आख़िर सौ दिनों का एजेंडा क्या है? प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने अपने सभी मंत्रियों से कहा था कि वे उन्हें एक प्रेजेंटेशन दें और उसमें बताएं कि सौ दिनों के भीतर वे क्या-क्या करने वाले हैं और किस दिशा में जाने वाले हैं. अभी तक कहीं पर भी स्पष्ट नहीं हो पाया है कि मोदी मंत्रिमंडल सामूहिक रूप से अलग-अलग मंत्रियों के नेतृत्व में सौ दिनों की क्या योजना बना रहा है, क्या योजनाएं बनाई हैं और किस योजना के ऊपर काम हो रहा है. चूंकि, सौ दिनों के एजेंडे के बारे में देश को कुछ पता नहीं है, इसलिए एक संदेह का वातावरण निर्मित हो रहा है. संदेह इसलिए हो रहा है, क्योंकि देश में समस्याएं हैं, देश उन समस्याओं से निकलने के लिए छटपटा रहा है और इसीलिए उसने 1984 के बाद पहली बार एक स्पष्ट बहुमत वाली सरकार चुनी है. नरेंद्र मोदी ने देश से यही मांगा था और देश की जनता ने उन्हें खुले हाथों से बिना किसी संदेह के पूर्ण समर्थन दिया. लेकिन इतने समर्थन के बाद भी अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी दिशा, किए जाने वाले कामों एवं अपनी योजनाओं को जनता के साथ साझा न करें, तो संदेह पैदा होता है.
क्या अब हमें यह मान लेना चाहिए कि लोकतंत्र का एक नया स्वरूप हमारे सामने आने वाला है, जिसमें पूर्ण गोपनीयता और रहस्यात्मकता होगी? क्या हम यह मान लें कि अब लोकतंत्र में अपनी समस्याओं के लिए आंदोलन करने की गुंजाइश समाप्त होने वाली है? क्या यह मान लें कि हमें लोकतंत्र के अब तक के सर्वमान्य सिद्धांत भूल जाने चाहिए? मैं यह मानता हूं कि इन सवालों का अभी कोई औचित्य नहीं है और इन सवालों पर बात करने का शायद अभी वक्त भी नहीं आया है, पर शहरों में रहने वाले लोग शायद इस बात को न समझें, लेकिन गांवों में रहने वाले लोग इस बात को अवश्य समझेंगे कि आंधी या तूफान उठते बाद में हैं, संकेत पहले दे जाते हैं. दुनिया में एक हमारा ही देश है, जहां कहावतें संकेत बनी हैं और उन कहावतों ने स्वयं को पूर्णतय: सत्य साबित किया है. गांव में अभी भी लोग आसमान की तरफ़ देखकर बता देते हैं कि आंधी आने वाली है. गांव के लोग यह भी बता देते हैं कि किस दिशा की हवा बह रही है, तो पानी बरसेगा या नहीं बरसेगा. इसी तरह घाघ और भड्डरी की कहावतें मौसम को लेकर, खेती को लेकर और जीवन में उठाने वाले क़दमों को लेकर सटीक संकेत देती हैं. इसीलिए जो संकेत नज़र आ रहे हैं, वे ऐसे नहीं हैं, जिनसे यह माना जाए कि हम सवालों को लेकर संदेह के दायरे में स्वयं को न पाएं.
महंगाई को लेकर सरकार चिंतित दिखाई देती है, लेकिन महंगाई कहीं पर भी रुकती नज़र नहीं आ रही है. यह कैसे हो सकता है कि हम रेल का किराया 14.20 प्रतिशत बढ़ा हुआ देखें और मान लें कि महंगाई कम होगी? यह कैसे हो सकता है कि पेट्रोल और डीजल के दाम हर महीने बढ़ें और महंगाई कम होने का दावा भी हम स्वीकारें? यह कैसे मान लें कि रा़ेजगार देने वाली आर्थिक नीतियां हम न स्वीकारें और रोज़गार मिल जाए. हम यह कैसे मान लें कि भ्रष्टाचार का मुक़ाबला करने के लिए जिस तकनीक का वादा प्रधानमंत्री ने देश से किया, उसके बारे में देश को कुछ न बताया जाए और भ्रष्टाचार कम हो जाए? भारतीय जनता पार्टी के मित्र जब मिलते हैं, तो मुझे उनकी चिंताएं देखकर कांग्रेस सरकार के समय कांग्रेस के संवेदनशील कार्यकर्ताओं की चिंताएं याद आ जाती हैं. सरकार को कोई चिंता नहीं होती थी. दावे होते थे, वादे होते थे, लेकिन कार्यकर्ता जानता था कि गड़बड़ हो रही है. उसी तरह आज दावे भी हो रहे हैं, वादे भी हो रहे हैं और हर मंत्री यह कहता हुआ दिख रहा है कि हमें वक्त तो दीजिए, हम अच्छे दिन लाकर दिखाएंगे. क्या अच्छे दिनों की परिभाषा उसी तरह बदल जाएगी, जिस तरह ग़रीबी की परिभाषा मनमोहन सिंह सरकार के समय योजना आयोग ने बदल दी थी? क्या अब अच्छे दिन का मतलब हम यह मान लें कि जो दिन चल रहे हैं, जिन्हें पहले हम बुरे दिन कहते थे, वे अब की परिभाषा में अच्छे दिन माने जाएंगे? बुराई अच्छाई में तब्दील हो जाएगी?
ये सारे सवाल इसलिए उठ रहे हैं, क्योंकि देश के गृहमंत्री शायद प्रधानमंत्री की इच्छा के अनुरूप देश में उन शक्तियों को देश के विकास के लिए ख़तरा मानने का बयान दे चुके हैं, जो विकास न होने की वजह से हाथ में हथियार लिए हुए आंदोलन करने की बात कहती हैं. जिस एक बात को यह सरकार नहीं समझ रही है, वह यह है कि जिन प्रदेशों में नक्सलवाद या उग्रवाद है, उन्हीं प्रदेशों से सेना में सबसे ज़्यादा सिपाही आते हैं. लड़ाई विकास बनाम भ्रष्टाचार की है, लड़ाई शोषण बनाम विकास की है. लड़ाई हथियार बनाम हथियारों की नहीं है. पर अगर हम विकास की लडाई को हथियारों की लड़ाई में बदलते हुए देखें, तो हमारा मन उन्हें अच्छे दिन मानने को तैयार कैसे हो सकता है? लेकिन, अभी आशा छोड़नी नहीं चाहिए और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तो इतना असंवेदनशील नहीं मानना चाहिए कि वह अपने किए हुए सारे वादों को पूरा करने में कोई कोताही बरतेंगे. हम स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति आशावान हैं, लेकिन ये आशाएं कहीं न कहीं संदेह की धुंध में लिपटती जा रही हैं. अभी तक एक भी संकेत ऐसा नहीं मिला है, जिससे हम यह मानें कि इस सरकार के पास ऐसी कोई योजना है, जो महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोज़गारी कम करने की दिशा में कारगर हो सकती है.
आख़िर में एक निवेदन अवश्य करना चाहेंगे कि जब तक देश की आर्थिक नीतियां ग्रामीण रोज़गार पैदा करने वाली नहीं होंगी, तब तक इस देश में न भ्रष्टाचार, न बेरोज़गारी और न महंगाई, किसी पर भी काबू नहीं पाया जा सकता. हमारी मौजूदा आर्थिक नीतियां इस देश के गांवों, जहां पर उत्पादन होता है, में अगर उद्योगों की शृंखला लगाने वाली न हों, जो कि नहीं हैं, तो फिर किसी भी समस्या के हल के प्रति बढ़ा ही नहीं जा सकता. इसके बावजूद जादूगर जादू दिखाता है, लेकिन जादूगर का जादू मनोरंजन करता है, पर वह न तो पेट में रोटी पहुंचा सकता है और न जेब में एक भी रुपये की ताकत पैदा कर सकता है. वह मायाजाल है, भ्रमजाल है. नरेंद्र मोदी ऐसे जादूगर के रूप में इतिहास में याद नहीं किए जाएं, इसके लिए ज़रूरी है कि देश की आर्थिक नीतियां बदलें और यह देश सचमुच समस्याओं के महाजाल से मुक्त हो.
अच्छे दिनों का मतलब क्या है?
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