दिल्ली जितनी परिवार (संघ) की अंदरूनी लड़ाई के लिए अहम है, उतनी ही अहम आप और भाजपा के बीच की लड़ाई है. अगर साक्षी महाराज, घर वापसी और रामजादे के रहते भाजपा अपनी पिछली कामयाबी दोहराती है, तो वह भाग्यशाली होगी. संघ परिवार को अल्पसंख्यकों से नफरत हो सकती है, लेकिन उनके वोट चुनावी नतीजे बदल सकते हैं, जैसा कि हमने जम्मू-कश्मीर में देखा, जहां भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनने से वंचित रह गई.
रजनी कोठारी, जिनका अभी हाल ही में निधन हुआ है, लीक से हटकर अपनी अलग पहचान बनाने वाले समाजशास्त्री थे. यह रजनी कोठारी ही थे, जिन्होंने हमें पश्चिमी विचारधारा के बजाय भारतीय वास्तविकताओं के आधार पर अपनी राजनीति को परखने का तरीका सिखाया. उनके विचार में कांग्रेस तंत्र एक सर्व-समावेशी और अखिल भारतीय तंत्र था, जिसने यह साबित किया कि अंग्रेजी भाषी वर्ग के खोखले अलंकृत विचारों के अतिरिक्त भी भारत की वास्तविक राजनीति को समझने और उस पर विचार करने के लिए बहुत कुछ है. कांग्रेस तंत्र की रुचि विभिन्न जातीय एवं क्षेत्रीय समूहों को पार्टी में शामिल करने में थी. हालांकि, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद की विचारधाराएं स्पष्ट नहीं थीं, लेकिन पार्टी यह चाहती थी कि उक्त समूह उसकी हिमायत करें. बहरहाल, वर्ष 1947 एवं 1969 के दौरान कांग्रेस ने अपना अस्तित्व बचाए रखा और वह भारत को एक खुला एवं साहिष्णु लोकतंत्र देने में कामयाब रही, जहां अभिव्यक्ति की आज़ादी को फलने-फूलने का भरपूर मौक़ा मिला. लेकिन कांग्रेस के इस तंत्र को उस समय झटका लगा, जब इंदिरा गांधी ने पार्टी को विभाजित कर दिया. अब हमारे सामने पार्टी के बजाय एक पारिवारिक व्यवसाय था, जहां सबसे ऊंचा पद केवल बेटे या बेटी को ही मिल सकता था और चाटुकारिता एकमात्र विचारधारा बन गई थी. अब यह तंत्र समाप्त हो गया है. इसके बारे में अब हमें सोचने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है.
वर्तमान में एक नई राजनीतिक व्यवस्था जन्म लेने के लिए संघर्ष कर रही है और इस व्यवस्था का जन्म शायद दिल्ली में हो. किरण बेदी के भाजपा में शामिल होने पर बहुत सारी सतही टिप्पणियां की गईं. लोगों को शायद यह नज़र नहीं आ रहा है कि 1969 में कांग्रेस तंत्र के टूटने के बाद जन आंदोलनों से कई नई ताक़तें राजनीति में आई थीं, जिन्होंने उस तंत्र को चुनौती दी थी. जेपी आंदोलन की वजह से जनता (परिवार) पार्टी वजूद में आई थी. इस पार्टी में बिखराव ने अनगिनत पार्टियों को जन्म दिया था, जिनमें से कुछ का आज की राजनीति के अधिकतर हिस्से पर क़ब्ज़ा है. आज की भाजपा ने खुद को जनसंघ से जनता पार्टी में बदल दिया, वही हाल जनता दल के विभिन्न धड़ों का था, जो अभी पूरे जोश से एक होने की कोशिश कर रहे हैं. अगला जन आंदोलन अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुआ. इस आंदोलन के परिणाम जेपी आंदोलन की तरह आश्चर्यजनक नहीं थे, लेकिन इसने जो दीया जलाया था, उसमें अभी रौशनी बाकी है. अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी इसी आंदोलन की उपज हैं, लेकिन अब वे दो अलग-अलग पार्टियों का हिस्सा हैं, जो अनावश्यक बयानबाज़ी का कारण बन रही हैं. अब जबकि कांग्रेस की खानदानी दुकान बंद हो गई है, इसलिए अब नए नेता केवल जन आंदोलनों से ही आ सकते हैं. ये आंदोलन एक व्यापक गठजोड़ होते हैं, जिनमें कोई एक विचारधारा नहीं होती. केजरीवाल और किरण बेदी दोनों ही कार्यकर्ता और काम करने में यकीन रखने वाले शख्स हैं. वे मौजूदा शासन व्यवस्था में परिवर्तन लाना चाहते हैं और उन पर विचारधारा बाहरी लेप ही नज़र आती है. वे केवल सत्ता में रहते हुए ही प्रभावी रह सकते हैं.
वर्तमान में एक नई राजनीतिक व्यवस्था जन्म लेने के लिए संघर्ष कर रही है और इस व्यवस्था का जन्म शायद दिल्ली में हो. किरण बेदी के भाजपा में शामिल होने पर बहुत सारी सतही टिप्पणियां की गईं. लोगों को शायद यह नज़र नहीं आ रहा है कि 1969 में कांग्रेस तंत्र के टूटने के बाद जन आंदोलनों से कई नई ताक़तें राजनीति में आई थीं, जिन्होंने उस तंत्र को चुनौती दी थी.
आज से 13 महीने पहले दिल्ली चुनाव में केजरीवाल की पार्टी के अच्छे प्रदर्शन ने देश को स्तब्ध कर दिया था. मीडिया ने इसे बहुत कवरेज दिया. मध्यम वर्ग, जो कांग्रेस से आहत था और भाजपा के बारे में अनिश्चित, उसने सोचा कि केजरीवाल के रूप में उसका बेड़ा पार करने वाला मिल गया. लेकिन अफ़सोस, जनता के स्नेह ने केजरीवाल और उनकी पार्टी को घमंडी बना दिया. उन्होंने एक विपक्षी पार्टी की तरह व्यवहार करते हुए सत्ता छोड़ दी और आम चुनाव में पूरे देश में अपनी पार्टी के उम्मीदवार खड़े किए. इसी दौरान एक अधिक अनुभवी मुख्यमंत्री ने भाजपा को केंद्र में रखते और सबका विकास का नारा देते हुए चुनावी राजनीति के नक्शे को पुन: रेखांकित करना शुरू किया था. उसने मध्य वर्ग को आश्वस्त किया और ग़रीबों को उसमें आशा की किरण नज़र आई. उसने अपनी पार्टी को पहली बार पूर्ण बहुमत दिलाया. उसने बड़ी उम्मीदें जगाई हैं और उन उम्मीदों को पूरा करने के लिए उसे चौबीसों घंटे काम करना पड़ रहा है. जैसे-जैसे उसकी पार्टी एक के बाद एक राज्य में चुनाव जीत रही है, वैसे-वैसे उसका परिवार (संघ) उसके लिए बाधा उत्पन्न कर रहा है. विकास और बेहतर शासन व्यवस्था के बजाय परिवार अल्पसंख्यकों से संबंधित अपने पागलपन और प्राचीन भारत के इतिहास में उलझा रहेगा.
दिल्ली जितनी परिवार (संघ) की अंदरूनी लड़ाई के लिए अहम है, उतनी ही अहम आप और भाजपा के बीच की लड़ाई है. अगर साक्षी महाराज, घर वापसी और रामजादे के रहते भाजपा अपनी पिछली कामयाबी दोहराती है, तो वह भाग्यशाली होगी. संघ परिवार को अल्पसंख्यकों से नफरत हो सकती है, लेकिन उनके वोट चुनावी नतीजे बदल सकते हैं, जैसा कि हमने जम्मू-कश्मीर में देखा, जहां भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनने से वंचित रह गई. ऐसे में किरण बेदी का पार्टी में शामिल होना महत्वपूर्ण है. इससे साबित होता है कि भाजपा काम करने वाली पार्टी है, न कि उपद्रव करने वालों की पार्टी है. भाजपा भी कांग्रेस की तरह एक व्यापक तंत्र बनने की इच्छा रखती है और इसके लिए उसे दिल्ली का चुनाव प्रभावकारी तौर पर जीतना होगा. अब सवाल है कि क्या यह संभव है?