नदियों के संरक्षण और उनके अविरल प्रवाह को बनाए रखने के लिए देश में कोई कारगर कानून नहीं होने की वजह से आए साल बिहार के बहुत सारे इलाके बाढ़ जैसी विपदा से जूझते रहते हैं. प्राचीन काल से गंगोत्री से गंगासागर तक बहनेवाली गंगा आजीविका और संस्कृति के समृद्धि की धारा को बहाती आयी है, लेकिन आधुनिक इंजीनियरों ने फरक्का जैसे बराज बनाकर गंगा को मुसीबत में तब्दील कर दिया है. चिंता की बात तो यह है कि केन्द्र सरकार बराज से होने वाले भारी नुकसान की अनदेखी करती आयी है और लोग तबाह हो रहे हैं. लेकिन वे बराज के खिलाफ आवाज नहीं उठा पा रहे हैं. बिहार सरकार भी अब होश में आयी है और जनता की तबाही के मद्देनजर एक सशक्त अभियान शुरू करने के लिए कमर कस रही है.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जल प्रबंधन में लगातार हो रही चूक के प्रति आगाह करते हुए कहा है कि फरक्का बांध की वजह से गंगा नदी मेें लगातार गाद जम रही है, जिसके चलते नदी उथली हो गई. इसलिये इस बांध को जल्द-से-जल्द तोड़ देना चाहिए. पिछले राज्यव्यापी निश्चय यात्रा के दौरान भागलपुर के नाथनगर प्रखंड स्थित हरिदासपुर गांव में भी नीतीश ने फरक्का के कारण वहां आने वाली बाढ़ से लोगों को निजात दिलाने के लिए कोशिश करने की बात कही थी. कई अवसरों पर नीतीश ने बेहिचक कहा है कि इस गाद को साफ करने का एकमात्र तरीका है कि फरक्का बांध को तोड़ दिया जाये. यदि केन्द्र के पास इस विकल्प के अलावा कोई दूसरा विकल्प है तो उसे तुरन्त नदी मेें जमा गाद की सफाई का काम शुरू कर देना चाहिए. इस लिहाज से नीतीश का बांध तोड़ने का सवाल न केवल इस बांध के सन्दर्भ में प्रासंगिक है, बल्कि बड़े बांधों के निर्माण के औचित्य पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है.
साल 1975 में पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में गंगा पर बना 2.62 किमी लम्बा फरक्का बांध अस्तित्व में आने के समय से ही नर्मदा सागर और टिहरी बांधों की तरह विवादास्पद रहा है. इस बांध को बनाने का मुख्य उद्देश्य गंगा से 40 हजार क्यूसेक पानी हुगली में छोड़ना था, जिससे हुगली और कोलकाता के बीच बड़े जहाज आसानी से चल सकें. बांध मेें कुल 109 दरवाजे हैं. बांध के शिल्पकारों ने ऐसा अन्दाजा लगाया था कि जल से लबालब भरे बांध के जब द्वार खोले जाएंगे तो इस जल प्रवाह से न केवल हुगली और कोलकाता के बीच गंगा की तलहटी में जो गाद जमा हो जाती है, वह बह जाएगी, साथ ही कोलकाता बन्दरगाह पर भी गाद जमा नहीं होगी. लेकिन परिणाम इस सोच के अनुरूप नहीं निकले. गंगा की तलहटी में तो भरपूर गाद जमती ही रही, कोलकाता बन्दरगाह की हालत भी जस-के-तस रही. इसके उलट फरक्का बांध में जब पानी लबालब हो जाता है, तो गंगा का पानी बिहार से उत्तर प्रदेश तक थमने लगता है. इस थिर-स्थिरता के कारण गंगा के बहने की विपरीत दिशा में तेजी से गाद जमने लग गई, जिस कारण नदी की गहराई लगातार कम हो रही है.
जब यह बराज नहीं था, तो हर साल बरसात के तेज पानी की धारा के कारण 150 से 200 फीट गहराई तक प्राकृतिक रूप से गंगा नदी की उड़ाही हो जाती थी. जब से फरक्का बराज बना सिल्ट की उड़ाही की यह प्रक्रिया रुक गयी और नदी का तल ऊपर उठता गया. जब नदी की गहराई कम होती है, तो पानी फैलता है और कटाव तथा बाढ़ के प्रकोप की तीव्रता को बढ़ाता जाता है. मालदह-फरक्का से लेकर बिहार के छपरा तक यहां तक कि बनारस तक भी इसका दुष्प्रभाव दिखता है. फरक्का बांध बनने के कारण गंगा के बाढ़ क्षेत्र में बढ़ोतरी का सबसे बुरा असर मुंगेर, नौगछिया, कटिहार, पूर्णिया, सहरसा तथा खगड़िया जिलों में पड़ा. इन जिलों में विनाशकारी बाढ़ के कारण सैकड़ों गांव विस्थापित हो रहे हैं. फरक्का बैराज की घटती जल निस्सारण क्षमता के कारण गंगा तथा उनकी सहायक नदियों का पानी उलटी दिशा में लौट कर बाढ़ तथा जलजमाव क्षेत्र को बढ़ा देता है. गंगा मुक्ति आंदोलन से लेकर बागमती के सवालों तक पर सक्रिय रहने वाले अनिल प्रकाश ने फरक्का पर काफी अध्ययन किया है. वे कहते हैं कि महज हुगली का सिल्टेशन रोकने के लिए यह बराज बनाया गया है. एक बंगाली अभियंता कपिल भट्टाचार्य ने पहले ही कह दिया था कि यह बराज असफल होगा. उन्हें उस वक्त विदेशी एजेंट करार दिया गया था. मगर उन्होंने तब जो-जो कहा था, वह सच साबित हुआ. गंगा की सहायक नदियों पर भी इसका भीषण असर पड़ रहा है. तटबंधों के टूटने की भी यह एक बड़ी वजह है. फरक्का का अशुभ असर तो इसके बनने वाले साल 1975 में ही बिहार पर पड़ गया था, जब पटना में बाढ़ आ गयी थी. इस बराज के कारण समुद्र से मछलियों की आवाजाही भी रुक गयी. फीश लैडर बालू-मिट्टी से भर गया. झींगा जैसी मछलियों की ब्रीडिंग समुद्र के खारे पानी में होती है, जबकि हिलसा जैसी मछलियों का प्रजनन ऋषिकेष के ठंडे मीठे पानी में होता है. फरक्का के कारण कटैया, फोकिया, राजबम, थमैन, झमण्ड, स्वर्ण खरैका, खंगशी, कटाकी, डेंगरास, करसा गोधनी, देशारी जैसी 60 देशी मछलियों की प्रजातियां लुप्त हो गई है. इसके कारण मछली से जीविका चलाकर भरपेट भोजन पाने वाले लाखों-लाख मछुआरों के रोजगार समाप्त हो गये.अब पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में रोजाना आंध्र प्रदेश से मछलियां आती हैं. गंगा मुक्ति आन्दोलन से जुड़ी कहलगांव की फेकिया देवी बताती है कि फरक्का बैराज बनने के बाद स्थिति यह है कि गंगा में समुद्र से मछलियां नहीं आ रही हैं.
यही नहीं, बांग्लादेश की तरफ से भी इस बांध के औचित्य पर पुनर्विचार की मांग तेज हो रही है, क्योंकि बांग्लादेश की सीमा इस बांध से महज 16 किमी दूर है. बांध में जब पानी भर जाता है, तब बांग्लादेश के सीमान्त गांवों पर डूबने का खतरा मंडारने लगता है. बांग्लादेश के नदी विशेषज्ञ और सरकार अरसे से फरक्का बांध से आम जन-जीवन पर प्रतिकूल असर का मुद्दा उठा रहे हैं. उनका आरोप है कि बांध में जमा गाद, पानी का बहाव तो धीमा करता ही है, गंगा के पानी को भी बांग्लादेश के डेल्टा से दूर कर देता है. इसका असर लाखों स्थानीय किसानों और मछुआरों को उठाना पड़ता है. बांग्लादेश का यह भी कहना है कि जल बंटवारे पर संधि के बावजूद उसे गंगा से उतना पानी नहीं मिल पा रहा है. हुगली नदी में गाद जमने की समस्या आजादी से पहले की है. भारत के स्वतंत्र होने के बाद दामोदर नदी घाटी पर बने बांध के चलते यह समस्या और गम्भीर हो गई. फरक्का बांध के निर्माण का मकसद इसी समस्या से छुटकारा पाना था.
19वीं सदी में सर आर्थर कॉटन ने पहली बार इस समस्या से निजात के लिये फरक्का बांध बनाने का सुझाव दिया था. लेकिन अंग्रेजी हुकूमत के दौरान बांध बन नहीं पाया. देश के आजाद होने के बाद कोलकाता बन्दरगाह में लगातार गाद जमती रही. नतीजतन इसकी गहराई कम होती चली गई. एक वक्त ऐसा भी आया, जब तलहटी में गाद जमते जाने की वजह से कोलकाता तक बड़े जहाजों की आवाजाही रोकनी पड़ी. इसी दौरान आर्थर कॉटन के प्रस्ताव पर नए सिरे से विचार करके फरक्का बांध के निर्माण की बुनियाद रख दी गई. कोलकाता बन्दरगाह न्यास के आंकड़ों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है. यहां के आंकड़ों से पता चला है कि बांध बनने के पहले हुगली में गाद जमा होने की रफ्तार 6.40 मिलियन क्यूबिक मीटर सालाना थी, जो अब बढ़कर 21.88 मिलियन क्यूबिक मीटर वार्षिक की दर से बढ़ रही है. हुगली नदी में ताजे पानी के साथ आने वाली गाद की मात्रा इतनी अधिक होती है कि उसे फरक्का से छोड़े जाने वाले 40 हजार क्यूसेक पानी से बहाना सम्भव ही नहीं है.
सच्चाई तो यह है कि गाद से केवल नदियां ही नहीं भरी हैं, बल्कि तालाब, झील, झरने, बरसाती नाले और कुएं भी पट गए हैं या पाट दिये गए हैं. शहरों, कस्बों और महानगरों का इस कारण जल-निकासी तंत्र अवरुद्ध हुआ है. दो साल पहले देव-भूमि केदारनाथ में हुई भयावह त्रासदी, कुछ ऐसे कारणों का परिणाम थी. किन्तु हमने इस त्रासदी से कोई सबक नहीं लिया.