ही अपने पड़ोसियों को भी प्यार करो.
यह आध्यात्मिक सत्यहै, जो बेहद आधारभूत सिद्धांत है, कि आंतरिक तत्व ही बाहर प्रदर्शित होते हैं. इंसानों की आंतरिक अवस्था ही बाहरी दुनिया को निर्धारित करती है.
यहीं दूसरा सवाल भी उठता है. क्या इंसान का मूल स्वभाव बुरा है या भला? हम मानवीय महानता के उदाहरण भी देखते हैं और साथ ही हिंसात्मक रवैया. हालांकि, हरेक मानव के पास अच्छाई की संभावना और ताक़त है. हम जब अपनी अच्छाई को दबा देते हैं, तभी हमारे कार्य विनाशकारी हो जाते हैं.
दूसरे के कष्ट को अगर हम समझने लगें, भले ही छोटे स्तर पर ही सही. हम दूसरे की आलोचना करते ही अपनी आंतरिक अच्छाई से भटक जाते हैं. बाकी सारी हिंसा इसी से जन्म लेती है.
अपनी आंतरिक अच्छाई को पाने का मतलब अपनी आंतरिक प्रज्ञा को जगाना है, ख़ुद का महत्व पहचानना है और दूसरे की ज़िंदगी का आदर करना है. इसका एक साधारण प्रभाव तो यही होगा कि हम अपनी आत्मा शुद्ध रखेंगे और कुछ मूल्यों जैसे सम्मान, सहिष्णुता और उदारता को समझ सकेंगे. इसके बिना हम अंदर से खालीपन महसूस करते हैं जो आख़िरकार हमारे बाह्य आचरण पर नकारात्मक प्रभाव डालता है. यह प्रभावशाली बनने और ताक़त हथियाने को हमें प्रेरित करता है. यही असुरक्षा आख़िरकार हमें हिंसा की ओर धकेलती है.
आध्यात्मिक पहचान को खोने और केवल बाहरी भौतिक दुनिया से ही जुड़कर हम हिंसक संस्कृति को पैदा करते हैं.
अपनी आंतरिक अच्छाई को विकसित करना कुछ ऐसा नहीं है, जिसके लिए कोई विधेयक लाना होगा. किसी क़ानून से इसे जबरिया लागू नही किया जा सकता, इसे तो केवल मानव का हृदय ही समझ सकता है. इसके लिए हमें जीवन की शिक्षा और राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रूरत होगी ताकि हम ताक़त औऱ धन की पूजा करना छोड़ सकें, जिनका इस्तेमाल हथियारों के व्यापार और निर्बलों को कुचलने में होता है.
यह मेरी गुज़ारिश है कि हम अपने संसाधनों को आध्यात्मिक शिक्षा देने के काम में लाएं. यह सचमुच हिंसा की जड़ को ख़त्म करने का व्यावहारिक उपाय है. इससे हिंसक प्रवृत्ति वालों को शांति की तऱफ मोड़ना संभव होगा. एक व्यक्ति के बदलाव से ही आख़िरकार हम समुदायों और देशों को बदल सकेंगे. इसी वजह से यह हमारा परम कर्तव्य है कि हम दिन में कुछ समय तो अपने साथ बिताएं ही, ताकि हमारी आंतरिक अच्छाई को बाहर आने का समय मिल सके. यह तो बस ख़ुद को याद दिलाने सरीखा है कि हमारी प्रतिष्ठा हमारी आत्मा से बड़ी नहीं है और हरेक इंसान का जीवन उतना ही अहम है, और उसमें रूपांतरण की संभावना भी है. इससे ़फर्क़ नहीं पड़ता कि आदमी का व्यवहार कैसा है.
व्यावहारिक जीवन में ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनकी ज़िंदगी पूरी तरह बदल गई है. हमारे आध्यात्मिक विश्वविद्यालयों में (जिनकी संख्या भारत और पूरी दुनिया में कुल मिलाकर 100 से भी अधिक है) और दूसरे अन्य संगठनों में भी व्यक्तियों का रूपांतरण हुआ है.
यहां मैं ऐसे दो उदाहरण देना चाहूंगी. पहला तो थाईलैंड-बर्मा सीमा पर बने एक शरणार्थी शिविर का है. वहां के गार्ड शिविर के बच्चों के लिए लाए गए भोजन को चुरा लेते थे. वहां मानवीयता और सहृदयता का अभाव था. यहां बच्चों और रक्षकों, दोनों के लिए मूल्यों की शिक्षा देने की शुरुआत की गई. यह उसी सिद्धांत पर आधारित था कि हरेक व्यक्ति में ही बेहतर बनने की क्षमता है. कुछ ही सप्ताह में शिविर का पूरा वातावरण और संस्कृति बदल गई. एक साल बाद वह बदलाव स्थायी हो गया. इसी तरह भारत के कई हिस्सों में ब्रह्मकुमारियों ने गांवों को गोद ले लिया है. वह साक्षरता, खेती में मदद और सबसे ऊपर आध्यात्मिक शिक्षा देने में मदद करती हैं. नतीजे बेहद सकारात्मक हैं, बात चाहे खाद्य-उत्पाद की हो या सामाजिक सौहार्द की. सबसे बड़ी बात तो यह कि यह बदलाव आध्यात्मिक शिक्षा और मूल्यों से स्थायी हो जाता है. हमारे अंदर की मानवीयता और उच्चतम नैतिकता और गुणों को पाना ही पूरी मानवता के लिए सबसे बड़ी आशा है. वह दुनिया शांति और सौहार्द की होगी, जहां हिंसा किसी भी रूप में त्याज्य होगी.

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