पिछले एक हफ्ते में हमारे विदेश मंत्रालय ने काफी सक्रियता दिखाई है। विदेश मंत्री जयशंकर, सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल और विदेश सचिव हर्ष श्रृंगला एक के बाद एक हमारे पड़ौसी देशों की यात्रा कर रहे हैं। ये यात्राएं इसलिए भी जरुरी थीं कि एक तो अमेरिका में सरकार बदल रही है, दूसरा पड़ौसी देशों में इधर चीन असाधारण सक्रियता दिखा रहा है और तीसरा, नेपाल, श्रीलंका और सेशल्स जैसे देशों में ऐसे नेताओं ने सरकार बना ली हैं, जो भारत के प्रति आवश्यक मैत्रीपूर्ण रवैए के लिए नहीं जाने जाते।
पिछले कुछ वर्षों से चीन ने भारत के पड़ौसी देशों को उसी तरह अपने घेरे में ले लेने की कोशिश की है, जैसा कि उसने पाकिस्तान के साथ किया है। यह ठीक है कि अन्य सभी पड़ौसी देशों का भारत के प्रति वैसा शत्रुतापूर्ण रवैया नहीं है, जैसा कि पाकिस्तान का है लेकिन ये सभी छोटे-छोटे देश भारत-चीन प्रतिद्वंद्विता का लाभ उठाने से बाज़ नहीं आते। चीन की रेशम महापथ की योजना को किस देश ने स्वीकार नहीं किया है ? चीन उन्हें मोटे-मोटे कर्ज दे रहा है।
उनकी सड़कें, हवाई पट्टियां और बंदरगाह बनाने की चूसनियां लटका रहा है। उनके साथ फौजी सहकार के समझौते भी कर रहा है। चीन के राष्ट्रपति, विदेश मंत्री और बड़े नेता, जो इन देशों के नाम से कभी वाकिफ नहीं होते थे, वे अब उनकी परिक्रमा करने से नहीं चूकते। चीन को टक्कर देने के इरादे से ही अब अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपिओ श्रीलंका और मालदीव-जैसे छोटे-छोटे देशों की यात्रा करने में भी संकोच नहीं करते।
उन्होंने अभी-अभी सउदी अरब जाकर इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से भी भेंट की और इस्राइल से संयुक्त अरब अमारात आदि के कूटनीतिक संबंध भी जुड़वाए। यदि भारत उन्हीं के चरण-चिन्हों पर चलकर अपने प्रतिनिधियों को इन्हीं देशों में भेज रहा है तो भारत को अपने कदम फूंक-फूंककर रखने होंगे। भारत किसी भी राष्ट्र का पिछलग्गू नहीं बन सकता।
चीन और अमेरिका आपस में लड़ रहे हैं तो जरुर लड़ें लेकिन उसमें भारत को उसका मोहरा कदापि नहीं बनना चाहिए। चीन से द्विपक्षीय स्तर पर कैसे निपटें, यह भारत अच्छी तरह जानता है। यदि ट्रंप-प्रशासन ईरान को अपना शिकार बनाना चाहता है और अफगानिस्तान में अपनी जगह भारत को उलझाना चाहता है तो भारतीय विदेश मंत्रालय को बाइडन-प्रशासन के आने का इंतजार करना चाहिए। उसे ट्रंप के इशारे पर थिरकने की जरुरत नहीं है।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक